Sunday, February 28, 2010
Thursday, February 25, 2010
हम शर्मिंदा हैं हुसैन
अखबार अभी कुछ देर पहले शाम को उठाया और सन्न रह गया. `द हिन्दू` की बोटम स्टोरी `M.F. Husain gets Qatar nationality` आपने तो सुबह ही देख ली होगी. जो हाल मेरा है, इस देश के महान सेक्युलर मूल्यों में विशवास रखने वाले हर नागरिक का होगा. कुछ नहीं सूझा, कबाड़ख़ाने वाले अशोक भाई को फ़ोन लगाया कि वहाँ ब्लॉग पे इस बारे में कुछ जाए पर फोन नहीं उठ सका. हम शर्मिंदा है कि इतने महान कलाकार को इस उम्र में दरबदर कर रखा है. कांग्रेस सांप्रदायिक शक्तियों के विरोध के नाम पर वोट चाहती है लेकिन उसकी सरकार में ऐसा जरा भी गंभीर प्रयास नहीं हुआ कि यह महान कलाकार इज़्ज़त के साथ देश लौट पाए. फिलहाल `द हिन्दू` की स्टोरी ही चिपका रहा हूँ. आप पाएंगे कि यहाँ एन.राम भी क्यूँ एन.राम हैं.
M.F. Husain gets Qatar nationality
N. RAM
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M.F. Husain, India’s greatest and most celebrated artist, has been conferred Qatar nationality - something that is very rarely given. The artist gave me this news from Dubai early Wednesday morning by reading out the few lines he had written on a black-and-white line drawing that he released to The Hindu.
“Honoured by Qatar nationality” but deeply saddened by his enforced exile and the need now to give up the citizenship of the land of his birth, which he has lovingly and secularly celebrated in his art covering a period of over seven decades. India does not allow dual citizenship, even though it has instituted the category of the ‘Overseas Indian Citizen.’ Mr. Husain will no doubt seek to acquire OIC status after completing the due procedures.
It is important to note that Mr. Husain did not apply for Qatar nationality and that it was conferred upon him at the instance of the modernising emirate’s ruling family.
Since 2006, when the Hindutva hate campaign against him escalated, Mr. Husain has been living in Dubai, spending his summers in London. He travels freely except to India, where he faces legal harassment and physical threats, with the system impotent and not committed to enabling his return. Though the Supreme Court has intervened on the right side, it was too little, too late. The Congress-led government, it is clear, has done no better than the preceding BJP-led governments in protecting Mr. Husain’s freedom of creativity and peace of mind.
Almost 95, the artist works a long day, producing large canvasses and life-size glass sculptures. Never has he been as commercially successful as he is today. His work now is mostly towards two large projects, the history of Indian civilisation and the history of Arab civilisation. The latter was commissioned by Qatar’s powerful first lady – Sheikha Mozah bint Nasser al Missned, wife of the emirate’s ruler, Sheikh Hamad bin Khalifa Al Thani. The works will be housed in a separate museum in Doha.
While being a rare honour, Mr. Husain’s impending change of nationality brings to a close one of the sorriest chapters in independent India’s secular history. Mr. Husain’s time of troubles began in 1996, after a Hindi monthly published an inflammatory article on his paintings of Hindu deities done in the 1970s. This led to a slew of criminal cases, filed in far-flung places, which alleged in the main that the artist had hurt the feelings of Hindus through his paintings. Mr. Husain estimates that there are 900 cases against him in various courts of India. He has been harassed by fanatical mobs. Exhibitions of his work have been vandalised. All this has created a fear of exhibiting his work in India.
I have personally accompanied Mr. Husain to court proceedings in Indore and have first-hand experience of the harassment and terror he faced from bigoted mobs. I received him in Mumbai on his return from the first of his temporary exiles and saw what insecurity and uncertainty this creative genius had to endure in rising India. It is ironical that a country whose religious art often portrays nudity and even overt sexuality, as in the case of the Khajuraho sculptures and the murals and frescoes of south Indian temples, has grown so intolerant as to drive into permanent exile its most famous artist.
I know no one more genuinely and deeply committed to the composite, multi-religious, and secular values of Indian civilisation than M. F. Husain. He breathes the spirit of modernity, progress, and tolerance. The whole narrative of what forced him into exile, including the shameful failure of the executive and the legal system to enable his safe return, revolves round the issues of freedom of expression and creativity and what secular nationhood is all about.
The conferment of Qatar nationality is an honour to Mr. Husain, to his artistic genius, and to the India-rooted civilisational values he represents. Nevertheless, it is a sad day for India.
Wednesday, February 24, 2010
विष्णु नागर के नये संग्रह से चार कविताएँ
दो यात्राएँ
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मैं एक यात्रा में
एक और यात्रा करता हूँ
एक जगह से एक और जगह पहुँच जाता हूँ
कुछ और लोगों से मिलकर कुछ और लोगों से मिलने चला जाता हूँ
कुछ और पहाड़ों, कुछ और नदियों को देख कुछ और ही पहाड़ों
कुछ और नदियों पर मुग्ध हो जाता हूँ
इस यात्रा में मेरा कुछ ख़र्च नहीं होता
जबकि वहाँ मेरा कोई मेज़बान भी नहीं होता
इस यात्रा में मेरा कोई सामान नहीं खोता
पसीना बिलकुल नहीं आता
न भूख लगती है, न प्यास
कितनी ही दूर चला जाऊं
थकने का नाम नहीं लेता
मैं दो यात्राओं से लौटता हूँ
और सिर्फ़ एक का टिकट फाड़कर फेंकता हूँ
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किरायेदार
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एक कबूतर के जोड़े को सुरक्षित घर की तलाश है
जहाँ कबूतरी अंडे दे सके, उन्हें से सके, बच्चे दे सके
उड़ना सीखने तक वहाँ सुकून से रह सके
एग्रीमेंट कोई नहीं
एडवांस बिल्कुल नहीं
किराया एक धेला नहीं
किराये पर यह घर दूसरे को न चढ़ाने की कोई गारंटी नहीं
आने-जाने में समय की कोई पाबंदी नहीं
लेकिन बिजली-पानी का कोई ख़र्च नहीं
इच्छुक व्यक्ति आज ही ई-मेल करें या फ़ोन करें
चिट्ठी न लिखें, अर्जेंसी है.
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पहाड़ जैसे आदमी
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पहाड़ अपने बारे में कुछ नहीं जानते
यह भी नहीं कि वे पहाड़ हैं
इसलिए अपनी उपलब्धियों की
प्रशंसा करना-करवाना भी नहीं जानते
कुछ आदमी भी ऐसे होते हैं
लोग उन्हें खोदते रहते हैं
उन पर चढ़ते-उतरते रहते हैं
माकन और मंदिर बनवाते रहते हैं
उनसे नीचे देखते हुए डरते रहते हैं
ऊपर खुला नीला आसमान देख ख़ुश होते रहते हैं
हो सकता है ऐसे आदमी
पहाड़ों के वंशज हों.
