एक लिखने वाले को असल इनाम ज़्यादातर अपने लिखने के अंदर ही उसे मिल जाया करता है। एक सच्ची रचनात्मक ख़ुशी, चाहे वह किसी तकलीफ में लिपटी क्यों न हो, एक बड़ी नेमत है- ख़ासकर हमारे इन वक़्तों में, जबकि वह दुर्लभ हो चली है और कम ही को और कभी-कभी ही नसीब हो पाती है। किसी छदमपूर्ति से शायद ही इसकी खाली जगह भरी जा सके। एक ऐसे समय में और इस तरह ढलते समाज में जहां मनुष्य हर पल अपनी इन्सानी गरिमा को खोता हुआ, अपमानित और अवमूल्यित होता हुआ दिखाई देता है, अपनी अच्छाई और सच्चाई के लिए तिरस्कृत और दंडित होता हुआ दिखाई देता है, एक लेखक को आखिर किस तरह और कितना सम्मानित किया जा सकता है?
एक लेखक अगर अपना देखा हुआ या खोजा हुआ औरों को दिखा सके, ख़ासकर, उन लोगों को जिन्हें वह बताना या दिखाना चाहता है तो यह भी एक बड़ी बात है, लेकिन यह हमेशा मुमकिन हो ही जाएगा, कहना कठिन है। इतिहास में यह भी देखा गया है कि कई बार किसी वक़्त कहे गए शब्द ठीक-ठीक अपनी अंतर्ध्वनियों और अपने मर्म के साथ किसी और वक़्त में सुनाई देते हैं। कहा जाता है, अपने जीवनकाल में जब चेखव मॉस्को के एक थियेटर में अपने ही लिखे एक नाटक का प्रदर्शन देख रहे थे तो नाटक के किसी विरल दुखान्तिक क्षण में (शायद जब उन्हें लगता था कि दर्शक सांस रोक कर इसे देखेंगे), दर्शकदीर्घा से फूहड़ हंसी का फव्वारा उठा और चेखव मर्माहत होकर थियेटर के बाहर निकल आए। यथास्थिति का पोषक कलाकार लोगों के सोचने, देखने और महसूस करने की बनी-बनाई सरणियों का सहारा लेकर आसानी से इस कठिनाई से बच जाता है, लेकिन जिस रचनाकार की यथास्थिति के साथ कुछ बुनियादी अनबन है उसका रास्ता भी कुछ टेढ़ा है और उसकी कीमता चुकाना भी वह जानता है। मिर्ज़ा ग़ालिब, प्रेमचंद और निराला सरीखे लेखकों को इसकी क़ीमत अदा करनी पड़ी। आज भी हिंदी के बहुत से आचार्यों को मुक्तिबोध और रघुवीर सहाय को कवि मानने में खासी दुश्वारी होती है।
पिछले बीस वर्षों में अन्ध-उपभोग की लम्पट संस्कृति ने ऊपर से नीचे तक, गांव-कस्बे और दूर-दराज़ के दुर्गम इलाकों तक अपने हाथ लम्बे कर लिए हैं और हमारी सामाजिक-संस्कृति की खाली या पहले से भरी हुई तमाम जगहों पर कब्ज़ा जमाने की मुहिम चला रखी है। कला-साहित्य और नवजागरण के मूल्यों की श्रेष्ठ परम्पराएं जिन इलाक़ों से कोसों दूर रहीं, उन तक इस लम्पट संस्कृति ने अपनी पहुंच बनाकर पहले से ही एक जाल सा बिछा लिया है। स्थानीय पहलकदमियां और संस्कृति-कर्म के परम्परागत रूप आज निरस्त होकर इसी के फ्रेमवर्क में ढल रहे हैं।
अभी सौ-सवा-सौ साल पहले तक कला-साहित्य की दुनिया दरबारदारी से अभिन्न थी। नवजागरण काल में ही कला दरबारों से बाहर निकली जब उसने अभिव्यक्ति के मृत सांचों और जड़ अभ्यासों को छोड़कर गांव-कस्बे के मामूली लोगों की चारों ओर फैली हुई दुनिया की ओर रुख़ किया। नवजागरण ने साहित्य और कला को नया क्षेत्र दिया और व्यापक सामाजिक जीवन और सृष्टि की विपुलता के साथ उसका रिश्ता कायम किया। नवजागरण काल में ही साहित्य का तेज़ी से जनतांत्रिकीकरण हुआ लेकिन यह काम अभी बुरी तरह अधूरा है। जिन इलाकों में नवजागरण की धारा अपेक्षाकृत कमज़ोर रही व समाज-सुधार के आंदोलन को कट्टरपंथ और रूढ़िवाद ने दबा लिया, वहां साहित्य की स्थिति भी ज़्यादा चिंताजनक है। यही इलाके हैं जहां शिशु मृत्युदर, कुपोषण और बेगारी का भयावह चित्र दिखाई देता है और जहां स्त्रियों पर अपराध, घरेलू हिंसा, जातीय उत्पीड़न, साम्प्रदायिक हिंसा और जहालत सबसे उग्र रूप में दिखाई देती है। विचारों की संस्कृति, पठनपाठन और संवाद की स्थिति यहां जड़ें नहीं डाल सकी। सामाजिक जीवन में उदार जनतांत्रिक मूल्यों की साख यहां बेहद कम है और पशुबल या धींगामस्ती से एकत्र की गई अनैतिक ताकत का डंका बजता है। कहना चाहिए फ़ासीवाद के विषाणु यहां की तलछट में बैठे हुए हैं। कोई ताज्जुब नहीं कि अपने श्रेष्ठ साहित्य से यहां की आबादियों का अपरिचय और दूरी दक्षिण भारत, बंगाल या महाराष्ट्र से कई गुना ज्यादा है।
