Friday, October 29, 2010

यह सेकुलर पार्टियों के स्टैंड लेने का वक़्त है- जस्टिस राजिंदर सच्चर


राम जन्मभूमि विवाद महज एक धार्मिक मसला नहीं है मगर पिछले दो दशकों से यह भारत के राजनीतिक मानसपटल पर काबिज है. इस फैसले को आप किस तरह देखते हैं?

इस फैसले का सार दो शब्दों में व्यक्त किया जा सकता है: अपराध कथा. 1992 में एक अपराध हुआ था. बारी मस्जिद गिराई गई थी. मगर फ़र्ज़ करिए कि अपराध न हुआ होता और मामला अदालत में चला जाता. क्या आपको लगता है कि फिर किसी भी सूरत में अदालत के लिए भूमि के बँटवारे का फैसला देना संभव होता? साफ़ साफ़ कहें तो संगठित हिंदुत्व के मुद्दई जिस आधार पर ज़मीन मांगने पहुंचे थे, तब क्षतिपूर्ति की बिना पर उन्हें बाहर का रास्ता दिखा देना चाहिए था. देखिये बाबरी मस्जिद वहाँ सोलहवीं सदी से थी. और उन्होंने मुक़दमा (ऐतिहासिक कालखंडों के हिसाब से) अभी अभी दाखिल किया.परिसीमन कानून कहता है कि मुकदमा विवाद की तारीख से लेकर बारह वर्षों तक दायर किया जा सकता है.
अगर बाबरी मस्जिद बनाने के लिए मंदिर तोड़ा गया था तब भी, कानूनी तौर पर, संघ परिवार का कोई हक नहीं बनता क्योंकि मस्जिद परिसीमन की अवधि से पहले मौजूद थी.
मैं 2003 से लिखता रहा हूँ कि इस मुकदमे के लिए एक नज़ीर मौजूद है. (अपने एक शोध-पात्र से उद्धृत करते हैं), "1940 में प्रिवी कौंसिल ने फैसला किया लाहौर में शहीद गंज नाम की मस्जिद थी.उस मुक़दमे में, वहां 1722 से सचमुच मस्जिद मौजूद थी. मगर 1762 के आते आते, वह इमारत महाराजा रणजीत सिंह के सिख शासन के अधीन हो गई और गुरूद्वारे के तौर पर इस्तेमाल की जाने लगी. 1935 में जाकर मुकदमा दायर किया गया कि जिसमें वह इमारत जो एक मस्जिद थी उसे मुसलमानों को लौटा दिया जाए. प्रिवी कौंसिल ने, यह मानते हुए कि 'उनकी बादशाहत धार्मिक भावना के प्रति हर वह संवेदना रखती है जो किसी उपासना स्थल को पवित्रता और अनुल्लंघनीयता प्रदान करती है, वह परिसीमन कानून के अंतर्गत यह दावा नहीं स्वीकार कर सकती कि ऐसी इमारत का इसके प्रतिकूल रूप में कब्ज़ा नहीं रखा जा सकता' यह फैसला दिया कि 'वक्फ और उसके अंतर्गत आने वाले सभी हितों के विपरीत विवादित संपत्ति पर सिखों का बारह सालों से अधिक समय से कब्ज़ा होने से, परिसीमन कानून के अनुसार वक्फ के प्रयोजन से मुतवली का अधिकार समाप्त होता है'".
उस समय अदालत ने माना था कि वह स्थल बेशक एक गुरुद्वारा था. वह विध्वंस का सवाल नहीं था. बाबरी मस्जिद उस से कहीं अधिक राजनीतिक और संवेदनशील स्थल है जैसा कि उसे बना दिया गया.
अगर मान भी लें कि वहां चार सौ सालों पहले मस्जिद की इमारत की जगह मंदिर था, तब भी तर्क के हिसाब से विश्व हिन्दू परिषद और अन्यों के कानूनी मुक़दमे को हारना चाहिए. पर इसके विपरीत अदालत ने सुन्नी वक्फ बोर्ड की याचिका खारिज कर दी जो परिसीमन कानून के अंतर्गत वैध थी.
फिर एक दूसरा पहलू है. ऐसा कोई स्पष्ट शोध नहीं हुआ है कि मस्जिद के नीचे किसी मंदिर का अस्तित्व था. कई लोगों ने बताया है कि वहाँ किसी मंदिर के अवशेष हो सकते हैं. देश की राज्यव्यवस्था का दायरा पांच हज़ार वर्षों का है. हिन्दू मंदिरों और मस्जिदों को बनाने के लिए कई बौद्ध मंदिरों को तोड़ा गया था. हिन्दू राजाओं द्वारा कुछ मस्जिदें भी तोड़ी गई थीं. किसी धार्मिक निमित्त से नहीं बल्कि उस समय की राजनीतिक विशेषताओं के चलते ऐसा किया गया.क्या इसका मतलब यह है विध्वंस और वापिस मांग कर उन सबका शुद्धीकरण किया जाएगा?
बाबरी मस्जिद के मामले में कई इतिहासकारों का परस्पर विरोधी मत है की वहाँ कभी कोई मंदिर नहीं था. किसी विवाद का फैसला अदालत इस हिन्दू आस्था के आधार पर कैसे कर सकती है कि वह राम का जन्मस्थान है? अदालत में आस्था के लिए कोई जगह नहीं है.
फिर एक तीसरा पहलू भी है. मुसलमान मस्जिद बनाते हैं या नहीं यह एकदम अलग प्रश्न है. वह मुसलमानों का चुनाव है. पर चूंकि मस्जिद तोड़ी गई थी, ज़मीन मुसलमानों को लौटाई जानी चाहिए थी. कई नौजवान निराश हैं. कई मुसलमानों ने कहा कि वे उस स्थान पर एक स्कूल बनाते या सभी समुदायों के लिए कोई अस्पताल बना देते पर ज़मीन का बंटवारा नहीं किया जाना चाहिए था. ज़मीन मुसलमानों के पास वापिस नहीं जानी चाहिए यह तर्क समझ से परे है. कहा जाता है कि कुरान में तक यह कहा गया है कि राम और कृष्ण पैगम्बर थे और मुहम्मद साहब आखिरी पैगम्बर. यह कई मुस्लिम विद्वानों का निष्कर्ष है.
यह फैसला बेतुका है. चलिए एएसआई की विवादास्पद रिपोर्ट को मान लेते हैं कि वहाँ मंदिर था. मुसलमान भी उसे मान लेते. वे वहाँ मस्जिद न बनाने का निर्णय ले सकते थे मगर ज़मीन उन्हें दी जानी चाहिए थी. वे वहाँ कुछ भी बनवाते. यह उनका मानवीय और सामुदायिक अधिकार है. अगर मंदिर तोड़ा गया था तब भी एक पांच सौ साल पुरानी इबादतगाह से मुसलमानों को हटाने में भला क्या तुक है? अदालत ऐतिहासिक घटनाओं का आकलन करने में अदालत असमर्थ है.


न्यायाधीशों ने व्यापक तौर पर आस्था को उद्धृत किया है. आपकी टिप्पणी.

यही तो मैं कह रहा था. उनका निष्कर्ष यह है कि हिन्दू ऐसा मानते हैं कि विवादित स्थल राम का जन्मस्थान था. और इस जतन में उन्होंने दक्षिणपंथी इतिहास को वैध साबित कर दिया जो ऐतिहासिक पौलेमिक्स के बारे में अत्यंत विवादग्रस्त रहा है.
धार्मिक आस्था का लिहाज करें तब भी इतिहास को दुरुस्त करने के लिए आप कितना पीछे जा सकते हैं? हमारे जैसे सेकुलर देश में इसकी बिलकुल इजाज़त नहीं दी जा सकती. मैं कठोर शब्द इस्तेमाल नहीं करना चाहता पर यह सियासी बेईमानी है. हमारी सियासी पार्टियों ने स्टैंड लेने से इनकार कर दिया. अगर सरकार ने स्टैंड लिया होता तो (मस्जिद का) विध्वंस होता ही नहीं. अब हरेक पार्टी कह रही है कि अदालत फैसला करे. यह सियासी मुद्दा है. सियासी पार्टियाँ कहती हैं कि शासन के सभी महत्वपूर्ण क्षेत्रों में अदालत दखलअंदाज़ी न करे. पर अब हर पार्टी के लिए यह कह देने में सुभीता है कि अदालत फैसला कर सकती है. सियासी पार्टियों को स्टैंड लेना होगा. आखिरकार यह सेकुलर भारत है. अदालत मुक़दमे की सुनवाई करेगी, और निष्कर्ष देगी. पर इस मामले में न तो क़ानूनी नज़ीरों को और न ही सामान्य विधि (common law) पर ध्यान दिया गया है. इन्साफ करने की बजाय न्यायाधीशों ने निगहबानों जैसा बर्ताव किया है.

संघ परिवार ने इशारा किया है कि वह राम जन्मभूमि आन्दोलन को पुनरुज्जीवित करेगा. इस से धार्मिक समुदायों का ध्रुवीकरण हो सकता है.क्या इस निर्णय ने न्यायिक तटस्थता और वस्तुनिष्ठ तार्किकता के सिद्धांत को चोट पहुँचाई है?