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फ़र्क़ पड़ता है
(युवा कवि निशांत के लिए)
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मौसम बदलता है तो फ़र्क़ पड़ता है
चिड़िया चहकती है तो फ़र्क़ पड़ता है
बेटी गोद में आती है तो फ़र्क़ पड़ता है
किसी का किसी से प्रेम हो जाता है तो फ़र्क़ पड़ता है
भूख बढ़ती है, आत्महत्याएँ होती हैं तो फ़र्क़ पड़ता है
आदमी अकेले लड़ता है तो भी फ़र्क़ पड़ता है
आस्मां पर बादल छाते हैं तो फ़र्क़ पड़ता है
ऑंखें देखती हैं, कान सुनते हैं तो फ़र्क़ पड़ता है
यहाँ तक कि यह कहने से भी आप में और दूसरों में फ़र्क़ पड़ता है
कि क्या फ़र्क़ पड़ता है!
जहाँ भी आदमी है, हवा है, रोशनी है, आसमान है, अँधेरा है,
पहाड़ हैं, नदियाँ हैं, समुद्र हैं, खेत हैं, लोग हैं, आवाज़ें हैं
नारे हैं
फ़र्क़ पड़ता है
फ़र्क़ पड़ता है
इसलिए फ़र्क़ लानेवालों के साथ लोग खड़े होते हैं
और लोग कहने लगते हैं कि हाँ, इससे फ़र्क़ पड़ता है.
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घर के बाहर घर
अंतिका प्रकाशक, सी-५६/यूजीएफ-४, शालीमार गार्डन, एक्सटेंशन-।।
गाज़ियाबाद (उप्र)
Monday, February 22, 2010
सच्ची रचनात्मक ख़ुशी बड़ी नेमत है : मनमोहन
एक लिखने वाले को असल इनाम ज़्यादातर अपने लिखने के अंदर ही उसे मिल जाया करता है। एक सच्ची रचनात्मक ख़ुशी, चाहे वह किसी तकलीफ में लिपटी क्यों न हो, एक बड़ी नेमत है- ख़ासकर हमारे इन वक़्तों में, जबकि वह दुर्लभ हो चली है और कम ही को और कभी-कभी ही नसीब हो पाती है। किसी छदमपूर्ति से शायद ही इसकी खाली जगह भरी जा सके। एक ऐसे समय में और इस तरह ढलते समाज में जहां मनुष्य हर पल अपनी इन्सानी गरिमा को खोता हुआ, अपमानित और अवमूल्यित होता हुआ दिखाई देता है, अपनी अच्छाई और सच्चाई के लिए तिरस्कृत और दंडित होता हुआ दिखाई देता है, एक लेखक को आखिर किस तरह और कितना सम्मानित किया जा सकता है?
एक लेखक अगर अपना देखा हुआ या खोजा हुआ औरों को दिखा सके, ख़ासकर, उन लोगों को जिन्हें वह बताना या दिखाना चाहता है तो यह भी एक बड़ी बात है, लेकिन यह हमेशा मुमकिन हो ही जाएगा, कहना कठिन है। इतिहास में यह भी देखा गया है कि कई बार किसी वक़्त कहे गए शब्द ठीक-ठीक अपनी अंतर्ध्वनियों और अपने मर्म के साथ किसी और वक़्त में सुनाई देते हैं। कहा जाता है, अपने जीवनकाल में जब चेखव मॉस्को के एक थियेटर में अपने ही लिखे एक नाटक का प्रदर्शन देख रहे थे तो नाटक के किसी विरल दुखान्तिक क्षण में (शायद जब उन्हें लगता था कि दर्शक सांस रोक कर इसे देखेंगे), दर्शकदीर्घा से फूहड़ हंसी का फव्वारा उठा और चेखव मर्माहत होकर थियेटर के बाहर निकल आए। यथास्थिति का पोषक कलाकार लोगों के सोचने, देखने और महसूस करने की बनी-बनाई सरणियों का सहारा लेकर आसानी से इस कठिनाई से बच जाता है, लेकिन जिस रचनाकार की यथास्थिति के साथ कुछ बुनियादी अनबन है उसका रास्ता भी कुछ टेढ़ा है और उसकी कीमता चुकाना भी वह जानता है। मिर्ज़ा ग़ालिब, प्रेमचंद और निराला सरीखे लेखकों को इसकी क़ीमत अदा करनी पड़ी। आज भी हिंदी के बहुत से आचार्यों को मुक्तिबोध और रघुवीर सहाय को कवि मानने में खासी दुश्वारी होती है।
पिछले बीस वर्षों में अन्ध-उपभोग की लम्पट संस्कृति ने ऊपर से नीचे तक, गांव-कस्बे और दूर-दराज़ के दुर्गम इलाकों तक अपने हाथ लम्बे कर लिए हैं और हमारी सामाजिक-संस्कृति की खाली या पहले से भरी हुई तमाम जगहों पर कब्ज़ा जमाने की मुहिम चला रखी है। कला-साहित्य और नवजागरण के मूल्यों की श्रेष्ठ परम्पराएं जिन इलाक़ों से कोसों दूर रहीं, उन तक इस लम्पट संस्कृति ने अपनी पहुंच बनाकर पहले से ही एक जाल सा बिछा लिया है। स्थानीय पहलकदमियां और संस्कृति-कर्म के परम्परागत रूप आज निरस्त होकर इसी के फ्रेमवर्क में ढल रहे हैं।
अभी सौ-सवा-सौ साल पहले तक कला-साहित्य की दुनिया दरबारदारी से अभिन्न थी। नवजागरण काल में ही कला दरबारों से बाहर निकली जब उसने अभिव्यक्ति के मृत सांचों और जड़ अभ्यासों को छोड़कर गांव-कस्बे के मामूली लोगों की चारों ओर फैली हुई दुनिया की ओर रुख़ किया। नवजागरण ने साहित्य और कला को नया क्षेत्र दिया और व्यापक सामाजिक जीवन और सृष्टि की विपुलता के साथ उसका रिश्ता कायम किया। नवजागरण काल में ही साहित्य का तेज़ी से जनतांत्रिकीकरण हुआ लेकिन यह काम अभी बुरी तरह अधूरा है। जिन इलाकों में नवजागरण की धारा अपेक्षाकृत कमज़ोर रही व समाज-सुधार के आंदोलन को कट्टरपंथ और रूढ़िवाद ने दबा लिया, वहां साहित्य की स्थिति भी ज़्यादा चिंताजनक है। यही इलाके हैं जहां शिशु मृत्युदर, कुपोषण और बेगारी का भयावह चित्र दिखाई देता है और जहां स्त्रियों पर अपराध, घरेलू हिंसा, जातीय उत्पीड़न, साम्प्रदायिक हिंसा और जहालत सबसे उग्र रूप में दिखाई देती है। विचारों की संस्कृति, पठनपाठन और संवाद की स्थिति यहां जड़ें नहीं डाल सकी। सामाजिक जीवन में उदार जनतांत्रिक मूल्यों की साख यहां बेहद कम है और पशुबल या धींगामस्ती से एकत्र की गई अनैतिक ताकत का डंका बजता है। कहना चाहिए फ़ासीवाद के विषाणु यहां की तलछट में बैठे हुए हैं। कोई ताज्जुब नहीं कि अपने श्रेष्ठ साहित्य से यहां की आबादियों का अपरिचय और दूरी दक्षिण भारत, बंगाल या महाराष्ट्र से कई गुना ज्यादा है।