हिंदी लेखक का काम और उसकी किस्मत सबसे पहले इसी इलाके से जुड़ी है। लेखक अगर कोरा लेखक ही बना रहता है और एक सांस्कृतिक कार्यकर्ता की तरह इस कठिन समय में अपने पक्ष का निर्माण नहीं करता, अपने समय के विमर्शों में हिस्सा नहीं लेता और लगातार इस बात की कठोर जांच नहीं करता कि उसका पक्ष क्या बन रहा है, तो बहुत मुमकिन है कि वह उसी सांस्कृतिक तंत्र का दांत और पेंच बन जाए, जिसका कि डंका बज रहा है। बेशक जाहिल आत्मप्रेम और किसी झूठ के नशे में लेखक मज़े से रह सकता है और क़ामयाब भी हो सकता है, लेकिन अपनी किसी सार्थक भूमिका का निर्वाह नहीं कर सकता।
अंत में मेरा कर्तव्य है कि मैं हरियाणा साहित्य अकादमी का शुक्रिया अदा करूं जिसने मुझे अपनी बात रखने का मौका दिया। अब यह तो अकादमी वाले जानें कि उन्होंने इस भारी भरकम सम्मान के लिए मेरे जैसे अनाड़ी शख़्स का चुनाव क्यों किया, जिसे ऐसे उपक्रमों से गुजरने का कोई अभ्यास नहीं है और जो बचा रह सके तो अपनी खैर समझता है। मैं कविताएं ज़रूर लिखता हूं लेकिन काफ़ी हद तक यह एक मजबूरी ही है। मेरे जैसे लोग अक्सर अपने काम को लेकर आत्मसंशय से घिरे रहते हैं। खैर... आप दोस्तों के प्यार की अभिव्यक्ति का चिह्न मानकर और सोच-समझकर मैंने आखिर इस कठिनाई से गुज़र जाना ही मुनासिब समझा।
मैं आपके द्वारा दिये जा रहे इस सम्मान को संघर्षशीष मामूली लोगों की अब तक न पहचानी गई रचनाशीलता को याद करते हुए अत्यंत विनम्रतापूर्वक ग्रहण करता हूं और चाहता हूं कि इस सम्मान से जुड़ी धरनाशि को हरियाणा ज्ञान-विज्ञान समिति स्वीकार करे, जिससे उसके नेतृत्व में नाटक और अन्य हस्तक्षेपकारी वैकल्पिक सांस्कृतिक रूपों के विकास की जो मुहिम हरियाणा के गांव-देहात तक चलाई जा रही है, उसमें इस पैसे का सदुपयोग हो सके।
मैं आदरणीय डॉ. ओमप्रकाश ग्रेवाल, श्री रामनाथ चसवाल (आबिद आलमी) और श्री बलबीर मलिक को याद करता हूं जो अब नहीं हैं जिन्होंने हरियाणा के सामाजिक-सांस्कृतिक परिदृश्य को बेहतर बनाने में अमूल्य योगदान किया है और जिनके गहरे संग-साथ ने हरियाणा में पिछले तीस वर्षों के प्रवास को बेहद अर्थपूर्ण बना दिया।
अन्त में मैं पुन आपका धन्यवाद करता हूं।
हरियाणा साहित्य अकादमी ने करीब दो बरस पहले मनमोहन को सूर सम्मान (प्रशस्ति पत्र और एक लाख की रुपये की राशि) प्रदान किया था तो यह वक्तव्य अकादमी की स्मारिका में छपा था। शीर्षक मैंने अपनी समझ से लिख दिया है।
(मनमोहन को कुछ ज्यादा पढने के लिए पोस्ट के नीचे labels के आगे मनमोहन पर क्लिक कीजिये)
7 comments:
मनमोहन को पढ़ना हमेशा अच्छा लगता है, और अच्छा लगेगा जब मनमोहन को सुनने का मौका मिले।
मनमोहन जी का यह लेख समकालीन लेखन को समझने में एक नई दिशा देता है. हम जैसे नये पाठकों के लिए यह दिशा बहुत काम की है.
सुंदर वक्तव्य है। मुझे पहला पैरा तो बहुत ज्यादा पसंद आया। सच कहा कि "एक लिखने वाले को असल इनाम ज़्यादातर अपने लिखने के अंदर ही उसे मिल जाया करता है।"
एक लेखक अगर अपना देखा हुआ या खोजा हुआ औरों को दिखा सके, ख़ासकर, उन लोगों को जिन्हें वह बताना या दिखाना चाहता है तो यह भी एक बड़ी बात है, लेकिन यह हमेशा मुमकिन हो ही जाएगा कहना कठिन है।
एकदम सही!
lekhak bar-bar sochen : `एक लेखक को आखिर किस तरह और कितना सम्मानित किया जा सकता है।`
बिलकुल वह भाषा, स्टैण्ड और तेवर जो उनके जनप्रतिबद्ध होने की गवाही देता है।
और दीपेन्द्र की सलाह बिल्कुल वाज़िब है!
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