बिलाशक यह फैसला बहुसंख्यावादी (majoritarian) दृष्टिकोण की ओर झुका हुआ और राम जन्मभूमि के पक्ष में है. संघ परिवार इसमें अपनी जीत महसूस कर रहा है. मगर समूची न्यायपालिका को इस तरह बुरा-भला कहना ठीक न होगा. इससे न्यायपालिका की प्रतिष्ठा पर आंच तो आई है. सच्चाई यह है कि रामलला की मूर्तियाँ वहां 1949 में रखी गई थीं. यह चोरी का मामला था. मुसलमान वहां लम्बे समय से इबादत करते रहे थे. वह एक मस्जिद थी. जब एक हिन्दू मूर्ति स्थापित की गई तो मुसलमानों के लिए यह स्वाभाविक था कि वे वहां इबादत न करें क्योंकि मूर्तिपूजा उनके मज़हब के खिलाफ है. इसलिए उन्होंने बाबरी मस्जिद में जाना छोड़ दिया. इसका यह मतलब नहीं कि वहां उनका अधिकार नहीं रहा. 1949 में अदालत ने वहां किसी भी प्रकार के पूजापाठ पर रोक लगाई थी. मगर अब उसने फैसला दिया है कि 1528 में एक मंदिर तोड़ा गया था और इस तरह एएसआई की विवादास्पद रिपोर्ट को वैध ठहराया है. अगर मंदिर तोड़ा गया था तब भी यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि मस्जिद अवैध थी.

यह भूस्वामित्व विवाद का एक दीवानी मामला था. मगर मुद्दा राजनीतिक तौर पर इतना संवेदनशील है कि यह फैसला अप्रत्यक्ष रूप से बाबरी मस्जिद विध्वंस को, जो एक आपराधिक कृत्य था, उचित ठहराता है. इस बारे में आपका क्या कहना है?

हाँ, इस फैसले ने कई चीज़ों को नुकसान पहुँचाया है और भारत के सेकुलर नीतिशास्त्र को चोट पहुँचाई है. यह तो ऐसा हुआ कि कहा जाए: मस्जिद तोड़ो और हिन्दुओं को दे दो. असलियत में ज़मीन का दो-तिहाई हिस्सा हिन्दुओं को ही मिल रहा है. न्यायालय में किसी निर्णय पर पहुँचने का आधार आस्था नहीं हो सकती.
मीडिया लोगों से 'मूव ऑन' करने को कह रहा है. किधर 'मूव' करें? किसकी ओर 'मूव' करें? किसी अपराध को भुलाया नहीं जा सकता. यह न्यायालय की ज़िम्मेदारी है कि अपराध करने के बाद दोषी बच न जाए. मुसलमानों का संपत्ति के प्रति अधिकार छीना जा रहा है. कॉमन लॉ के अनुसार अगर पुत्र पिता की हत्या करता है तो वह पिता की संपत्ति का अधिकारी नहीं रहता. मगर यहाँ जिन गुंडों ने मस्जिद गिराई उन्हें वह मिल गया जो वे चाहते थे.

सच्चर कमिटी रिपोर्ट के लेखक के तौर पर आपने मुसलमानों की गरीब हालत को दर्ज किया है. इस तरह के फैसले से अल्पसंख्यक समुदाय को क्या सन्देश जाएगा?

यह बेशक एक बहुत खतरनाक सन्देश होगा. यह सेकुलर पार्टियों के स्टैंड लेने का वक़्त है. 1946 में बिहार जल रहा था. हिन्दू-मुस्लिम दंगे भड़के हुए थे. पं. नेहरू ने एक सार्वजनिक पत्र लिखकर कहा था कि अगर दंगे नहीं रुके तो वे दिल्ली के दंगाइयों पर बम बरसाएंगे. बिहार मुस्लिम लीग का संसदीय क्षेत्र था और लीग दंगा भड़का रही थी. मगर राजनीतिक पार्टियों की वृहत्तर विज़न ने बहुत ज्यादा गड़बड़ी न होने दी. राज्य को स्टैंड लेना पड़ा और संविधान द्वारा प्रद्दत सेकुलर एथिक्स की पुनःपुष्टि करनी पड़ी. मगर मुसलमानों के संगठित मत की दुरुस्त एप्रोच देखकर अच्छा लगा. पर जैसा कि मीडिया कह रहा है उस तरह उनसे सब कुछ भुलाने को नहीं कहा जा सकता. यह भारत की कार्यप्रणाली और राज्यव्यवस्था में एक समुदाय के भरोसे का मामला है. यह अच्छी बात है कि उनकी प्रतिक्रिया बेहद संयत रही है. मुसलमानों से ही 'मूव ऑन' करने को क्यों कहा जा रहा है? यही सवाल संघ परिवार के समक्ष भी रखा जा सकता है. वे क्यों नहीं 'मूव ऑन' करते? इस फैसले से वे विजयी तो महसूस कर रहे हैं पर संतुष्ट नहीं. वहाँ की समूची ज़मीन पर वे राम मंदिर बनाना चाहते हैं. अगर यह हिन्दू पवित्रता का मामला है तो क्या ये मुस्लिम पवित्रता का मामला भी नहीं? मेरे लिए तो यह फैसला उग्र सांप्रदायिक भावनाओं के समक्ष समर्पण है. अयोध्या की इस गड़बड़ स्थिति के लिए सिर्फ एक ही चीज़ ज़िम्मेदार है- राजनीतिक इच्छाशक्ति का कमज़ोर होना.

(दि हिन्दू और फ्रंटलाइन से साभार)
हिंदी में अनुवाद- भारत भूषण तिवारी

Tuesday, October 26, 2010

बाबरी मस्जिद स्थल के बारे में लखनऊ बेन्च के फ़ैसले पर जलेस, प्रलेस और जसम का साझा बयान


रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद पर इलाहाबाद हाइकोर्ट की लखनऊ बेंच का फ़ैसला इस देश के हर इंसाफ़पसंद नागरिक के लिए दुख और चिंता का सबब है। इस फ़ैसले में न सिर्फ तथ्यों, सबूतों और समुचित न्यायिक प्रक्रिया की उपेक्षा हुई है, बल्कि धार्मिक आस्था को अदालती मान्यता देते हुए एक ऐसी नज़ीर पेश की गयी है जो भविष्य के लिए भी बेहद ख़तरनाक है। इस बात का कोई साक्ष्य न होते हुए भी, कि विवादित स्थल को हिंदू आबादी बहुत पहले से भगवान श्रीराम की जन्मभूमि मानती आयी है, फ़ैसले में हिंदुओं की आस्था को एक प्रमुख आधार बनाया गया है। अगर इस आस्था की प्राचीनता के बेबुनियाद दावों को हम स्वीकार कर भी लें, तो इस सवाल से तो नहीं बचा जा सकता कि क्या हमारी न्यायिक प्रक्रिया ऐसी आस्थाओं से संचालित होगी या संवैधानिक उसूलों से? तब फिर उस हिंदू आस्था के साथ क्या सलूक करेंगे जिसका आदिस्रोत ऋग्वेद का ‘पुरुषसूक्त’ है और जिसके अनुसार ऊंच-नीच के संबंध में बंधे अलग-अलग वर्ण ब्रह्मा के अलग-अलग अंगों से निकले हैं और इसीलिए उनकी पारम्परिक ग़ैरबराबरी जायज़ है? अदालत इस मामले में भारतीय संविधान से निर्देशित होगी या आस्थाओं से? तब स्त्री के अधिकारों-कर्तव्यों से संबंधित परम्परागत मान्यताओं के साथ न्यायपालिका क्या सलूक करेगी? हमारी अदालतें सती प्रथा को हिंदू आस्था के साथ जोड़ कर देखेंगी या संविधानप्रदत्त अधिकारों की रोशनी में उस पर फ़ैसला देंगी? कहने की ज़रूरत नहीं कि आस्था को विवादित स्थल संबंधी अपने फ़ैसले का निर्णायक आधार बना कर इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ ने ‘मनुस्मृति’ और ‘पुरुषसूक्त’ समेत हिंदू आस्था के सभी स्रोतों को एक तरह की वैधता प्रदान की है, जिनके खि़लाफ़ संघर्ष आधुनिक लोकतांत्रिक चेतना के निर्माण का एक अनिवार्य अंग रहा है और हमारे देश का संविधान उसी आधुनिक लोकतांत्रिक चेतना की मूर्त अभिव्यक्ति है। इसलिए आस्था को ज़मीन की मिल्कियत तय करने का एक आधार बनाना संवैधानिक उसूलों के एकदम खि़लाफ़ है और इसमें आने वाले समय के लिए ख़तरनाक संदेश निहित हैं। ‘न्यायालय ने भी आस्था का अनुमोदन किया है’, ऐसा कहने वाले आर एस एस जैसे फासीवादी सांप्रदायिक संगठन की दूरदर्शी प्रसन्नता समझी जा सकती है!
यह भी दुखद और चिंताजनक है कि विशेष खंडपीठ ने ए.एस.आई. की अत्यंत विवादास्पद रिपोर्ट के आधार पर मस्जिद से पहले हिंदू धर्मस्थल होने की बात को दो तिहाई बहुमत से मान्यता दी है। इस रिपोर्ट में बाबरी मस्जिद वाली जगह पर ‘स्तंभ आधारों’ के होने का दावा किया गया है, जिसे कई पुरातत्ववेत्ताओं और इतिहासकारों ने सिरे से ख़ारिज किया है। यही नहीं, ए.एस.आई. की ही एक अन्य खुदाई रिपोर्ट में उस जगह पर सुर्खी और चूने के इस्तेमाल तथा जानवरों की हड्डियों जैसे पुरावशेषों के मिलने की बात कही गयी है, जो न सिर्फ दीर्घकालीन मुस्लिम उपस्थिति का प्रमाण है, बल्कि इस बात का भी प्रमाण है कि वहां कभी किसी मंदिर का अस्तित्व नहीं था। निस्संदेह, ए.एस.आई. के ही प्रतिसाक्ष्यों की ओर से आंखें मूंद कर और एक ऐसी रिपोर्ट परं पूरा यकीन कर जिसे उस अनुशासन के चोटी के विद्वान झूठ का पुलिंदा बताते हैं, इस फ़ैसले में अपेक्षित पारदर्शिता एवं तटस्थता का परिचय नहीं दिया गया है।
हिंदू आस्था और विवादास्पद पुरातात्विक सर्वेक्षण के हवाले से यह फ़ैसला प्रकारांतर से उन दो कार्रवाइयों को वैधता भी प्रदान करता है जिनकी दो-टूक शब्दों में निंदा की जानी चाहिए थी। ये दो कार्रवाइयां हैं, 1949 में ताला तोड़ कर षड्यंत्रपूर्वक रामलला की मूर्ति का गुंबद के नीचे स्थापित किया जाना तथा 1992 में बाबरी मस्जिद का ढहाया जाना। आश्चर्य नहीं कि 1992 में साम्प्रदायिक ताक़तों ने जिस तरह कानून-व्यवस्था की धज्जियां उड़ाईं और 500 साल पुरानी एक ऐतिहासिक इमारत को न सिर्फ धूल में मिला दिया, बल्कि इस देश के आम भोलेभाले नागरिकों को दंगे की आग में भी झोंक दिया, उसके ऊपर यह फ़ैसला मौन है। इस फ़ैसले का निहितार्थ यह है कि 1949 में जिस जगह पर जबरन रामलला की मूर्ति को प्रतिष्ठित किया गया, वह जायज़ तौर पर रामलला की ही ज़मीन थी और है, और 1992 में हिंदू सांप्रदायिक ताकतों द्वारा संगठित एक उन्मादी भीड़ ने जिस मस्जिद को धूल में मिला दिया, उसका ढहाया जाना उस स्थल के न्यायसंगत बंटवारे के लिए ज़रूरी था! हमारे समाज के आधुनिक विकास के लिए अंधविश्वास और रूढि़वादिता बड़े रोड़े हैं जिनका उन्मूलन करने के बजाय हमारी न्यायपालिका उन्हीं अंधविश्वासों और रूढि़वादिता को बढ़ावा दे तो इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है!
लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और वैज्ञानिक सोच में यक़ीन करने वाले हम लेखक-संस्कृतिकर्मी, विशेष खंडपीठ के इस फ़ैसले को भारत के संवैधानिक मूल्यों पर एक आघात मानते हैं। हम मानते हैं कि अल्पसंख्यकों के भीतर कमतरी और असुरक्षा की भावना को बढ़ाने वाले तथा साम्प्रदायिक ताक़तों का मनोबल ऊंचा करने वाले ऐसे फ़ैसले को, अदालत के सम्मान के नाम पर बहस के दायरे से बाहर नहीं रखा जा सकता। इसे व्यापक एवं सार्वजनिक बहस का विषय बनाना आज जनवाद तथा धर्मनिरपेक्षता की रक्षा के लिए सबसे ज़रूरी क़दम है।