हिंदी लेखक का काम और उसकी किस्मत सबसे पहले इसी इलाके से जुड़ी है। लेखक अगर कोरा लेखक ही बना रहता है और एक सांस्कृतिक कार्यकर्ता की तरह इस कठिन समय में अपने पक्ष का निर्माण नहीं करता, अपने समय के विमर्शों में हिस्सा नहीं लेता और लगातार इस बात की कठोर जांच नहीं करता कि उसका पक्ष क्या बन रहा है, तो बहुत मुमकिन है कि वह उसी सांस्कृतिक तंत्र का दांत और पेंच बन जाए, जिसका कि डंका बज रहा है। बेशक जाहिल आत्मप्रेम और किसी झूठ के नशे में लेखक मज़े से रह सकता है और क़ामयाब भी हो सकता है, लेकिन अपनी किसी सार्थक भूमिका का निर्वाह नहीं कर सकता।
अंत में मेरा कर्तव्य है कि मैं हरियाणा साहित्य अकादमी का शुक्रिया अदा करूं जिसने मुझे अपनी बात रखने का मौका दिया। अब यह तो अकादमी वाले जानें कि उन्होंने इस भारी भरकम सम्मान के लिए मेरे जैसे अनाड़ी शख़्स का चुनाव क्यों किया, जिसे ऐसे उपक्रमों से गुजरने का कोई अभ्यास नहीं है और जो बचा रह सके तो अपनी खैर समझता है। मैं कविताएं ज़रूर लिखता हूं लेकिन काफ़ी हद तक यह एक मजबूरी ही है। मेरे जैसे लोग अक्सर अपने काम को लेकर आत्मसंशय से घिरे रहते हैं। खैर... आप दोस्तों के प्यार की अभिव्यक्ति का चिह्न मानकर और सोच-समझकर मैंने आखिर इस कठिनाई से गुज़र जाना ही मुनासिब समझा।
मैं आपके द्वारा दिये जा रहे इस सम्मान को संघर्षशीष मामूली लोगों की अब तक न पहचानी गई रचनाशीलता को याद करते हुए अत्यंत विनम्रतापूर्वक ग्रहण करता हूं और चाहता हूं कि इस सम्मान से जुड़ी धरनाशि को हरियाणा ज्ञान-विज्ञान समिति स्वीकार करे, जिससे उसके नेतृत्व में नाटक और अन्य हस्तक्षेपकारी वैकल्पिक सांस्कृतिक रूपों के विकास की जो मुहिम हरियाणा के गांव-देहात तक चलाई जा रही है, उसमें इस पैसे का सदुपयोग हो सके।
मैं आदरणीय डॉ. ओमप्रकाश ग्रेवाल, श्री रामनाथ चसवाल (आबिद आलमी) और श्री बलबीर मलिक को याद करता हूं जो अब नहीं हैं जिन्होंने हरियाणा के सामाजिक-सांस्कृतिक परिदृश्य को बेहतर बनाने में अमूल्य योगदान किया है और जिनके गहरे संग-साथ ने हरियाणा में पिछले तीस वर्षों के प्रवास को बेहद अर्थपूर्ण बना दिया।
अन्त में मैं पुन आपका धन्यवाद करता हूं।
हरियाणा साहित्य अकादमी ने करीब दो बरस पहले मनमोहन को सूर सम्मान (प्रशस्ति पत्र और एक लाख की रुपये की राशि) प्रदान किया था तो यह वक्तव्य अकादमी की स्मारिका में छपा था। शीर्षक मैंने अपनी समझ से लिख दिया है।
(मनमोहन को कुछ ज्यादा पढने के लिए पोस्ट के नीचे labels के आगे मनमोहन पर क्लिक कीजिये)
Thursday, February 18, 2010
लाल्टू की चार कविताएँ उनके नये संग्रह से
मिडिल स्कूल
ऊँची छत
नीचे झुके सत्तर सिर
तीस बाई तीस के कमरे में
शहतीरें अँग्रेज़ी ज़माने की
कुछ सालों में टूट गिरेंगीं
सालों लिखे खत
सरकारी अनुदानों की फाइलें बनेंगीं
जन्म लेते ही ये बच्चे
उन खातों में दर्ज हो गए
जिनमें इन जर्जर दीवारों जैसे
दरारों भरे सपने हैं
कोने में बैठी चार लड़कियाँ
बीच बीच हमारी ओर देख
लजाती हँस रही हैं
उनके सपनों को मैं अँधेरे में नहीं जाने दूँगा
यहाँ से निकलने की पक्की सड़कें मैं बना रहा हूँ
ऊबड़-खाबड़ ब्लैक बोर्ड पर
चाक घिसते शिक्षक सा
पागल हूँ मैं ऐसा ही समझ लो
मेरी कविता में इन बच्चों के हाथ झण्डे होंगे
आज भी जलती मशालें मैं उन्हें दूँगा
हाँ, खुला आसमान मैं उन्हें दूँगा.
घर और बाहर
घर के आज़ाद तनाव में बाहर नहीं आ सकता
घर ही घर पकती खिचड़ी, होते विस्फोट, खेल-खेल में खेल
बाहर घर में एक ओर से आकर दूसरी ओर से निकल जाता है
घर बचा रहता अकेला, सिमटा हुआ
सिमटते हुए उसे दिखता बाहर
घर ही घर दिखती दुनिया रंगीन मटमैली
बाहर बसन्त
घर कभी गर्म, कभी ठण्डा
सही गलत के निरन्तर गीत गाए जाते घर में.
कभी कभी धरती अपनी धुरी से ज़रा सी भटकती है, विचलित होता है घर
कभी ज़मीं से ऊपर सोचने को कितना कुछ है उसके पास
घर ऊब चुका होता है नियमबद्ध दिनचक्र से
घर चाहता है, एकबार सही हो ताण्डव, दिन बने रात, रात में चौंधियाए प्रकाश
बाहर घर को छोड़ देता है उसकी उलझनों में
घर ही घर लिखे जाते हैं रात और दिनों के समीकरण
फिर कालबैसाखी के बादल आ घेरते घर को
गहरे समुद्र में डुबकियाँ लगाता सोचता घर
वह कितना होना चाहता है आज़ाद.
कविता नहीं
कविता में घास होगी जहाँ वह पड़ी थी सारी रात.
कविता में उसकी योनि होगी शरीर से अलग.
कविता में ईश्वर होगा बैठा उस लिंग पर जिसका शिकार थी वह बच्ची.
होंगीं चींटियाँ, सुबह की हल्की किरणें, मंदिरों से आता संगीत.
कविता इस समय की कैसे हो.
आती है बच्ची खून से लथपथ जाँघें.
बस या ट्रेन में मनोहर कहानियाँ पढ़ेंगे आप सत्यकथा उसके बलात्कार की.
हत्या की.
कविता नहीं.
सफ़र हमसफ़र
ऐसा ही होगा यह सफ़र
कभी साथ होंगे
कभी नहीं भी
रास्ते में पत्थर होंगे
पत्थरों पर सिर टिकाकर सोएँगे
होंगे नुकीले ही पत्थर ज़्यादा
पत्थरों पर ठोकर खा रोएँगे.
