Sunday, June 19, 2011

बनी रहेगी हुसेन के निर्वासन की टीस : धर्मेंद्र सुशांत



मकबूल फिदा हुसेन नहीं रहे। देश से बाहर, लंदन में 9 जून 2011 को उन्होंने अंतिम सांस ली; इस समय वह भारत में नहीं थे, बल्कि एक आत्मनिर्वासित जिंदगी जी रहे थे। इसलिए उनकी मौत का शोक और भी गहरा हो जाता है। अपने जीवन के आखिरी वर्षों में विवादों में जबरन घसीटे गए हुसेन निविर्वाद रूप से आधुनिक भारत के सबसे चर्चित कलाकार थे। उनकी दुनिया भर में ख्याति थी।
उनकी तारीफ में बहुत कुछ कहा जा सकता है, कहा भी गया है, लेकिन जो चीज उन्हें सबसे अलग बनाती थी, वह थी उनकी निरंतर प्रयोगधर्मिता और अनथक उत्साह। गोकि वे बुजुर्ग थे- जन्म उनका 1915 में हुआ था- और रिटायर होने की रस्मी उम्र के लगभग चार दशक बाद भी वे जिस जज्बे के साथ कला-कर्म में सक्रिय थे, वह लोगों को हैरत में डालता था।
साहित्य में नागार्जुन तात्कालिक परिघटनाओं और विषयों पर रचनात्मक प्रतिक्रिया देने के लिए मशहूर रहे हैं।चित्रकला के क्षेत्र में हुसेन ने भी अक्सर अपने इर्द-गिर्द की घटनाओं के तात्कालिक संदर्भ को अपनी कला का विषय बनाया। चाहे इंदिरा गांधी की हत्या हो, चाहे सफदर हाशमी की हत्या, चाहे सचिन तेंदुलकर का उभरना हो, चाहे सत्यजित राय को ऑस्कर मिलना या इमरेंसी की घटना हो या फ़ैज़ और मदर टेरेसा जैसे व्यक्तित्व- हुसैन ने अनगिनत परिघटनाओं और व्यक्तियों पर रंग-ब्रश से टिप्पणी की; यह उनका एक विरल गुण था, जो शायद ही किसी कलाकार में देखने को मिले।
आजादी के आसपास कलाकारों की जिस जमात ने अपने को पूर्व की राष्ट्रवादी और पुनरुत्थानवादी कला-प्रवृत्तियों से अलग करने की पहल की थी, हुसेन उन्हीं में से एक थे। वे 1947 में गठित प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप में सूजा, रजा,आरा, गायतोंडे और बाकरे के साथ थे। कहना न होगा कि आजादी के बाद के कला परिदृश्य के निर्माण में इस ग्रुप की लगभग केंद्रीय भूमिका रही है। साथ ही यह कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप में यूं तो शामिल सभी कलाकार विलक्षण हैं, लेकिन इनमें हुसेन की व्याप्ति सर्वाधिक महसूस की गई- कला जगत में भी और इसके बाहर भी। चित्रकार कृष्ण खन्ना के शब्दों में वस्तुतः वह आधुनिक भारतीय कला का मरकज (केंद्र) बन चुके थे।
हुसेन का अहम योगदान यह है कि उन्होंने आधुनिक कला को आम लोगों तक पहुंचाया। यह हुसेन ही थे, जिनके बहाने अधिकतर लोगों ने जाना कि समकालीन दौर की चित्रकला जो है उसका मुकाम क्या है। यह हुसेन ही थे, जिन्होंने कला के संदर्भ में बाजार को समझा और उसका इस्तेमाल किया। बाजारवाद बुरी चीज है और इतनी बुरी चीज है कि लोग बाजार को ही बुरा मान लेते हैं। लेकिन जैसा कि कबीर ने कहा है, ‘अमरपुर में बैठी बजरिया सौदा है करना’- हुसेन ने बाजार से घबराने की बजाय सोच-समझकर उसे अपनी शर्तों पर साधा। वह इंदौर के एक बेहद साधारण और मुफलिस-से परिवार में पैदा हुए थे और बंबई में फिल्मों की होर्डिंग पेंट करने का मेहनत भरा काम भी किया- लेकिन वह यहीं नहीं रुके। वह अपनी कीमत जानते थे और उन्होंने इसे कबूल करवाया। हालांकि वह पैसे के पीछे पागल नहीं थे। मुफलिसी से आर्थिक वैभव हासिल करने के बावजूद जेहनी तौर पर वे उससे निर्लिप्त-से इंसान बने रहे। अपनी मर्जी के मालिक!