हस्ताक्षरकर्ता

मुरलीमनोहर प्रसाद सिंह,महासचिव, जनवादी लेखक संघ
चंचल चौहान, महासचिव, जनवादी लेखक संघ
कमला प्रसाद, महासचिव, प्रगतिशील लेखक संघ
अली जावेद, उप महासचिव, प्रगतिशील लेखक संघ
मैनेजर पाण्डेय, अध्यक्ष, जन संस्कृति मंच
प्रणय कृष्ण, महासचिव, जन संस्कृति मंच

Sunday, October 24, 2010

आधुनिक भारत की संकल्पना को एक धक्का

दीपंकर भट्टाचार्य

अयोध्या मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय का निर्णय आने की पूर्व संध्या पर हमने कहा था कि यह निर्णय भारत की धर्मनिरपेक्षता,लोकतंत्र और न्याय की परीक्षा है. अब इस शर्मनाक निर्णय को ज़रा गौर से देखने पर हमें पता चलता है कि यह सभी कसौटियों पर असफल साबित हुआ है. 30 सितम्बर 2010 की तारीख अब 6 दिसंबर 1992 के साथ याद की जाएगी.बाबरी मस्जिद को कायराना तरीके से ढहाने के 18 साल बाद अब हम इसके न्यायिक विध्वंस के गवाह बन रहे हैं. इलाहाबाद उच्च न्यायालय का यह निर्णय न्याय के बुनियादी सिद्धांतों व कानून के शासन की बुनियादी स्थापनाओं पर भी खरा नहीं उतरता और आधुनिक भारत के धर्मनिरपेक्ष व लोकतांत्रिक विचार को ही चुनौती देता है.
हाईकोर्ट को विवादित जगह के मालिकाने के बारे में निर्णय देना था. ये सबको पता है कि भाजपा और संघ परिवार अरसे से मानते रहे कि यह पूरा मामला 'आस्था' से जुड़ा हुआ है और 'आस्था' के सवाल को न्यायालय के ज़रिये तय नहीं किया जा सकता. उन्हें पता था कि उनके दावों का कोई कानूनी आधार नहीं है, इसलिए उन्होंने पूरे देश को धोखा देने का रास्ता चुना. उन्होंने हर किसी को आश्वस्त किया था कि क़ानून का सम्मान किया जायेगा, लेकिन दिनदहाड़े मस्जिद को गिराकर वे अपने ही शब्दों से पलट गए.
आज संघ परिवार इस बात पर खुश है कि है हाईकोर्ट ने 'आस्था' को कानूनी जामा पहना दिया है. सभी तीनों जजों ने इस तथ्य को स्वीकार किया है कि 22-23 दिसंबर 1949 की रात को राम,सीता और भरत की मूर्तियों को बाहर से षड्यंत्रपूर्वक अन्दर लाया गया था. फिर भी जजों ने 2-1 के बहुमत से 'विवादित ढांचे' को मस्जिद न मानने के फैला दिया, क्योंकि उनके मुताबिक़ यह ढांचा एक हिन्दू धार्मिक ढांचे को तोड़कर बनाया गया था और इसलिए इस्लाम के मतानुसार इसमें मस्जिद की पवित्रता नहीं हो सकती. ज़रूर तीसरे जज का मत उक्त दोनों मतों से भिन्न था, लेकिन बहुमत के दृष्टिकोण को तरजीह मिली.
ये फैसला मुख्यतया दो तत्वों पर आधारित था- पहला: 2003 में एएसआई की रिपोर्ट में दिए गए कथित 'पुरातात्विक साक्ष्य' जिनके अनुसार मस्जिद के बनने से पहले उस जगह पर हिन्दू मंदिर था. दूसरा: यह कि हिन्दुओं की 'आस्था' है कि यह विवादित क्षेत्र भगवान राम का जन्मस्थान है. एएसआई की इस रिपोर्ट पर कई सवाल खड़े हुए और ज़्यादातर इतिहासकारों और पुरातत्ववेत्ताओं ने इसको खारिज कर दिया था. इस रिपोर्ट को भ्रामक साक्ष्यों और भ्रामक स्पष्टीकरण पर आधारित (काल्पनिक) अटकलबाजी से ज्यादा कुछ और नहीं कहा जा सकता. इसके दूसरे 'पहलू' आस्था के बारे में सच्चाई यह है कि स्वामित्व विवाद के मुक़दमे में फैसले के लिए आस्था को साक्ष्य के बतौर इस्तेमाल नहीं किया जा सकता.
ज़मीन के मालिकाने के मुक़दमे में राम को एक 'विधिसम्मत व्यक्ति' के रूप में मान्यता देकर (गौरतलब है कि मुक़दमे में इन नाबालिग रामलला का प्रतिनिधित्व एक स्वनियुक्त 'अभिभावक' द्वारा किया गया) इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने न्याय शास्त्र के साथ अंध आस्था और धर्म की आड़ लेकर पूर्वाग्रह को फेंटने की एक खतरनाक नज़ीर कायम की है. यहाँ गौर करना होगा कि इस मुक़दमे में सबसे कम उम्र वाले रामलला विराजमान, जिन्हें विवादित स्थल के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण केंद्रीय गुम्बद (ठीक जिस स्थान पर संघ ब्रिगेड वाले भगवान राम का जन्म होने दावा करते हैं) समेत एक तिहाई ज़मीन का हकदार बना दिया गया है. इस पक्ष को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश श्री देवकी नंदन अग्रवाल द्वारा 1989 में खड़ा किया गया था. जिन्होंने संघ ब्रिगेड के मंदिर अभियान को 'कानूनी' मुक़दमे की शक्ल देने में प्रमुख भूमिका अदा की थी.
इस तरह पूर्णतः संदिग्ध आधार पर रामजन्मभूमि के दावे को मान लेने के बाद न्यायाधीशों ने इस पूरे मामले को सुलह की शक्ल में पेश करने के लिए विवादित स्थल को तीन समान हिस्सों में बाँट दिया जिसमें एक हिस्सा वक्फ बोर्ड को मिलेगा. जबकि सुलह हासिल करने की कोशिश केवल सत्य और न्याय के आधार पर ही हो सकती है. लेकिन इस मामले में सच्चाई (कम-से-कम इतिहास में दर्ज सच्चाई) और न्याय दोनों को इस नकली सुलह के सूत्र की बलिवेदी पर कुरबान कर दिया गया है. इसी कारण से यह फैसला सत्य, न्याय और सुलह तीनों का एक साथ मखौल उड़ाता है. क्या सत्य और न्याय की कुर्बानी देकर कोई सम्मानजनक समझौता कर पाना संभव है?
गुजरात के जनसंहार के बाद से भाजपा लगातार देश के अधिकांश हिस्सों में अपनी ज़मीन खोती जा रही है. 2009 के लोकसभा चुनाव में शिकस्त के बाद - जो पिछले पांच वर्षों में उसकी लगातार दूसरी हार थी- भाजपा को कोई रास्ता ही नहीं सूझ रहा था कि कैसे अपने गिरते मनोबल और हताशा को रोका जाये. अब इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले ने निराश-हताश भगवा शिविर में थोड़ी जान वापस डाली है. आडवाणी ने इसी बीच इस फैसले को देश की राष्ट्रीय अखंडता के इतिहास में एक नए अध्याय की शुरुआत बता डाला है. अब इस बात की पूरी संभावना है कि खोई हिम्मत जुटाकर भाजपा फिर से अपने समूचे 'निलंबित एजेंडा' का कपाट खोलेगी और अपने हिंदुत्व के अभियान में ईंधन डालेगी.
इस मामले में कानूनी गतिपथ अब सर्वोच्च न्यायालय की दहलीज तक पहुंचेगा. यह देखना बाकी है कि सर्वोच्च न्यायालय किस हद तक कानून और न्याय के अनुरूप मामले को हल कर पाता है और देश की राजप्रणाली एवं गंगा-जमुनी संस्कृति को अयोध्या के बाद लगे ज़ख्म पर मरहम लगा पाता है जो ज़ख्म इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले से गहरा और खतरनाक हो गया है. भारत की गंगा-जमुनी संस्कृति एवं आधुनिक भारत की धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक दृष्टि, संघ ब्रिगेड द्वारा भारत को बहुसंख्यक-वर्चस्ववादी सोच के आधार पर पीछे की ओर धकेलने वाले षड्यंत्र को मात दे सके, इसे सुनिश्चित करने के लिए हमें पूरी कोशिश करनी होगी. अगर इस मुकाम पर अदालत के बाहर सुलह करने की संभावनाओं की तलाश की जाती है तो उस सुलह को तर्क और न्याय के बुनियादी उसूलों की कीमत पर नहीं किया जाना चाहिए.
भारत को आगे बढ़ना ही होगा इसी मकसद से तर्क-विरोधी और दकियानूसी शक्तियों को पीछे धकेलना होगा. 'जिसकी लाठी उसकी भैंस' के बेहया पैरोकारों के साथ, जो तर्क और प्रगति की आवाजों को हर उपाय से खामोश करने की दुस्साहसिक कार्रवाई कर रहे हैं, उनके साथ कोई समझौता नहीं किया जा सकता.