जो सहज है
वही यात्रा होगी जटिल कभी
जैसे स्पर्श होगा अकिंचन
बातें होंगी अनर्गल
उन सब बातों पर
जिन पर बातें होनी न थीं.
बातों के सिवा पास कुछ है भी नहीं
यह भी सच कि
दुनिया बातों से नहीं चलती
अमीर नहीं होते कला, साहित्य के गुणी.
फिर भी सफ़र में
गलती से आ ही जाता है वह पड़ाव
जब सोचते हैं
कि अब साथ ही चलेंगे
जब डर होता है
कि कभी बातें याद आएँगीं
और बातें करने वाले न होंगे
डर होता है
कभी सब जान कर भी
आँखें घूमेंगीं
ढूँढेंगीं हमसफ़र.
लोग ही चुनेंगे रंगः लाल्टू
प्रकाशकः शिल्पायन, 10295, लेन नम्बर-1, वैस्ट गोरखपार्क, शाहदरा, दिल्ली-110032
(इस संग्रह की कुछ और कविताएँ यहाँ पढ़ी जा सकती हैं)
Friday, February 12, 2010
प्रतिरोध का सिनेमा
फोटो 1- दास्तानगोई प्रस्तुत करते राणा प्रताप और उस्मान शेख
फोटो 2- गोरखपुर फ़िल्म फ़ेस्टिवल में सईद मिर्ज़ा
चार दिनों तक चलने वाला पांचवां गोरखपुर फ़िल्म फ़ेस्टिवल ४ फ़रवरी,२०१० के दिन समानांतर सिनेमा के अद्वितीय फ़िल्मकार सईद मिर्ज़ा द्वारा उदघाटन के साथ शुरु हुआ. मंच पर उनके साथ फ़िल्मकार कुंदन शाह , जसम के उपाध्यक्ष अजय कुमार और महासचिव प्रणय कृष्ण मौजूद थे. उदघाटन सत्र में ही फ़िल्मोत्सव की स्मारिका का विमोचन हुआ जिसमें दिखाई जाने वाली फ़िल्मों और उनसे जुड़े विमर्शों पर अनेक सुंदर लेख संगृहीत हैं. जन पक्षधर पत्रकार अमितसेन गुप्त के चुनिंदा लेखों के संग्रह "Colour of Gratitude is Green" का विमोचन भी सईद मिर्ज़ा ने किया. यह समारोह विख्यात मानवाधिकारवादी के. बालगोपाल और विख्यात मराठी कवि दिलीप चित्रे की स्मृति को समर्पित था. हरेक कार्यकर्ता के चेहरे पर इस बात का वाजिब गर्व झलकता था कि पांचवें साल लगातार तो यह समारोह गोरखपुर में हो ही रहा था, साथ ही इन सालों में ये 'मूविंग फ़िल्म फ़ेस्टिवल' की तर्ज़ पर लखनऊ,पटना, भिलाई, नैनीताल और तमाम छोटे कस्बों तक पहुंचा, वह भी बगैर कारपोरेट, सरकारी या फ़िर एन.जी.ओ. स्पांसरशिप के, संस्कृतिकर्मियों की और जनता की भागीदारी की बदौलत. जन संस्कृति मंच और गोरखपुर फ़िल्म सोसायटी के तत्वावधान में आयोजित होने वाला यह फ़ेस्टिवल कभी भी शुद्धत: फ़िल्मों तक सीमित नहीं रहा है. हर साल इसमें चित्रकला, काव्य-पाठ, नाटक, नृत्य, संगीत, बहस-मुबाहिसे का समावेश रहता है. इस बार भी यह महमूद फ़ारुकी की टीम द्वारा प्रस्तुत 'दास्तानगोई'( कहानी कहने की एक खास पुरानी परंपरा) से शुरु हुआ और असम के क्रांतिकारी लोक-गायक लोकनाथ गोस्वामी के गायन से ७ फ़रवरी को समाप्त हुआ. बीच में, दूसरे दिन श्री जवरीमल्ल पारेख के आलेख "आम आदमी का सिनेमा बनाम सिनेमा का आम आदमी" पर और तीसरे दिन तरूण भारती के लेक्चर-डिमांस्ट्रेशन "बहस की तलाश और डाक्यूमेंट्री संपादन की राजनीति' पर दर्शक समुदाय ने बहस मे अच्छी-खासी तादाद में शिरकत की. फ़िल्मकार सईद मिर्ज़ा, कुंदन शाह ( 'जाने भी दो यारों' जैसी प्रसिद्ध हास्य-फ़िल्म के निर्माता), देबरंजन सारंगी, आनंदस्वरूप वर्मा, अतुल पेठ,अनुपमा श्रीनिवासन, प्रमोद सिंह और तरुण भारती लगातार दर्शकों से रू-ब-रू रहे और इस अंत:क्रिया ने दर्शकों में फ़िल्म की समझ में ज़रूर इज़ाफ़ा किया. मालूम हो कि जन संस्कृति मंच द्वारा किए जाने वाले फ़िल्मोत्सवों की लगातार स्थायी मेगाथीम है 'प्रतिरोध का सिनेमा', लेकिन इस वृहत्तर थीम के अंतर्गत हर फ़िल्मोत्सव किसी विशेष थीम पर केंद्रित होता है जैसे कि इस बार का उत्सव 'समाज के हाशिए' पर ढकेले जा रहे लोगों की बढ़ती तादाद पर केंद्रित था. फ़िल्मों का चयन, सईद मिर्ज़ा का उदघाटन वक्तव्य और जसम के महासचिव का अध्यक्षीय वक्तव्य इसी थीम पर केंद्रित थे. इस बार मह्त्वपूर्ण बात यह भी थी कि फ़िल्मोत्सव में ही चार फ़िल्मों के प्रीमियर (प्रथम प्रदर्शन) हुए. ये फ़िल्में थीं 'इन कैमरा' (रंजन पालित), नेपाल की राजशाही को समाप्त करने वाली लोकतांत्रिक क्रांति पर आधारित 'बर्फ़ की लपटें' ( आनंदस्वरूप वर्मा और आशीष श्रीवास्तव), 'ग्लोबल शहर से चिट्ठे' ( सुरभि शर्मा) तथा कंधमाल में साम्प्रदयिक हिंसा और कारपोरेट पूंजी द्वारा लाए जा रहे आदिवासियों के विस्थापन के अंतर्संबंधों की पड़ताल करती "टकराव: किसकी हानि, किसका लाभ'( देबरंजन सारंगी) .