हुसेन ने चित्र बनाने के साथ ही फिल्मों और लेखन के जरिए भी अपने को अभिव्यक्त किया। उनकी आत्मकथा साहित्यिक पैमाने पर भी एक श्रेष्ठ कृति है और भाषा के स्तर पर भी। उन्होंने लोकप्रियता को कोई अछूत चीज नहीं माना। फिल्मी अभिनेत्रियों के सौंदर्य के प्रति उनका आकर्षण जगजाहिर है, जिनकी खूबसूरती को उन्होंने अपने कैनवस पर उतारकर नई अर्थवत्ता दी। मगर हुसेन की खासियत यह थी कि उन्होंने किसी भी दौर में अपनी कला में भारत की समृद्ध कला परंपरा को ओझल नहीं होने दिया। वह उसकी सामासिकता और विविधता के गहरे जानकार थे। लेकिन भारतीयता और देश के नाम पर
उन्होंने किसी संकीर्णता को कभी स्वीकार नहीं किया। एक कलाकार के बतौर वह पूरी दुनिया को अपना दायरा मानते थे। वह उन चुनिंदा कलाकारों में थे जिन्होंने भारतीय महाकाव्यों और मिथकों को
आधुनिक और कलात्मक संदर्भों में मौलिक अंदाज में रूपायित किया। लेकिन इसी सिलसिले में उन्हें सियासी विवाद में घसीटा गया। सांप्रदायिक शक्तियों- संघ, विहिप, भाजपा वगैरह ने उन पर हिंदू देवी-देवताओं को अश्लील रूप से चित्रित करने का आरोप लगाया। एक घृणित सांप्रदायिक-राजनीतिक रणनीति के तहत जिस तरह मुस्लिम समुदाय में जन्म लेने वाले लोगों को निशाना बनाया गया,
हुसेन भी अचानक एक हिंदू विरोधी मुसलमान बना दिए गए। एक सुनियोजित अभियान चलाकर उन पर देश के विभिन्न हिस्सों में दो और दस नहीं, सैकड़ों मुकदमे किए गए। उनके चित्र जलाए गए, प्रदर्शनियों पर हमले किए गए। हरिद्वार की एक अदालत ने तो सम्मन का जवाब न देने के कारण उनकी संपत्ति कुर्क करने का आदेश दे दिया था और इंदौर की एक अदालत ने उनके खिलाफ जमानती वारंट जारी कर दिया था। जिन पर बाद में उच्चतम न्यायालय ने रोक लगा दी थी। 2006 में लंदन में भी हिंदू फोरम ऑफ ब्रिटेन ने उनके खिलाफ अभियान चलाया जिसके कारण प्रदर्शनी को रोकना पड़ा।
आज अपनी मृत्यु के बाद इन तथाकथित राष्ट्रवाद के ठेकेदारों को अचानक हुसेन महान भारतीय कलाकार लगने लगे हैं, इतिहास इन्हें इनके कुकृत्यों के लिए कभी माफ नहीं करेगा। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और सरकार के दूसरे लोग हुसेन की मौत को अपूरणीय क्षति बता रहे हैं, लेकिन इसी सरकार के पूर्व गृहमंत्री शिवराज सिंह पाटिल ने हुसेन को सांप्रदायिक सद्भाव बिगाड़नेवाला समझा था। नतीजतन हुसेन ने कतर की नागरिकता ले ली।
हुसेन का यह प्रसंग भारतीय लोकतंत्र के ऊपर लगातार मंडराते सांप्रदायिक-फासीवादी खतरों का ही स्पष्ट उदाहरण है।खैर, हुसेन ने मुखर होकर कभी भी सांप्रदायिक ताकतों का विरोध नहीं किया और न ही उन्हें इस लायक समझा कि अपनी कला के जरिए उनके प्रति प्रतिक्रिया या प्रतिरोध व्यक्त करते। वे चुपचाप अपनी मर्जी से सृजन करते रहे। कतर में रहे या जीवन के आखिरी दिनों में लंदन में, वे हमेशा सृजनरत
रहे। 95 साल की उम्र में भी उनका कला के प्रति उत्साह जरा भी कम नहीं हुआ था।
हुसेन ने ताजिंदगी कला और देश के लिए अपना प्यार सुरक्षित रखा। अपने अंतिम साक्षात्कार में उन्होंने जीवन के आखिरी दिन अपने देश में गुजारने की ख्वाहिश जाहिर की थी, जो पूरी नहीं हुई। यह भारत और उसकी समृद्ध कला को प्रेम करने वालों के लिए हमेशा एक टीस की तरह बनी रहेगी। समकालीन जनमत की ओर से इस महान भारतीय चित्रकार को हार्दिक श्रद्धांजलि!