(समकालीन जनमत से साभार; लेखक भाकपा-माले के राष्ट्रीय महासचिव हैं)

Friday, October 15, 2010

बाबरी मस्जिद से पहले भी वहां मस्जिद ही थी - डा. सूरजभान

रामजन्मभूमि -बाबरी मस्जिद विवाद, काफी समय से इलाहाबाद उच्च न्यायालय (लखनऊ पीठ) के सामने विचाराधीन है। उच्च न्यायालय फिलहाल इस प्रश्न पर साक्ष्यों की सुनवाई कर रहा है कि 1528 में बाबरी मस्जिद के बनाए जाने से पहले, वहां कोई हिंदू मंदिर था या नहीं? हालांकि दोनों पक्षों के गवाहों से काफी मात्रा में साक्ष्य दर्ज कराए जा चुके थे, उच्च न्यायालय ने यह तय किया कि विवादित स्थल पर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण से खुदाई कराई जाए। इस खुदाई के लिए आदेश जारी करने से पहले अदालत ने, संबंधित स्थल का भू-भौतिकी सर्वेक्षण भी कराया था। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के ही आमंत्रण पर, तोजो विकास इंटरनेशनल प्राइवेट लि. नामक कंपनी ने, जिसका कार्यालय नई दिल्ली में कालकाजी में है, रिमोट सेसिंग की पद्धति से भूगर्भ सर्वेक्षण किया था।

उक्त सर्वेक्षण की रिपोर्ट में संबंधित स्थल पर सतह के नीचे भूमिगत असंगतियां दर्ज की गयीं थीं। इस रिपोर्ट के ही अंशों में से असंगंतियां, ``प्राचीन या समकालीन निर्माणों जैसे खंभों, नींव की दीवारों, संबंधित स्थल के बड़े हिस्स् में फैले पत्थर के फर्श से संबंद्ध`` हो सकती थीं।

इस तरह, तोजो विकास कंपनी के भूगर्भ सर्वेक्षण की रिपोर्ट के ही आधार पर, उच्च न्यायालय ने 5 मार्च 2003 के अपने आदेश जारी किए थे, जिनमें भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण से कहा गया था कि विवादित स्थल पर खुदाई करे और इसका पता लगाए कि वहां कोई मंदिर बना हुआ था या नहीं?

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के दल ने 12 मार्च 2003 से वहां खुदाई का काम शुरू किया। मैं 10 से 12 जून तक खुदाई स्थल पर था। टीले के एक छोटे से हिस्से को छोड़कर जिस पर रामलला का अस्थायी मंदिर बना हुआ है, 80 मीटर गुणा 60 मीटर के विवादित क्षेत्र में भारतीय पुरातत्व सर्वे के विशेषज्ञों ने विस्तृत रूप से खुदाई की है।

जे-3 खाई में 10 मीटर से भी ज्यादा गहराई तक गहरी खुदाई की गई है। इससे पहले 1969-70 में ए. के. नारायण (बनारस हिंदू विश्वविद्यालय) द्वारा और बी. बी. लाल (इंडियन इंस्टिट्यूट आफ एडवांस्ट स्टडीज़, शिमला) तथा के. वी. सुंदरराजन (भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण) द्वारा की गई खुदाइयों में उजागर किए गए स्स्कृतियों के क्रम की ही, मौजूदा खुदाई ने पुष्टि है। इसके हिसाब से अयोध्या में रामजन्मभूमि कहलाने वाले स्थल को सबसे पहले 600 ईस्वीपूर्व आबाद किया गया था। लेकिन, इसके बाद, कुषाण काल के आखिरी दौर में या गुप्त काल में, पांचवी सदी ईस्वी तक यह इलाका उजड़ चुका था।

आरंभिक मध्य काल में आबादी के साक्ष्य नहीं
मौजूदा खुदाई में आरंभिक मध्यकाल (600 ईस्वीपूर्व से 1200 ईस्वी) से संबद्ध बसावट का कोई संस्तर नहीं मिला है। मस्जिद की बाउंड्री वाल के नजदीक खुदाई में बी. बी. लाल ने जो चूने के फर्श ताथा `स्तंभ आधार` खोजे थे (इंडियन आर्कियोलजी - एक रिव्यू, 1976-77) और ग्यारहवीं सदी के बिताए थे, अब स्पष्ट हो गया है कि सल्तनत काल (13 वीं सदी ईस्वी) पहले के नहीं हो सकते हैं। जो भी नक्काशीदार काले पत्थर के खंभों, दरवाजे के कब्जे व अन्य नक्काशीदार पत्थर, विवादित स्थल पर या उसके निकट मिले थे, जिसके संबंध में हिस्टोरियन्स फोरम ने न्यू आर्कियोलोजिकल डिस्कवरीज (1992) में बताया था या जिनके मस्जिद के मलबे से मिलने के बारे में बताया गया था, उनका बाबरी मस्जिद के नीचे के संस्तरों से कोई भूसंस्तरीय संबंध नहीं बनता है। मौजूदा खुदाई में एफ-3 खाई में मिला काले पत्थर का खंभा, मस्जिद के मलबे से आया है। जे-3 खाई में मिला आलेखदार पत्थर, गढ़े के भरत में कंकड़ियों के साथ औंधा पड़ा पाया गया है। उसकी लिपि भी उन्नीसवीं सदी से पुरानी नहीं है।

खुदाई में सामने आए सबसे महत्वपूर्ण मध्ययुगीन निर्माण, वास्तव में विभिन्न कालखंडों की दो मस्जिदों के अवशेष हैं। ये अवशेष टीले के तो उपरले संस्तरों पर हैं, लेकिन बाबरी मस्जिद के मलबे के नीचे हैं, जबकि मलबे के ऊपर अस्थायी मंदिर खड़ा हुआ है।

सल्तनत काल की मस्जिद
बाबरी मस्जिद से पहले की मस्जिद के सबसे अच्छे साक्ष्य खाई संख्याः डी-6, ई-6, एफ-6 तथा उत्तर व दक्षिण की कुछ और खाइयों में मिले हैं। उसकी पश्चिमी दीवार, बाहरी दीवार (बाउंड्री वाल) का भी काम करती होंगी। उसकी नींव में कुछ नक्काशीदार पत्थर लगे थे, जो कहीं अन्य पुराने निर्माणों से रहे होंगे। इसकी ऊपर की दीवारें सांचे की (मोल्टेड) ईंटों से बनी हैं, जो आस-पास में किन्हीं पुराने मध्यकालीन निर्माणों के मलबे से आयी होंगी। उपरोक्त खाइयों में एक हाल की दक्षिणी, पूर्वी तथा उत्तरी दीवारें देखी जा सकती हैं। दीवारों की अंदरूनी सतह पर चूने का पलस्तर है और ये दीवारें चूने और सुर्खी के फर्श से जुड़ती हैं, जो उत्खनन के करीब-करीब पूरे ही क्षेत्र में फैला हुआ है। इस फर्श के नीचे मिट्टी का भरत किया हुआ है, ताकि मस्जिद के फर्श को ऊपर उठाया जा सके। फर्श बनाने में चूने और सुर्खी के प्रयोग, दीवारों पर पलास्तर किया जाना और इन दीवारों पर बाबरी मस्जिद (निर्माण 1528 ईस्वी) की दीवारों का बनाया जाना, यह सब बाबरी मस्जिद से पहले के इस निर्माण के सल्तनत काल का होने को साबित करता है।