सईद मिर्ज़ा ने पहले ही दिन कहा कि हिंदी में न्यू वेव सिनेमा का अंत १९९० के दशक के भूमंडलीकरण, निजीकरण और उदारीकरण की नीतियों के ज़रिए हुआ. इन नीतियों के निर्माताओं ने देश और समाज में सेंसेक्स की उछाल से तय होने वाले विकास औए अंधाधुंध बाज़ारीकरण को लोकतंत्र का नाम दिया जबकि इसने लोकतंत्र को और कमज़ोर बनाया तथा गरीबों की तादाद में बेतहाशा वृद्धि की. यह समाज के अमानवीयकरण की प्रक्रिया थी.सारे बुनियादी मुद्दों को राजनैतिक सर्वानुमति से हाशिए पर डाल दिय गया और उनकी जगह भावनात्मक और विभाजनकारी मुद्दों की राजनीति का युग शुरु हुआ. ऎसे में आम आदमी के सिनेमा को चोट तो पहुंचनी ही थी. सिनेमा समाज से अलग नहीं होता. आज सार्थक और सोद्देश्य सिनेमा को भला कौन सा साबुन, कौन सा तेल और कौन सी कार स्पांसर करेगी? सार्थक और सोद्देश्य सिनेमा को जनता के आंदोलनों के साथ ही बढ़ना होगा, क्योंकि न तो सरकार और न ही कारपोरेट घरानों को इसकी कोई ज़रूरत है. सईद ने बातचीत के दौरान प्राकृतिक संसाधनों की कारपोरेट लूट के विरोध का दमन 'आपरेशन ग्रीनहंट' जैसे तरीकों से किए जाने की घोर भर्त्सना की. उन्होंने गोरखपुर फ़िल्म फ़ेस्टिवल को आज के सिनेमाई परिड्रुश्य में रामायण और महाभारत के बीच 'नुक्कड़'( सईद द्वारा निर्मित प्रसिद्ध टेलिसीरियल) की उपमा दी. सईद ने कहा कि वे एक 'लेफ़्टिस्ट सूफ़ी' कहलाना पसंद करेंगे. यह भी कहा कि १९९६ के बाद उन्होंने फ़िल्में इसलिए नहीं बनाईं कि वे एक अंतर्यात्रा पर हैं. ऎसे में उन्होंने कैमरा रखकर कलम उठा ली है और उपन्यास लिखा है. 'अम्मी: लेटर टू ए डिमोक्रेटिक मदर' उनका आत्मकथात्मक उपन्यास मां की यादों, सूफ़ी नीतिकथाओं और बचपन की स्मृतियों के ताने-बाने से बुना हुआ है.
प्रणय कृष्ण ने अध्यक्षीय संबोधन में कहा कि सिर्फ़ न्यू वेव सिनेमा ही नहीं , बल्कि किसान आंदोलन, ट्रेड यूनियन आंदोलन और तमाम मूल्य भी भूमंडलीकरण की मार से हाशिए पर गए हैं. नौजवानों के भीतर आदर्शवाद, मध्यवर्ग के भीतर गरीबों के प्रति करुणा, बुद्धिजीवियों के भीतर ईमान और जनता के बीच एकजुट हो लड़ने की क्षमता भी हाशिए पर गई है. फ़िर भी जगह जगह भारत के भूमंडलीकरण के दूसरे दौर में लोग बगैर किसी संगठित पार्टी या विचार के भी लड़ने उठ खड़े हो रहे हैं. कलिंगनगर, मणिपुर की मनोरमा से लेकर लालगढ़ तक संघर्षरत जन हम संस्कृतिकर्मियों को हाथ हिला-हिलाकर बुला रहे हैं. हमें उनके पास जाना है और उन्हें अपने रचनाकर्म में लाना है.
Tuesday, February 9, 2010
ठेठ जीवन के उच्छलित स्त्रोतों के समीप \शिरीष कुमार मौर्य की कविता पर पंकज चतुर्वेदी
शिरीष कुमार मौर्य ने बहुत धीरज, गम्भीरता, संयम और निष्ठा से ऐसी कविता सम्भव की है, जिसमें जीवन-द्रव्य की सान्द्रता है और आत्मतत्व की उदात्तता। यह इस बदौलत कि एक ओर उसमें इस दुनिया से गहरा और निबिड़ प्यार है, दूसरी ओर साधारण इंसान के दुखों से प्रतिबद्ध तलस्पर्शी विचारशीलता। उनके पास निरन्तर जाग्रत, एकाग्र और मुक्तिधर्मी विवेक है, जो इतिहास, भूगोल, सभ्यता और संस्कृति में प्राथमिक किस्म की दिलचस्पी से सन्तुष्ट नहीं हो जाता, बल्कि उनके अन्तरंग विश्लेषण के ज़रिए व्यापक मनुष्यता के हित में मूल्यवान और मार्मिक निष्कर्षों तक पहुँचना चाहता है। इस प्रक्रिया में वे अन्योक्ति का इस्तेमाल करते हुए बड़े सांकेतिक ढंग से मनुष्य के शान्त, निश्छल, गरिमामय, शालीन एवं विशाल हृदय होने की ज़रूरत पर ज़ोर देते हैं। जब वे कहते हैं कि पहाड़ `अपनी गरिमा में/निश्छल सोये-से/बहुत बड़े और शान्त/दिखते हैं´ या यह कि पैसिंजर गाड़ी `हर स्टेशन पर शीश नवाती/खुद रुककर/तेज़ भागती दुनिया को राह दिखाती है´ तो प्रकारान्तर से इन मूल्यों में अपनी अविचलित आस्था का इज़हार करते हैं। उनकी कविता की विशिष्ट संरचना और सार्थकता का सम्बन्ध इसी आस्था से है।
शिरीष की रचनाओं में ताज़ा, स्वस्थ, निर्मल और अकुंठित सौन्दर्य है, जो चीज़ों के निकटस्थ निरीक्षण और आत्मीय अनुचिन्तन से जन्मा है। उनमें बिम्बों के अन्तराल की काफ़ी अच्छी समझ है, मात्रा और अनुपात की अचूक और सन्तुलित दृष्टि है और एक उमड़ता हुआ भावुक आवेग, पर वह उसी समय वैज्ञानिक चेतना से अनुशासित है। जब वे पहाड़ों के निर्माण की कहानी कहते हैं, तो जानते हैं कि उन्हें ठण्डा होने में कितना पानी और वक़्त लगा होगा -`फिर गिरा पानी/एक लगातार अनथक बरसात/एक प्रागैतिहासिक धीरज के साथ/ये ठण्डे हुए´। इसके अलावा यह लिखकर कि `जब धरती अलग होने का फैसला करती है/तो खाईयां बनती हैं/और जब मिलने का/तब बनते हैं पहाड़´, शिरीष ने अलगाव की विडम्बना और मिलने के महत्व को उजागर किया है। `अनूठा और विशाल´ होने के लिए औरों से मिलना, प्रेम करना बहुत ज़रूरी है। इस प्यार में इतनी ताक़त है कि `धरती के फैसले´ को समुद्र `पृथ्वी पर दो-तिहाई होकर भी नहीं रोक पाया।´ प्रसंगवश, ब्रेख़्त की कविता के सन्दर्भ में वाल्टर बेंजामिन की टिप्पणी याद आती है कि `जो भी चाहता है कि बलवान और क्रूर की हार हो, उसे दोस्ती का कोई मौक़ा छोड़ना नहीं चाहिए।´