Saturday, June 18, 2011

नागार्जुन जन्मशती उत्सव

जनवादी लेखक संघ, सहमत, जनम और एक्ट-1 के तत्वावधान में 15 जून 2011 को दिल्ली में नागार्जुन जन्मशती उत्सव का आयोजन किया गया. इस मौके पर `नया पथ` के नागार्जुन विशेषांक का विमोचन भी हुआ. सहमत, जनम, एक्ट-1 , बिगुल और जनम, कुरुक्षेत्र ने नागार्जुन की कविताओं पर आधारित सांस्कृतिक प्रस्तुतियां दीं.




Wednesday, June 15, 2011

नागार्जुन की कुछ कविताएं

बाबा नागार्जुन का जन्म आज ही के दिन ज्येष्ठ पूर्णिमा को हुआ था. उनकी जन्मशती के मौके पर लेखक संगठनों ने कई कार्यक्रम किये हैं और उन पर कई अंक भी निकले हैं.
उनकी कुछ चर्चित और महत्वपूर्ण कविताएं -

मंत्र कविता

ब्द ही ब्रह्म है..

ब्द्, और ब्द, और ब्द, और ब्द
प्रण‌, नाद, मुद्रायें
क्तव्य‌, उदगार्, घोषणाएं
भाष‌...
प्रव‌...
हुंकार, टकार्, शीत्कार
फुसफुस‌, फुत्कार, चीत्कार
आस्फाल‌, इंगित, इशारे
नारे, और नारे, और नारे, और नारे

कुछ, कुछ, कुछ
कुछ हीं, कुछ हीं, कुछ हीं
त्थ की दूब, रगोश के सींग
-तेल-ल्दी-जीरा-हींग
मूस की लेड़ी, नेर के पात
डाय की चीख‌, औघड़ की अट बात
कोयला-इस्पात-पेट्रोल
मी ठोस‌, बाकी फूटे ढोल

इदमान्नं, इमा आपः इदज्यं, इदं विः
मान‌, पुरोहित, राजा, विः
क्रांतिः क्रांतिः र्वग्वंक्रांतिः
शांतिः शांतिः शांतिः र्वग्यं शांतिः
भ्रांतिः भ्रांतिः भ्रांतिः र्वग्वं भ्रांतिः
चाओ चाओ चाओ चाओ
टाओ टाओ टाओ टाओ
घेराओ घेराओ घेराओ घेराओ
निभाओ निभाओ निभाओ निभाओ

लों में एक अपना ,
अंगीकरण, शुद्धीकरण, राष्ट्रीकरण
मुष्टीकरण, तुष्टिकरण‌, पुष्टीकरण
ऎतराज़‌, आक्षेप, अनुशास
द्दी आजन्म ज्रास
ट्रिब्यून‌, आश्वास
गुटनिरपेक्ष, त्तासापेक्ष जोड़‌-तोड़
‌-छंद‌, मिथ्या, होड़होड़
वास‌, उदघाट
मारण मोह उच्चाट