बाबरी मस्जिद
संबंधित मस्जिद पर जिस दूसरी मस्जिद के साक्ष्य मिले हैं, निर्विवाद रूप से बाबरी मस्जिद थी, जो पत्थरों से बनायी गई थी। इसेक दक्षिणी गुंबद की दीवारें, सत्लतनत काल की मस्जिद की ही निर्माण योजना का अनुसरण करती हैं। बाबरी मस्जिद की दीवारें, जहां-कहीं भी बची रह गयी हैं, चूने के पलस्तर के साक्ष्य पेश करती हैं। इस मस्जिद का फर्श भी, चूने तथा सुर्खी का बना है। पहले वाला यानी सल्तनत काल की मस्जिद का फर्श, अब मिट्टी के भरत के नीचे दब गया है, जो शायद मुगलकालीन मस्जिद को ऊपर उठाने के लिए किया गया होगा। मुगलकालीन मस्जिद का फर्श भी खूब लंबा-चौड़ा है, करीब-करीब सल्तनत काल की मस्जिद जितना ही। बाबरी मस्जिद से जुड़ा एक ओर महत्वपूर्ण निर्माण है, मस्जिद के दक्षिण-पूर्व में बना कंकड़-पत्थर का (पानी का) हौज। नौ-दस फुट की ऊंचाई तक, पत्थर के हरेक रद्दे पर चूने तथा सुर्खी का गारा फैलाया गया था।
हौज की तली और दीवारों पर भी खूब मोटा पलस्तर किया गया है ताकि उससे पानी का रिसाव न हो।
हौज की ऊपरी सतह के बाबरी मस्जिद के फर्श से जुड़े होने से, बाबरी मस्जिद (प्रथम चरण) के साथ इसके संबद्ध होने का पता चलता है।

राम चबूतरा
अट्ठारहवीं-उन्नीसवीं सदियों से जुड़ा एक विचित्र साक्ष्य सामने आया है। हौज को कंकड़-पत्थर से और चूने के मसाले से भर दिया जाता है। उसके ऊपर उसी सामग्री से छोटा सा चबूतरा बना दिया जाता है। चबूतरा पौने पांच मीटर गुणा पौने पांच मीटर का है। पहले चबूतर को घेरते हुए और बड़ा चबूतरा बनता है। अब चबूतरा 22 मीटर गुणा 22 मीटर का हो जाता है। इसी के ऊपर राम चबूतरा बनाया गया था। राम चबूतरा बाबरी मस्जिद के पहले फर्श में धंसा हुआ था, जिससे यह संकेत मिलता है कि चबूतरों का निर्माण बाबरी मस्जिद के निर्माण के काफी बाद का होगा।
एक और निर्माण भी बाबरी मस्जिद के परिसर में धंसता नजर आता है। इसमें `स्तंभ आधार` शामिल हैं। ये स्तंभ आधार, जो गोल से या चौकोर से हैं, बीच में ईंट के टुकड़ों के बने हैं, जिनके बीच में कंकड़-पत्थर लगा है और इनमें मिट्टी के गारे की चिनाई है। ये सभी निर्माण किसी एक ही बड़े निर्माण के हिस्से नहीं हैं, जैसाकि बी. बी. लाल तथा एस. पी. गुप्ता मान बैठे थे। ऐसा लगता है कि ऐसे स्तंभ आधारों के समूह हैं और ये स्वतंत्र, साधारण छप्परों, छाजनों के हिस्से होंगे, जिनका अयोध्या में और उसके आस-पास दूकानों, झोंपड़ियों आदि के लिए उपयोग आम है। मस्जिद के उत्तर की ओर कुछ स्तंभ आधार सेंट स्टोन के भी बने हैं। ईंट के टुकड़ों के बने स्तंभ आधारों की रचना, बी. बी. लाल को इससे पहले की अपनी खुदाई में मिले स्तंभ आधारों से भिन्न नहीं है। उन्होंने इनका समय 11वीं सदी आंकने में गलती की है।
बाबरी मस्जद परिसर में मिला तीसरा निर्माण, बहुत सारी कब्रें हैं जो बाबरी मस्जिद के उत्तर में भी पायी गई हैं और दक्षिण में भी। ये कब्रें बाबरी मस्जिद के पहले वाले फर्श में धंसी हैं। इससे पता चलता है कि ये कब्रें बाबरी मस्जिद के अपेक्षाक़त बाद के दौर में बनी होंगी। कब्रें उत्तर-दक्षिण दिशा में हैं। कब्रों में अस्थि-पिंजरों का चेहरा पश्चिम की ओर मुड़ा हुआ है, जैसाकि मुसलमानों में रिवाज है।
इस खुदाई में बारी मस्जिद के बाद वाले चरण के साक्ष्य दूसरा फर्श फैलाये जाने के रूप में मिलते हैं। यह फर्श स्तंभ आधारों, कब्रों तथा चबूतरों को ढ़ांपने के बाद, यह फर्श चूना और सुर्खी का बना है। यह मस्जिद के आखिरी ढ़ांचागत चरण का संकेतक है। चूंकि 18वीं सदी के मध्य भाग से पहले राम चबूतरों की मौजूदगी का कोई साहित्यिक या ऐतिहासिक साक्ष्य नहीं है, चबूतरों स्तंभ आधारों तथा कब्रों का फर्श में धंसता हुआ निर्माण, 18वीं-19वीं सदियों का माना जा सकता है। यह ज्ञात ही है कि 1857 से पहले अयोध्या में दंगे हुए थे और इनमें कुछ खून-खराबा हुआ था। बहरहाल, अवध के नवाब के हस्तक्षेप से, दोनों समुदायों के बीच के टकराव को हल कर लिया गया था। इसके बाद सद्भाव बहाल हो गया था और इसके कुछ ही समय बाद, 1857 में हिदुओं और मुसलमानों ने मिलकर सामराजी सत्ता के खिलाफ मोर्चा लिया था। आगे चलकर, 1948 में बाबरी मस्जिद पर जबरन कब्जा किए जाने के बावजूद, 6 दिसंबर 1992 को संघ परिवार की उपद्रवी भीड़ों द्वारा ध्वस्त किए जाने तक, मस्जिद वहां कायम थी। अंत में हम निष्कर्ष के तौर पर कह सकते हैं:

1. रामजन्मभूमि कहलाने वाली जगह पर ताजा खुदाई से यह पता चलता है कि भगवान राम के अयोध्या में जन्मा होने के परंपरागत विश्वास को इतिहास में अनंतकाल तक पीछे नहीं ले जाया जा सकता है क्योंकि यहां तो पहली बार आबादी ही 600 ईस्वीपूर्व में आयी थी।

2. ताजा खुदाई से इसकी और पुष्टि होती है कि बाबरी मस्जिद के नीचे कोई हिंदू मंदिर नहीं था। वास्तव में इसके नीचे (यानी उसी स्थान पर इससे पहले) सल्तनत काल की एक मस्जिद थी। इसलिए, 1528 में मस्जिद बनाने के लिए बाबर के ऐसे किसी कल्पित मंदिर को तोड़े जाने का सवाल ही नहीं उठता है।

3. खुदाई में यह भी पता चला है कि बाबरी मस्जिद से जुड़े पानी के हौज के ऊपर राम चबूतरा बनाया गया था। इसके साथ ही ईंट के टुकड़ों तथा सेंड स्टोन के स्तंभ आधारों का निर्माण और बाबरी मस्जिद परिसर में बनी कब्रें, सभी बाद में जोड़े गए निर्माण हैं और ये 18वीं-19वीं सदियों से पहले के नहीं लगते। उन्नीसवीं सदी में बाबरी मस्जिद का जीर्णोद्धार हुआ था और उसका दूसरा फर्श सभी बाद के निर्माणों को ढ़ांपे हुए था। यह विचित्र बात है कि विश्व हिंदू परिषद ने, संघ परिवार तथा भाजपा के समर्थन से, अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ घृणा तथा हिंसा का आंदोलन छेड़ा है। इसमें न तो मुस्लिम अल्पसंख्यकों का कोई कसूर है और न ही इसके पीछे कोई जायज कारण है। यह मुहिम मानवता, जनतंत्र, धर्मनिरपेक्षता तथा सामाजिक न्याय के उन सभी मूल्यों की धज्जियां उड़ाते हुए छेड़ी गयी है, जिनकी सभी आधुनिक सभ्य समाज इतनी कद्र करते हैं।
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जाने-माने पुरातत्वविद, इतिहासकार और सोशल एक्टिविस्ट डॉ. सूरजभान का 14 जुलाई 2010 को रोहतक (हरियाणा) में निधन हुआ। उनका जन्म 1 मार्च 1931 को मिंटगुमरी (फ़िलहाल पाकिस्तान में) हुआ था। वे इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस, अर्कियोलोजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया के केन्द्रीय सलाहकार मंडल और भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद् की कार्यकारिणी केसदस्य रहे। 1992 में बाबरी मस्जिद गिरा दिए जाने के बाद उसके मलबे में से मंदिर के तथाकथित अवशेष ढूंढ़ने का दावा कर रहे आरएसएस प्रायोजित कथित पुरातात्विकों से उन्होंने लोहा लिया और वे इस मसले में लखनऊ की अदालत में बतौर विशेषज्ञ गवाह के रूप में पेश होते रहे। यह बात दीगर है कि अयोध्या पर आए यूपी हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ के विवादास्पद फैसले में एक न्यायाधीश ने यहां तक कहा कि चूंकि वे इतिहासकार नहीं है इसलिए उन्होंने ऐतिहासिक पहलू की छानबीन नहीं की पर उन्होंने यह भी कह दिया कि इन मुकदमों पर फैसला देने के लिए इतिहास और पुरातत्वशास्त्र अत्यावश्यक नहीं थे!
डा. सूरजभान का यह लेख सहमत मुक्तनाद, अप्रैल-जून 2003 अंक में छपा था।

Saturday, October 9, 2010

आस्था पर ज़ोर, क़ानून कमज़ोर


अयोध्या विवाद को लेकर उच्च अदालत के फैसले के बारे में न्यू सोशलिस्ट इनिशिएटिव, दिल्ली का वक्तव्य