शिरीष के यहां ताज़गी, पवित्रता और सुन्दरता बेशक हमारा ध्यान खींचती है, पर इसका यह मतलब नहीं कि मौजूदा व्यवस्था के अभावों, विसंगतियों और रुग्णताओं की वे समुचित आलोचना नहीं करते। वे तीखे व्यंग्य के सहारे भ्रष्टाचार, अन्याय और शोषण के निभृत, परोक्ष और कुटिल तौर-तरीकों को सामने लाते, उन पर चोट करते हैं। मसलन पगडण्डियों के लिए `सरकार को कोई बजट नहीं लाना पड़ता/वे ठेकेदारों और अभियन्ताओं के/समयसिद्ध हुनर का इस्तेमाल भी नहीं करतीं।´ इसी तरह शिरीष रेल्वे के सिपाही को `अतुलित बलशाली आत्ममुग्ध´ कहते हैं, जो आम लोगों, बच्चों, स्त्रियों और मज़दूरों को ही डपटता है। ख़ास बात यह कि कवि इन आततायियों के बरअक्स आम जनता की कमज़ोरियों, विवशताओं और वेध्यताओं, उसकी तकलीफ और पिछड़ेपन के समूचे यथार्थ से बाबस्ता है, इसलिए उसकी कविता में ऐसे क्षण मार्मिक कन्ट्रास्ट पैदा होता है। जैसे टी.टी.ई. जब किसी ग़रीब मुसाफिर को पकड़ता है, तो वह बेचारा `अपने गुदड़ों में टिकट ढूंढता रह जाता है।´ सृजन की बेचैनी और प्रतिरोध की ऊर्जा के क्षरण के अर्थ में जब आदमी को चुपके से मार दिया जाता है, तो वह अपनी महज़ भौतिक उपलिब्ध्यों पर गर्व करने लगता है। इस थीम पर केन्द्रित कविता में अर्थ के दो स्तर हैं। `फूलने´ में श्लेष है। आदमीयत की मृत्यु इस हैरतअंगेज़ दौर की सबसे यक़ीनी सच्चाई है -`तुम्हारे इस अविश्वसनीय देशकाल का/सर्वाधिक विश्वसनीय सच हूँ मैं´। मौत की इसी हक़ीक़त पर सुविधाभोगी तबक़े की खुशी और इत्मीनान टिके हुए हैं।
वीरेन डंगवाल ने लिखा है दुनिया एक गांव तो बने/लेकिन सारे गांव बाहर रहें उस दुनिया के।´ शिरीष को भी इस साजिश का अन्दाज़ा है कि दुनिया करीब आती जा रही है, मगर `बहुत पास बैठे लोग भी अकसर बिना मिले रहे जाते हैं।´ निराला ने ऐसे ही हालात में कहा होगा-`भर गया है ज़हर से/संसार जैसे हार खाकर/देखते हैं लोग लोगों को/सही परिचय न पाकर।´ अलबत्ता आज यह विडम्बना दोहरी है, क्योंकि सूचना और संचार-क्रान्ति के बल पर जब सारी दूरियां मिटाने का दावा किया जा रहा है, आदमी आदमी के लिए पराया हो गया है। शिरीष की एक विशेषता यह है कि वे ठेठ जीवन के उच्छलित स्त्रोतों के समीप जाते हैं, जहां `खुरों के निशान´ और `घंटियों की लुप्त हो रही आवाज़ें´ हैं, चाहे इसके लिए उन्हें `अफ्रीका के सबाना´ और `मैक्सिको के वर्षावनों' में भटकना पड़े। दूसरे, वे देशज और तत्सम, अनगढ़ और परिस्कृत -भाषा के इन छोरों के बीच जीवन्त आवाजाही करते हैं। तीसरे, प्राय: उपेक्षित रह जानेवाली छोटी-छोटी चीज़ों, जगहों, लोगों, जानवरों, पक्षियों और प्रकृति के विभिन्न उपादानों के प्रति उनमें दुर्लभ किस्म का लगाव है। इसी सहानुभूति के स्पर्श से वस्तुएं सप्राण हो उठती हैं, चाहे वह नामालूम-सा स्टेशन हो, झिंझोड़ी जाती पटरियां या `पांच पुराने खंखड़ डिब्बों वाली पैसिंजर गाड़ी।´ इसके यात्रियों के लिए उनके मन में अथक सम्मान है, क्योंकि वह मामूली इच्छाओं वाली निष्कपट जनता है। उसके दु:ख, उत्पीड़न और वंचना की दास्तान सुनाते हुए उन्हें लगता है कि दरअसल उसे ही `जीवन की असली यात्राएं´ करनी हैं, भले वह बहुत दूर न जा पाए। यहां भी एक मार्मिक अन्तर्विरोध से कवि का सामना है। जिसका संघर्ष जितना गहरा, सच्चा और अहम है, उसका प्राप्य उतना ही कम। यह कुछ वैसी स्थिति है, जिसका आख्यान अपनी एक विलक्षण कविता में असद ज़ैदी ने किया है- `जो ग़रीब है उसे अपने गांव से आगे कुछ पता नहीं/कम ग़रीब है जो उसने देखा है पूरा ज़िला/सिर्फ अनाचारी ज़ालिमों ने देखे हैं राष्ट्र और राज्य।´
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(वागर्थ, उर्वर प्रदेश और "रचना आज- सम्पादक: लीलाधर मंडलोई" में प्रकाशित लेख)
ये सूचना भी : शिरीष को २००९ का लक्ष्मण प्रसाद मंडलोई सम्मान छिंदवाडा(मध्य प्रदेश) में आयोजित एक आत्मीय समारोह में दिया गया, जिसमें लीलाधर मंडलोई, कमला प्रसाद, विजय कुमार, विष्णु नागर, राजकुमार केसवानी, प्रतापराव कदम, राजेन्द्र शर्मा, बसंत त्रिपाठी, हनुमंत मनगाटे, मुकेश वर्मा सहित कई रचनाकार शामिल हुए. इस अवसर पर चित्रकार ध्रुव वानखेड़े द्वारा शिरीष की कविताओं पर एक पोस्टर प्रदर्शनी भी लगायी गई.