अयोध्या विवाद को लेकर उच्च न्यायालय के आए आदेश के सन्दर्भ में जनता के तमाम हिस्सों द्वारा दिखाए गए संयम और एक नया पन्ना पलटने की उनकी ख्वाहिश का जहां ‘न्यू सोशलिस्ट इनिशिएटिव’ स्वागत करती है, वहीं उसका यह भी स्पष्ट मानना है कि यह जाँचने की ज़रूरत है कि चारों तरफ दिख रही शान्ति सम्मान के साथ हासिल की गयी है या दबाव की वजह से कायम हुई है। अयोध्या मसले को लेकर हाल में संपन्न कानूनी घटनाक्रम को लेकर, क्रान्तिकारी समाजवादी राजनीति को नवजीवन प्रदान करने के लिए प्रतिबद्ध ‘न्यू सोशलिस्ट इनिशिएटिव’, बेहद चिन्तित है और उसे यह लगता है कि फैसले में यह दिख रहा है कि धर्मनिरपेक्षता, जनतंत्र जैसे अहम संवैधानिक मूल्यों के साथ समझौता किया गया है।
अयोध्या, जो लम्बे समय से हमारी साझी विरासत का एक प्रतीक रही है, जिसे 18 साल पहले साम्प्रदायिक फासीवादी ताकतों द्वारा पांच सौ साल पुरानी मस्जिद को तबाह कर कलंकित किया गया, उसकी छवि फिर एक बार मलिन हुई है। उपरोक्त जमीन के टुकड़े को लेकर, जहां पांच सौ साल पुरानी मस्जिद खड़ी थी, सामने आए अदालती फैसले का यही निचोड़ कहा जा सकता है।
इलाहाबाद उच्च अदालत की तीन सदस्यीय लखनऊ पीठ द्वारा दिए निर्णय ने उपरोक्त जमीन के मालिकाना हक विवाद को तीन पक्षों के बीच के सम्पत्ति विवाद में रूपान्तरित कर दिया और एक तरह से यह निर्णय दिया कि ऐसे मामलों को तय करने के लिए वास्तविक तथ्यों की नहीं जनता की मान्यताओं की जरूरत है। क़ानून के बजाय आस्था का यह महिमामण्डन या ठोस वैज्ञानिक सबूतों के बजाय धर्मशास्त्र की दी जा रही दुहाई को हम आजाद भारत के न्यायिक इतिहास के पतन की पराकाष्ठा कह सकते हैं। गौरतलब है कि अदालत ने जहां एक तरफ सुन्नी वक्फ बोर्ड की याचिका को खारिज कर दिया, जिसके पास जमीन का समूचा मालिकाना था, और अन्त में उसे जमीन का एक तिहाई हिस्सा दिया। ऐसा लगता है कि प्रस्तुत फैसला ठोस कानूनी सिद्धान्तों के आधार पर नहीं बल्कि दो समुदायों के बीच लम्बे समय से चल रहे विवाद के निपटारे की नीयत से प्रेरित है। यह बिल्कुल ठीक जान पड़ता है कि यह फैसला ‘पंचायती’ किस्म का निर्णय है जहां मध्यस्थ की बात को ही अन्तिम शब्द समझा जाता है। यह बात भी बेहद आश्चर्यजनक है माननीय न्यायाधीशों ने इस मुद्दे पर अपनी राय बनाने के लिए ऐसे अन्य मसलों की भी चर्चा नहीं की। बंटवारे के पहले लाहौर का शहीदगंज गुरूद्वारे का मसला चर्चित रहा है जिसमें बाद में प्रीवी कौन्सिल को हस्तक्षेप करना पड़ा था और व्यवस्था देनी पड़ी थी कि मुसलमानों के इस दावे को खारिज कर दिया गुरूद्वारा कुछ समय पहले तक मस्जिद के रूप में कार्यरत था।
इस फैसले के बाद हिन्दुत्व ब्रिगेड के खेमे में मची खुशी को समझा जा सकता है। इस फैसले ने उनकी लम्बे समय से चली आ रही मांग को साबित कर दिया है कि आस्था के मामले कानून से ऊपर होते हैं। अपनी आसन्न जीत को देखते हुए उन्होंने दोनों समुदायों के बीच मौजूद अन्य विवादास्पद मुद्दो को भी उठाना शुरू किया है , यहां तक कि उन्होंने कहा है कि मुसलमानों को चाहिए कि वे मथुरा, वाराणसी और अन्य हजारों स्थानों पर अपने दावे खुद छोड़ दें। इस तरह यह बात विचलित करनेवाली है कि इस फैसले ने हिन्दुत्व की सियासत को नयी ऊर्जा प्रदान की है, जिसे हाल के समयों में कई हारों का सामना करना पड़ा था।
नब्बे के दशक में आए सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले जिसमें हिन्दुत्व को जीवनप्रणाली घोषित किया गया था और जिसने हिन्दुत्व की असमावेशी परियोजना को नयी वैधता प्रदान की थी, इलाहाबाद हाईकोर्ट के लखनऊ पीठ का यह फैसला, जो एक तरह से झुण्डवादी दावों (majoritarian claims) की बात करता और इन्साफ की अनदेखी करता है, आनेवाले लम्बे समय तक नज़ीर बना रहेगा।
‘न्यू सोशलिस्ट इनिशिएटिव’ का साफ मानना है कि इस बात को मद्देनज़र रखते हुए कि स्वतंत्र भारत की आगे की यात्रा में और भारतीय संविधान की मूल आत्मा धर्मनिरपेक्षता और जनतंत्र पर इस अदालती फैसले के अहम प्रभावों को देखते हुए इस मसले को सर्वोच्च न्यायालय की बड़ी पीठ के सामने रखा जाए तथा उससे यह अनुरोध किया जाए कि वह जल्द से जल्द इस मसले का समाधान ढूंढे।
साम्प्रदायिकताविरोधी खेमे के चन्द लोगों द्वारा उठायी गयी यह मांग कि ‘मौके को हाथ से नहीं जाने देना है’ ताकि सहयोग एवम समर्थन के नए युग की शुरूआत की जा सके, इसके पीछे उनके निहितार्थों को समझते हुए वह उन लोगों को इन झुण्डवादी ताकतों के वास्तविक इरादों के प्रति भी आगाह करना चाहता है।
हम हर अमनपसन्द, इन्साफ़पसन्द और अग्रगामी नज़रिया रखनेवाले व्यक्ति से अपील करना चाहते हैं कि वह विवेक की आवाज़ बुलन्द करे और धर्मनिरपेक्षता, जनतंत्र की हिफाज़त के लिए एकजुट होकर दीर्घकालीन संघर्ष चलाने की तैयारी करे।

Wednesday, October 6, 2010

मुंसिफ ही हमको लूट गया - मुकुल `सरल`

३० सितंबर

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दिल तो टूटा है बारहा लेकिन

एक भरोसा था वो भी टूट गया

किससे शिकवा करें, शिकायत हम

जबकि मुंसिफ ही हमको लूट गया



ज़लज़ला याद दिसंबर का हमें

गिर पड़े थे जम्हूरियत के सुतून

इंतज़ामिया, एसेंबली सब कुछ

फिर भी बाक़ी था अदलिया का सुकून



छै दिसंबर का ग़िला है लेकिन

ये सितंबर तो चारागर था मगर

ऐसा सैलाब लेके आया उफ!

डूबा सच और यकीं, न्याय का घर



उस दिसंबर में चीख़ निकली थी

आह! ने आज तक सोने न दिया

ये सितंबर तो सितमगर निकला

इस सितंबर ने तो रोने ने दिया


(इंतज़ामिया- कार्यपालिका, एसेंबली- विधायिका, अदलिया- न्यायपालिका, चारागर- इलाज करने वाला)

Monday, October 4, 2010

अयोध्या फैसले पर जन संस्कृति मंच की राष्ट्रीय कार्यकारिणी द्वारा पारित प्रस्ताव


जन संस्कृति मंच की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक (2 अक्टूबर 2010, नई दिल्ली) में अयोध्या मसले पर हाल के इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले पर पारित प्रस्ताव


जन संस्कृति मंच विवादित अयोध्या मुद्दे पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ के उससे भी ज्यादा विवादित फैसले पर सदमे और दुख का इजहार करता है. यूं तो सर्वोच्च न्यायालय तक का सफर बाकी है, लेकिन इस फैसले के पक्ष में एक ओर संघ परिवार तो दूसरी ओर कांग्रेस पार्टी जिस तरह राजनीतिक सर्वानुमति बनाने का प्रयास कर रही हैं, वह भविष्य के लिए अच्छा संकेत नहीं है. यह फैसला सत्ता की राजनीति के तकाजों को पूरा करने वाला, तथ्यों और न्याय-प्रक्रिया के ऊपर धार्मिक आस्था को तरजीह देने वाला और पुरातत्व सर्वेक्षण की अत्यंत विवादास्पद रिपोर्ट से निकाले गए मनमाने निष्कर्षों पर आधारित है. इस फैसले ने अप्रामाणिक, निराधार, तर्कहीन ढंग से इस बात पर मुहर लगा दी है कि जहां रामलला की मूर्ति 1949 में षड्यंत्रपूर्वक रखी गई थी, वही राम का जन्मस्थान है. ऐसा करके न्यायालय के इस फैसले के परिणामस्वरूप न केवल 1949 की उस षड्यंत्रकारी हरकत, बल्कि 1992 में बाबरी मस्जिद गिराए जाने की बर्बर कार्रवाई को भी प्रकारांतर से वैधता मिल गई है. सवाल यह भी है कि क्या यह फैसला देश के संविधान के लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष प्रतिज्ञाओं के भी विरुद्ध नहीं है?

यह पहली बार हुआ है कि आस्था और विश्वास को सियासत के तकाजे से दीवानी मुकदमे की अदालती प्रक्रिया में निर्णय के एक वैध आधार के रूप में मान्यता दी गई. मिल्कियत का विवाद सिद्ध किए जा सकने योग्य सबूतों के आधार पर नहीं, बल्कि अवैज्ञानिक आस्थापरक आधारों पर निपटाकर इस फैसले ने न्याय की समूची आधुनिक परिभाषा को ही संकटग्रस्त कर दिया है. इतना सबकुछ करने के बाद भी यह फैसला इस विवाद को सुलझाने में न केवल नाकामयाब रहा है, बल्कि उसने धर्मस्थानों को लेकर तमाम दूसरे सियासी विवादों के लिए भविष्य का रास्ता खोल दिया है. एक तो पुरातत्व सर्वेक्षण खुद में ही मिल्कियत के विवाद निबटाने के लिए एक संदिग्ध आधार है, दूसरे देश के तमाम बड़े इतिहासकारों और पुरातत्ववेत्ताओं ने सर्वेक्षण की प्रक्रिया और तौर-तरीकों पर लगातार एतराज जताया है. अनेक विश्वप्रसिद्ध पुरातत्वविद पहले से ही कहते आए हैं कि इस भूखंड की खुदाई में ऐसे कोई भी खंभे नहीं मिले हैं, जिनके आधार पर पुरातत्व की रिपोर्ट वहां मंदिर होने की संभावना व्यक्त करती है, दूसरी ओर पशुओं की हड्डियों और अन्य पुरावशेषों से वहां दीर्घकालीन मुस्लिम उपस्थिति का अवश्य ही प्रमाण मिलता है. ऐसे में न्यायालय की खंडपीठ द्वाराबहुमत से यह मान लेना कि मस्जिद से पहले वहां कोई हिंदू धर्मस्थल था, पूरी तरह गैरवाजिब प्रतीत होता है.

‘‘वर्तमान की सियासत को जायज ठहराने के लिए हम अतीत को झुठला नहीं सकते."- इतिहासकार रोमिला थापर के इस वक्तव्य में निहित एक अध्येता, एक नागरिक और एक देशप्रेमी की पीड़ा में अपना स्वर मिलाते हुए हम इतना और जोड़ना चाहेंगे कि अमूल्य कुर्बानियों से हासिल आजादी, लोकतंत्र, न्याय और धर्मनिरपेक्षता के उसूलों के खिलाफ जाकर ‘आस्था की राजनीति’ के तकाजों को पूरा करने वाले किसी भी अदालती निर्णय को कठोर राजनैतिक-वैचारिक बहस के बगैर स्वीकार करना देश के भविष्य के साथ एक अक्षम्य समझौता होगा.


प्रणय कृष्ण
महासचिव, जन संस्कृति मंच
द्वारा जारी

अयोध्या फैसला: एक इतिहासकार की दृष्टि में



यह फैसला एक राजनीतिक निर्णय है और एक ऐसे फैसले को दर्शाता है जो राज्य द्वारा वर्षों पहले लिया जा सकता था. इसका फोकस भूमि के आधिपत्य और ढहा दी गई मस्जिद के स्थान पर एक नया मंदिर बनाने पर है. यह मसला धार्मिक पहचानों से जुड़ी समकालीन राजनीति में उलझा हुआ था पर इसके ऐतिहासिक साक्ष्य पर भी आधारित होने का दावा था. ऐतिहासिक साक्ष्य के पहलू का ज़िक्र तो किया गया है पर तत्पश्चात उसे फैसले में दरकिनार कर दिया गया.

अदालत ने घोषणा की है कि एक विशिष्ट स्थान ही वह जगह है जहाँ एक ईश्वरीय या ईश्वर-स्वरुप व्यक्ति का जन्म हुआ और उसकी स्मृति में जहाँ मंदिर का निर्माण होगा. और यह हिन्दू आस्था और विश्वास के आग्रह के प्रतिसाद में है. इस दावे के पक्ष में साक्ष्य का अभाव होने से, ऐसे निर्णय की अपेक्षा न्यायालय से नहीं की जा सकती. एक आराध्य के तौर पर राम के प्रति हिन्दुओं में गहरा आदर है पर क्या जन्मस्थान पर किये गए दावों, भूमि के आधिपत्य और ज़मीन हथियाने हेतु एक ऐतिहासिक स्मारक के जानबूझकर किये गए विध्वंस के बाबत के कानूनी फैसले में यह प्रमाण हो सकता है?

इस निर्णय का कहना है कि उस स्थान पर बारहवीं सदी का मंदिर था जिसे नष्ट कर मस्जिद बनाई गई थी- और इसी वजह से नया मंदिर बनाने का औचित्य बनता है.

भारतीय पुरातत्व सर्वे (एएसआई) की खुदाइयों और उनकी व्याख्या को पूरी तरह स्वीकार कर लिया गया है जबकि उनका अन्य पुरातत्ववेत्ताओं और इतिहासकारों ने प्रतिवाद किया है. चूंकि यह पेशेवर विशेषज्ञता का ऐसा मामला है जिस पर तीव्र मतभेद थे, एक दृष्टिकोण के सीधे-से और वह भी एकांगी स्वीकार से इस निर्णय पर भरोसा नहीं हो पाता. एक न्यायाधीश ने कहा कि चूंकि वे इतिहासकार नहीं है इसलिए उन्होंने ऐतिहासिक पहलू की छानबीन नहीं की पर उन्होंने यह भी कह दिया कि इन मुकदमों पर फैसला देने के लिए इतिहास और पुरातत्वशास्त्र अत्यावश्यक नहीं थे! फिर भी यहाँ मुद्दा तो दावों की ऐतिहासिकता और पिछली एक सहस्त्राब्दी के ऐतिहासिक ढांचों का ही था.

राजनीतिक नेतृत्व के उकसावे पर भीड़ ने वह मस्जिद जानबूझकर नष्ट कर दी जो लगभग पांच सौ साल पहले बनी थी और हमारी सांस्कृतिक विरासत का हिस्सा थी. अकारण विध्वंस के इस कृत्य की, और हमारी विरासत के प्रति इस अपराध की निंदा की जानी चाहिए इसका निर्णय के सार में कोई उल्लेख नहीं है. नए मंदिर का गर्भगृह - जो राम का जन्मस्थान माना गया है -मस्जिद के मलबे की जगह पर होगा. संभवतः मस्जिद के विध्वंस को सुविधाजनक तरीके से इस मुकदमे के दायरे से बाहर रखकर उसकी भर्त्सना नहीं की गई है, जबकि कथित मंदिर के विध्वंस की निंदा की गई है और यही नया मंदिर बनाने का औचित्य बन गया है.

इस फैसले ने न्याय के क्षेत्र में इस बात की मिसाल कायम की है कि अपने आपको समुदाय के तौर पर परिभाषित करने वाले किसी समूह द्वारा पूजे जाने वाले किसी दैवीय या देवस्वरूप का जन्मस्थान बताकर भूमि पर दावा किया जा सकता है. अब जहाँ भी ठीकठाक संपत्ति हो या जहाँ आवश्यक विवाद तैयार किया जा सके ऐसे और कई जन्मस्थान सामने आएँगे .ऐतिहासिक स्मारक के सुविचारित विध्वंस की भर्त्सना चूंकि नहीं की गई है, लोगों को अन्य स्मारकों का विध्वंस करने से रोकने के लिए है ही क्या? जैसा कि हमने हाल के वर्षों में देखा है, उपासना स्थलों की स्थिति बदलने के खिलाफ 1993 में बना कानून अत्यंत अप्रभावी रहा.

इतिहास में जो हुआ वह हुआ.उसे बदला नहीं जा सकता. पर जो हुआ उसे हम समूचे सन्दर्भ में समझना सीख सकते हैं और उसे विश्वसनीय प्रमाण के आधार पर देखने का प्रयत्न कर सकते हैं.वर्तमान की राजनीति का औचित्य सिद्ध करने के लिए हम अतीत को नहीं बदल सकते. यह फैसला इतिहास के प्रति आदर को अमान्य कर उसकी जगह पर धार्मिक आस्था को रखने की चेष्टा करता है. सच्चा समाधान तभी हो सकता है जब भरोसा हो कि इस देश का क़ानून केवल आस्था और विश्वास पर नहीं बल्कि प्रमाण पर आधारित है.

-रोमिला थापर

(दि हिन्दू से साभार) अनुवाद-भारत भूषण तिवारी

Sunday, October 3, 2010

अयोध्या फैसले पर मंगलेश डबराल

'सहमत' ने अयोध्या फैसले पर देश के प्रमुख पुरातत्वविदों, इतिहासकारों और बुद्धिजीवियों का बयान जारी किया था, हिंदी के वरिष्ठ कवि मंगलेश डबराल ने इस पर अपनी सहमति व्यक्त की है। मंगलेश जी की यह टिप्पणी इस बात का संकेत है कि हिन्दी लेखक इस मसले पर चुप नहीं हैं

मंगलेश जी का सहमत को मेल

मैं देश के प्रमुख बुद्धिजीवियों के वक्तव्य से पूरी तरह सहमत हूँइतिहास और पुरातत्व से जुड़ा मसला सुप्रीम कोर्ट ले जाया जाना चाहिएसाम्प्रदायिक और संदिग्ध `खोज` को चुनौती दी जानी चाहिएयह न्याय का मज़ाक हैमैं मुसलामानों को सलाम करता हूँ कि वे अमन के रास्ते पर कायम रहेलेकिन, उन्हें खुद को हारा हुआ महसूस नहीं करना चाहिएइस देश के अधिकतर इंसान जो असल में साम्प्रदायिक नहीं हैं, उनके साथ हैं और रहेंगे
-मंगलेश डबराल

मूल वक्तव्य अंग्रेजी में है-

I fully agree with the statement of our major intellectuals। History and archeology issue must be taken to the supreme court. Communal and fraudulant findings must be challenged. It is a mockery of justice. I salute to the Muslims at large who remained calm. It again shows their tolerance. But they should not feel defeated. Most of the human beings in this country, who are of course not communalised, are with them and will remain so.