unka adress : शिरीष कुमार मौर्य
एसोसिएट प्रोफ़ेसर
हिंदी विभाग
डी.एस.बी. परिसर
नैनीताल
263002
शिरीष की रचनाओं में ताज़ा, स्वस्थ, निर्मल और अकुंठित सौन्दर्य है, जो चीज़ों के निकटस्थ निरीक्षण और आत्मीय अनुचिन्तन से जन्मा है। उनमें बिम्बों के अन्तराल की काफ़ी अच्छी समझ है, मात्रा और अनुपात की अचूक और सन्तुलित दृष्टि है और एक उमड़ता हुआ भावुक आवेग, पर वह उसी समय वैज्ञानिक चेतना से अनुशासित है। जब वे पहाड़ों के निर्माण की कहानी कहते हैं, तो जानते हैं कि उन्हें ठण्डा होने में कितना पानी और वक़्त लगा होगा -`फिर गिरा पानी/एक लगातार अनथक बरसात/एक प्रागैतिहासिक धीरज के साथ/ये ठण्डे हुए´। इसके अलावा यह लिखकर कि `जब धरती अलग होने का फैसला करती है/तो खाईयां बनती हैं/और जब मिलने का/तब बनते हैं पहाड़´, शिरीष ने अलगाव की विडम्बना और मिलने के महत्व को उजागर किया है। `अनूठा और विशाल´ होने के लिए औरों से मिलना, प्रेम करना बहुत ज़रूरी है। इस प्यार में इतनी ताक़त है कि `धरती के फैसले´ को समुद्र `पृथ्वी पर दो-तिहाई होकर भी नहीं रोक पाया।´ प्रसंगवश, ब्रेख़्त की कविता के सन्दर्भ में वाल्टर बेंजामिन की टिप्पणी याद आती है कि `जो भी चाहता है कि बलवान और क्रूर की हार हो, उसे दोस्ती का कोई मौक़ा छोड़ना नहीं चाहिए।´
शिरीष के यहां ताज़गी, पवित्रता और सुन्दरता बेशक हमारा ध्यान खींचती है, पर इसका यह मतलब नहीं कि मौजूदा व्यवस्था के अभावों, विसंगतियों और रुग्णताओं की वे समुचित आलोचना नहीं करते। वे तीखे व्यंग्य के सहारे भ्रष्टाचार, अन्याय और शोषण के निभृत, परोक्ष और कुटिल तौर-तरीकों को सामने लाते, उन पर चोट करते हैं। मसलन पगडण्डियों के लिए `सरकार को कोई बजट नहीं लाना पड़ता/वे ठेकेदारों और अभियन्ताओं के/समयसिद्ध हुनर का इस्तेमाल भी नहीं करतीं।´ इसी तरह शिरीष रेल्वे के सिपाही को `अतुलित बलशाली आत्ममुग्ध´ कहते हैं, जो आम लोगों, बच्चों, स्त्रियों और मज़दूरों को ही डपटता है। ख़ास बात यह कि कवि इन आततायियों के बरअक्स आम जनता की कमज़ोरियों, विवशताओं और वेध्यताओं, उसकी तकलीफ और पिछड़ेपन के समूचे यथार्थ से बाबस्ता है, इसलिए उसकी कविता में ऐसे क्षण मार्मिक कन्ट्रास्ट पैदा होता है। जैसे टी.टी.ई. जब किसी ग़रीब मुसाफिर को पकड़ता है, तो वह बेचारा `अपने गुदड़ों में टिकट ढूंढता रह जाता है।´ सृजन की बेचैनी और प्रतिरोध की ऊर्जा के क्षरण के अर्थ में जब आदमी को चुपके से मार दिया जाता है, तो वह अपनी महज़ भौतिक उपलिब्ध्यों पर गर्व करने लगता है। इस थीम पर केन्द्रित कविता में अर्थ के दो स्तर हैं। `फूलने´ में श्लेष है। आदमीयत की मृत्यु इस हैरतअंगेज़ दौर की सबसे यक़ीनी सच्चाई है -`तुम्हारे इस अविश्वसनीय देशकाल का/सर्वाधिक विश्वसनीय सच हूँ मैं´। मौत की इसी हक़ीक़त पर सुविधाभोगी तबक़े की खुशी और इत्मीनान टिके हुए हैं।
वीरेन डंगवाल ने लिखा है दुनिया एक गांव तो बने/लेकिन सारे गांव बाहर रहें उस दुनिया के।´ शिरीष को भी इस साजिश का अन्दाज़ा है कि दुनिया करीब आती जा रही है, मगर `बहुत पास बैठे लोग भी अकसर बिना मिले रहे जाते हैं।´ निराला ने ऐसे ही हालात में कहा होगा-`भर गया है ज़हर से/संसार जैसे हार खाकर/देखते हैं लोग लोगों को/सही परिचय न पाकर।´ अलबत्ता आज यह विडम्बना दोहरी है, क्योंकि सूचना और संचार-क्रान्ति के बल पर जब सारी दूरियां मिटाने का दावा किया जा रहा है, आदमी आदमी के लिए पराया हो गया है। शिरीष की एक विशेषता यह है कि वे ठेठ जीवन के उच्छलित स्त्रोतों के समीप जाते हैं, जहां `खुरों के निशान´ और `घंटियों की लुप्त हो रही आवाज़ें´ हैं, चाहे इसके लिए उन्हें `अफ्रीका के सबाना´ और `मैक्सिको के वर्षावनों' में भटकना पड़े। दूसरे, वे देशज और तत्सम, अनगढ़ और परिस्कृत -भाषा के इन छोरों के बीच जीवन्त आवाजाही करते हैं। तीसरे, प्राय: उपेक्षित रह जानेवाली छोटी-छोटी चीज़ों, जगहों, लोगों, जानवरों, पक्षियों और प्रकृति के विभिन्न उपादानों के प्रति उनमें दुर्लभ किस्म का लगाव है। इसी सहानुभूति के स्पर्श से वस्तुएं सप्राण हो उठती हैं, चाहे वह नामालूम-सा स्टेशन हो, झिंझोड़ी जाती पटरियां या `पांच पुराने खंखड़ डिब्बों वाली पैसिंजर गाड़ी।´ इसके यात्रियों के लिए उनके मन में अथक सम्मान है, क्योंकि वह मामूली इच्छाओं वाली निष्कपट जनता है। उसके दु:ख, उत्पीड़न और वंचना की दास्तान सुनाते हुए उन्हें लगता है कि दरअसल उसे ही `जीवन की असली यात्राएं´ करनी हैं, भले वह बहुत दूर न जा पाए। यहां भी एक मार्मिक अन्तर्विरोध से कवि का सामना है। जिसका संघर्ष जितना गहरा, सच्चा और अहम है, उसका प्राप्य उतना ही कम। यह कुछ वैसी स्थिति है, जिसका आख्यान अपनी एक विलक्षण कविता में असद ज़ैदी ने किया है- `जो ग़रीब है उसे अपने गांव से आगे कुछ पता नहीं/कम ग़रीब है जो उसने देखा है पूरा ज़िला/सिर्फ अनाचारी ज़ालिमों ने देखे हैं राष्ट्र और राज्य।´
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(वागर्थ, उर्वर प्रदेश और "रचना आज- सम्पादक: लीलाधर मंडलोई" में प्रकाशित लेख)
ये सूचना भी : शिरीष को २००९ का लक्ष्मण प्रसाद मंडलोई सम्मान छिंदवाडा(मध्य प्रदेश) में आयोजित एक आत्मीय समारोह में दिया गया, जिसमें लीलाधर मंडलोई, कमला प्रसाद, विजय कुमार, विष्णु नागर, राजकुमार केसवानी, प्रतापराव कदम, राजेन्द्र शर्मा, बसंत त्रिपाठी, हनुमंत मनगाटे, मुकेश वर्मा सहित कई रचनाकार शामिल हुए. इस अवसर पर चित्रकार ध्रुव वानखेड़े द्वारा शिरीष की कविताओं पर एक पोस्टर प्रदर्शनी भी लगायी गई.