-MANGALESH DABRAL

Friday, October 1, 2010

अयोध्या फैसले पर पुरातत्वविद, इतिहासकार और समाजशास्त्री

अयोध्या फैसले पर वक्तव्य

30 सितम्बर 2010 को इलाहाबाद उच्च-न्यायालय की लखनऊ खण्डपीठ द्वारा राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद में दिए फैसले में इतिहास,तर्क और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों की जो गति हुई है वह गहन चिंता का विषय है. सर्वप्रथम यह दृष्टिकोण,कि बाबरी मस्जिद किसी हिन्दू मंदिर के स्थान पर बनाई गई थी और जिसका तीन में से दो न्यायाधीशों ने समर्थन किया है, उन साक्ष्यों पर गौर नहीं करता जो इस तथ्य के विपरीत हैं और भारतीय पुरातत्व सर्वे (एएसआई) द्वारा स्वयं कराई गई खुदाइयों में सामने आये हैं: जानवरों की हड्डियों की सर्वत्र मौजूदगी और साथ ही साथ सुर्खी और चूने के गारे का इस्तेमाल (जो सब मुस्लिम उपस्थिति के अभिलक्षण हैं) वहाँ मस्जिद के नीचे किसी हिन्दू मंदिर के मौजूद रहे होने की सम्भावना को नकारते हैं. भारतीय पुरातत्व सर्वे की विवादास्पद रिपोर्ट जिसने 'आधार स्तंभों' की बिना पर इसके विपरीत बात कही, ज़ाहिर तौर पर कपटपूर्ण थी क्योंकि कोई खम्भे पाए ही नहीं गए, और 'आधार स्तंभों' की कथित मौजूदगी पुरातत्ववेत्ताओं के बीच विवाद का विषय रही है. अब यह ज़रूरी हो गया है कि एएसआई द्वारा करवाई गई खुदाई से जुड़ी साइट नोटबुकें, कलाकृतियाँ और अन्य भौतिक प्रमाण विद्वानों, इतिहासकारों और पुरातत्ववेत्ताओं द्वारा परीक्षण हेतु उपलब्ध कराए जाएँ.

इस तथ्य के बारे में भी कोई सुबूत पेश नहीं किया गया है कि भगवान राम की जन्मस्थली वहीं है जहाँ मस्जिद थी ऐसी हिंदू मान्यता, 'आदिकाल' से तो क्या हाल के वर्षों से थोड़ा पहले मौजूद भी थी. यह फैसला इसलिए गलत तो है ही कि यह इस मान्यता की प्राचीनता को स्वीकार करता है, बल्कि यह बात बेहद तकलीफदेह भी है कि इस स्वीकरण को मिल्कियत की हकदारी का फैसला करने के तर्क में तब्दील किया गया. यह न्याय और निष्पक्षता के सभी सिद्धांतों के विपरीत प्रतीत होता है.

इस निर्णय की सबसे आपत्तिजनक बात यह है कि यह हिंसा और बाहुबल को जायज़ ठहराता है. यह फैसला 1949 में हुई जबरन घुसपैठ को तो मान्य करता है जिसमें मस्जिद की गुम्बदों के नीचे मूर्तियाँ रखी गईं, पर अब यह बिना किसी तार्किक आधार के यह मान्य करता है कि उस स्थानान्तरण ने मूर्तियों को उनकी उचित जगह दिलाई. और भी आश्चर्यजनक बात यह है कि यह फैसला (जी हाँ, उच्चतम न्यायालय के ही आदेशों की अवज्ञा करते हुए) 1992 में हुए मस्जिद के विध्वंस को ऐसे कृत्य के तौर पर स्वीकार करता है जिसके नतीजे मंदिर बनाने की दुहाई देने वालों को मस्जिद के मुख्य हिस्से हस्तांतरित करके स्वीकार करने पड़ेंगे.

इन सारी वजहों से हम इस फैसले को हमारे देश के धर्मनिरपेक्ष तानेबाने और न्यायपालिका की प्रतिष्ठा को लगे आघात के तौर पर देखते हैं. इस मामले में आगे जो भी हो, देश जिसे खो चुका बदकिस्मती से वह तो ठीक होने से रहा.

रोमिला थापर
के.एन.श्रीमाली
डी.एन.झा
के.एन.पणिक्कर
अमिय कुमार बागची
इक़तिदार आलम खान
शीरीं मूसवी
जया मेनन
इरफ़ान हबीब
सुवीरा जैसवाल
केशवन वेलुथात
डी. मंडल
रामकृष्ण चटर्जी
अनिरुद्ध राय
अरुण बंदोपाध्याय
ए. मुरली
वी.रामकृष्ण
अर्जुन देव
आर.सी.ठकरान
एच.सी.सत्यार्थी
अमार फारुक़ी
बी.पी.साहु
बिस्वमय पती
लता सिंह
उत्सा पटनायक
ज़ोया हसन
प्रभात पटनायक
सी.पी.चंद्रशेखर
जयती घोष
अर्चना प्रसाद
शक्ति काक
वी.एम.झा
प्रभात शुक्ल
इंदिरा अर्जुन देव
महेंद्र प्रताप सिंह
और अन्य

(सहमत द्वारा जारी)
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(वक्तव्य की मूल अंग्रेजी प्रति नीचे दी जा रही है)
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SAHMAT


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Date 1.10.2010

Statement on Ayodhya Verdict


The judgement delivered by the Lucknow Bench of the Allahabad High Court in the Ram Janmabhoomi-Babri Masjid Dispute on 30 September 2010 has raised serious concerns because of the way history, reason and secular values have been treated in it. First of all, the view that the Babri Masjid was built at the site of a Hindu temple, which has been maintained by two of the three judges, takes no account of all the evidence contrary to this fact turned up by the Archaeological Survey of India’s own excavations: the presence of animal bones throughout as well as of the use of ‘surkhi’ and lime mortar (all characteristic of Muslim presence) rule out the possibility of a Hindu temple having been there beneath the mosque. The ASI’s controversial Report which claimed otherwise on the basis of ‘pillar bases’ was manifestly fraudulent in its assertions since no pillars were found, and the alleged existence of ‘pillar bases’ has been debated by archaeologists. It is now imperative that the site notebooks, artefacts and other material evidence relating to the ASI’s excavation be made available for scrutiny by scholars, historians and archaeologists.

No proof has been offered even of the fact that a Hindu belief in Lord Rama’s birth-site being the same as the site of the mosque had at all existed before very recent times, let alone since ‘time immemorial’. Not only is the judgement wrong in accepting the antiquity of this belief, but it is gravely disturbing that such acceptance should then be converted into an argument for deciding property entitlement. This seems to be against all principles of law and equity.

The most objectionable part of the judgement is the legitimation it provides to violence and muscle-power. While it recognizes the forcible break-in of 1949 which led to placing the idols under the mosque-dome, it now recognizes, without any rational basis, that the transfer put the idols in their rightful place. Even more astonishingly, it accepts the destruction of the mosque in 1992 (in defiance, let it be remembered, of the Supreme Court’s own orders) as an act whose consequences are to be accepted, by transferring the main parts of the mosque to those clamouring for a temple to be built.

For all these reasons we cannot but see the judgement as yet another blow to the secular fabric of our country and the repute of our judiciary. Whatever happens next in the case cannot, unfortunately, make good what the country has lost.


Romila Thapar

K.M. Shrimali

D.N. Jha

K.N. Panikkar

Amiya Kumar Bagchi

Iqtidar Alam Khan

Shireen Moosvi

Jaya Menon

Irfan Habib

Suvira Jaiswal

Kesavan Veluthat

D. Mandal

Ramakrishna Chatterjee

Aniruddha Ray

Arun Bandopadhyaya

A. Murali

V. Ramakrishna

Arjun Dev

R.C. Thakran

H.C. Satyarthi

Amar Farooqui

B.P. Sahu

Biswamoy Pati

Lata Singh

Utsa Patnaik

Zoya Hasan

Prabhat Patnaik

C.P. Chandrasekhar

Jayati Ghosh

Archana Prasad

Shakti Kak

V.M. Jha

Prabhat Shukla

Indira Arjun Dev

Mahendra Pratap Singh

and Others

मीर बाक़ी ने बनवायी जो कोई वह मस्जिद ही न थी

हलफ़नामा

नहीं ऐसा कभी नहीं हुआ
मनुष्य और कबूतर ने एक दूसरे को नहीं देखा
औरतों ने शून्य को नहीं जाना
कोई द्रव यहाँ बहा नहीं
फर्श को रगड़ कर धोया नहीं गया

हल्के अँधेरे में उभरती है एक आकृति
चमकते हैं कुछ दाँत
कोई शै उठती है कील पर टंगी कीई चीज़
उतारती है चली जाती है

नहीं कोई बच्चा यहाँ सरकंडे की
तलवार लेकर मुर्गी के पीछे नहीं भागा

बंदरों के क़ाफ़िलों ने
कमान मुख्यालय पर डेरा नहीं डाला

मैंने सारे लालच सारे शोर सारे
सामाजिक अकेलेपन के बावजूद केबल कनेक्शन
नहीं लगवाया

चचा के मिसरों को दोहराना नहीं भूला
नहीं बहुत सी प्रजातियों को मैंने
नहीं जाना जो सुनना न चाहा
सुना नहीं, गोया बहुत कुछ मेरे लिए
नापैद था

नहीं पहिया कभी टेढ़ा नहीं हुआ

नहीं बराबरी की बात कभी हुई ही नहीं
(हो सकती भी न थी)

उर्दू कोई ज़बान ही न थी

अमीरख़ानी कोई चाल ही न थी

मीर बाक़ी ने बनवायी जो
कोई वह मस्जिद ही न थी

नहीं तुम्हारी आँखों में
कभी कोई फ़रेब न था।

असद ज़ैदी की यह कविता उनके कविता संग्रह `सामान की तलाश` से ली गई है।