unka adress : शिरीष कुमार मौर्य
एसोसिएट प्रोफ़ेसर
हिंदी विभाग
डी.एस.बी. परिसर
नैनीताल
263002
Sunday, February 7, 2010
अमीर ख़ुसरो की सोहबत
ऐ कि ज़बुत - ए - ताना ब हिंदू बरी
हम ज़वी आमोज़ परस्तिश गरी
Oh you, the one taunting Hindus on their idol worship; first learn from them how to worship
हिंदुओं को बुतपरस्ती का ताना देने वाले! पहले इबादत करने का सलीक़ा उनसे सीख ले।
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दिलत बर गुर्बा ई गर मेहरबानस्त
निशान-ए-सोहबत-ए-ईमां हमानस्त
दिलत रा गुर्बा बुरद, व गर ब नुरदस्त
बरो पेश-ए-संग अन्दाज़श कि मुर्दस्त
If your heart flutters even for a cat
it`s a sign of faith
But if your heart cannot be affected even by a cat,
Then assume it is dead, it`s a stone
अगर तुम्हारा दिल एक बिल्ली पर मेहरबान है तो ये ईमान की निशानी है। लेकिन अगर तुम्हार दिल एक बिल्ली भी नहीं ले सकती तो समझ लो वो मुर्दा हो चुका है, उसे पत्थर के साथ रख दो।
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बन्दा-ए-हम आखिर गोहर-ए-आदम अस्त
गर्चे कि दर सिल्क-ए-गुलामी ज़म अस्त
कार ब अन्दाज़ा-ए-बाजुश देह
बार ब मिक़दार-ए-तराजुश नेह
Although a slave, he is after all a child of man
Give him as much work as his arms are capable of doing;
Put as much load on a scale as it can hold
गुलाम सही, मगर है तो वो भी आदमी ही की औलाद।
उसकी ताक़त के हिसाब से काम दो। तराजु पर उतना ही बोझ रखो
जितना कि वह उठा सके।
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कसे रन्ज दर हासिले चूँ बुरद
कि अज़ रन्ज-ए-उ दीगरे बर खुरद
यके खुरद दर ख्वाब नान व कवाब
यके रा न्यामद खुद अज़ फाक़ा ख्वाब
Does one work hard for others to eat one`s fruit of labour?
While some consume the naans and kebabs even in their dreams,
the hardworking labourer has lost his sleep due to starvation
क्या इसलिए कोई मेहनत करता है कि उसकी मेहनत का फल दूसरे लोग खा जाएं?
एक तरफ तो ख्वाब में भी नान और कबाब उड़ाए जाते हैं और दूसरी तरफ मेहनत
करने वाले मज़दूर की नींद भूख से उड़ गई है।
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Wednesday, February 3, 2010
किसी को क्या, मुल्क की आज़ादी के लिए लड़े थे शाहरुख़ के पिता
`द हिन्दू` में एक छोटा सा ख़त छपा है दिल्ली के त्रिलोचन सिंह जी का। स्वतंत्रता सेनानी हैं। उन्होंने शाहरुख़ खान के घर पर शिव सैनिकों के प्रदर्शन और खासतौर पर शाहरुख़ को पाकिस्तान जाने की नसीहत पर मुख़्तसर सी बात कही है जो किसी भी गैरतमंद हिन्दुस्तानी को शर्मिंदा करने के लिए काफी है। उन्होंने कहा है कि जिन शिव सैनिकों का देश की आज़ादी के लिए लड़ने का कोई इतिहास नहीं है, उन्हें मालूम होना चाहिए कि शाहरुख़ के पिता ताज मोहम्मद खान स्वतंत्रता सेनानी थे। भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान वे और त्रिलोचन सिंह एक साथ पेशावर जेल में थे। देश का बंटवारा हुआ तो उन्होंने पाकिस्तान छोड़कर हिन्दुस्तान आना मुनासिब समझा। उनकी शादी जनरल शाहनवाज ने कराई थी जो आज़ाद हिंद फ़ौज के सिपहसालार थे।
पुनश्च: शुक्र है, ताज मोहम्मद साहब अब नहीं हैं, वर्ना उन पर जाने क्या गुजरती।
Monday, February 1, 2010
आरएसएस और शिव सेना यानी दो आदमखोर
आरएसएस और शिव सेना `आमने-सामने` हैं। शिवसेना और संघ दोनों आदमखोर हैं, दोनों सदियों पुराने दोस्त हैं और एक-दूसरे के दांव-पेंच या कहें कि नूरा कुश्ती लड़ना बखूबी जानते हैं। देखा जाए तो शिवसेना जिस महाराष्ट्र की उपज है, आरएसएस भी वहीं की पैदाइश है। आरएसएस का राष्ट्रविरोधी `राष्ट्रवाद` शिवसेना का भी हथियार है लेकिन आरएसएस इसका राष्ट्रव्यापी कामयाब इस्तेमाल कर चुकी है। शिवसेना इसका इस्तेमाल मुस्लिमों के प्रति घृणा फैलाने के लिए जमकर करती है। शाहरुख़ खान पर हमला इसका ताजा उदाहरण है। पर शिवसेना जानती है कि इस क्षेत्र में संघ का फैलाव व्यापक है और महाराष्ट्र में भीड़ को कब्जाए रखने के लिए महाराष्ट्र में रह रहे गैर मराठी भारतीयों पर हमला ही सबसे कारगर हथियार है (और यहाँ भी चाचा-भतीजा कम्पीटीशन है)।
यह आरएसएस भी जानता ही है कि बीजेपी के लिए अपने परंपरागत इलाके को लुभाने के लिए उत्तर भारतीयों (संघ का भारतीयता का जो भी परमिट हो) की शिवसेना से रक्षा का शिगूफ़ा जरूरी है। एक तो यह उत्तरभारत के अलावा दूसरे गैर मराठियों को भी रिझा सकता है और उससे भी पहले यह कि इससे शिवसेना से बीजेपी के गठबंधन पर उत्तर भारतीयों के गुस्से को कंट्रोल किया जा सकता है। बीजेपी चाहे तो इस मसले पर चुप रह सकती है क्योंकि आरएसएस ऐसे ही मौकों के लिए तो है। अब महाराष्ट्र में जहाँ शिवसेना से पिटा गैर मराठी मजबूरी में कांग्रेस या एनसीपी (जो इस मसले पर आखिरकार शिवसेना की ही चाल चलती हैं) के साथ जाता है, वो बीजेपी की झोली भर सकता है। आखिर यह नूरा कुश्ती दोनों आदमखोरों की लहू की प्यास का ही इंतजाम करेगी।
आरएसएस गुजरात और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्रियों को उनके उत्तर भारतीय विरोधियों के प्रति उगले जाने वाले जहर को लेकर दण्डित क्यों नहीं करता, ऐसे सवाल का जवाब सब जानते ही हैं। और कांग्रेस की बात - तो वह आरएसएस की नीतियों का ही अनुसरण करती रहती है।
पुनश्च : मुम्बई में उत्तर भारतीय लोगों (खासकर मध्य वर्ग व उच्च वर्ग के नागरिकों) पर हमले के दौरान यूपी और बिहार के शहरियों के सेंटिमेंट देखने लायक होते हैं। अपने गहरे नस्लवाद और जातिवाद को पोसते हुए वे ठाकरे को खूब गलियां निकालते हैं (अपने ब्लॉग में, अखबारों में और आपस में बातचीत में)। लेकिन ये लोग आईपीएल के बेशर्म रवैये पर ठाकरे से भी आगे निकल जाना चाहते हैं।
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