काली काली काली हाकाली हकाली
मार मार मार वार जाय खाली
अपनी खुशहाली
दुश्मनों की पामाली
मार, मार, मार, मार, मार, मार, मार
अपोजीश के मुंड ने तेरे ले का हार
ऎं ह्रीं क्लीं हूं आङ
बायेंगे तिल और गाँधी की टाँग
बूढे की आँख, छोकरी का काज
तुलसीद, बिल्वत्र, न्द, रोली, अक्ष, गंगाज
शेर के दांत, भालू के नाखून‌, र्क का फोता
मेशा मेशा राज रेगा मेरा पोता
छूः छूः फूः फूः फिट फुट
त्रुओं की छाती अर लोहा कुट
भैरों, भैरों, भैरों, रंगली
बंदूक का टोटा, पिस्तौल की ली
डॉल, रूब, पाउंड
साउंड, साउंड, साउंड

रती, रती, रती, व्योम‌, व्योम‌, व्योम‌, व्योम
अष्टधातुओं के ईंटो के ट्टे
हामहिम, हमहो उल्लू के ट्ठे
दुर्गा, दुर्गा, दुर्गा, तारा, तारा, तारा
इसी पेट के अन्द मा जाय र्वहारा
रिः त्स, रिः त्स

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घिन तो नहीं आती है

पूरी स्पीड में है ट्राम

खाती है दचके पै दचके
सटता है बदन से बदन
पसीने से लथपथ
छूती है निगाहों को
कत्थई दांतों की मोटी मुस्कान
बेतरतीब मूँछों की थिरकन
सच सच बतलाओ
घिन तो नहीं आती है ?
जी तो नहीं कढता है ?

कुली मज़दूर हैं
बोझा ढोते हैं , खींचते हैं ठेला
धूल धुआँ भाप से पड़ता है साबका
थके मांदे जहाँ तहाँ हो जाते हैं ढेर
सपने में भी सुनते हैं धरती की धड़कन
आकर ट्राम के अन्दर पिछले डब्बे मैं
बैठ गए हैं इधर उधर तुमसे सट कर
आपस मैं उनकी बतकही
सच सच बतलाओ
जी तो नहीं कढ़ता है ?
घिन तो नहीं आती है ?

दूध-सा धुला सादा लिबास है तुम्हारा
निकले हो शायद चौरंगी की हवा खाने
बैठना है पंखे के नीचे , अगले डिब्बे मैं
ये तो बस इसी तरह
लगाएंगे ठहाके, सुरती फाँकेंगे
भरे मुँह बातें करेंगे अपने देस कोस की
सच सच बतलाओ
अखरती तो नहीं इनकी सोहबत ?
जी तो नहीं कुढता है ?
घिन तो नहीं आती है ?

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चंदू, मैंने सपना देखा

चंदू, मैंने सपना देखा, उछल रहे तुम ज्यों हिरनौटा

चंदू, मैंने सपना देखा, अमुआ से हूँ पटना लौटा
चंदू, मैंने सपना देखा, तुम्हें खोजते बद्री बाबू
चंदू,मैंने सपना देखा, खेल-कूद में हो बेकाबू

मैंने सपना देखा देखा, कल परसों ही छूट रहे हो
चंदू, मैंने सपना देखा, खूब पतंगें लूट रहे हो
चंदू, मैंने सपना देखा, लाए हो तुम नया कैलंडर
चंदू, मैंने सपना देखा, तुम हो बाहर मैं हूँ अंदर
चंदू, मैंने सपना देखा, अमुआ से पटना आए हो
चंदू, मैंने सपना देखा, मेरे लिए शहद लाए हो

चंदू मैंने सपना देखा, फैल गया है सुयश तुम्हारा
चंदू मैंने सपना देखा, तुम्हें जानता भारत सारा
चंदू मैंने सपना देखा, तुम तो बहुत बड़े डाक्टर हो
चंदू मैंने सपना देखा, अपनी ड्यूटी में तत्पर हो

चंदू, मैंने सपना देखा, इम्तिहान में बैठे हो तुम
चंदू, मैंने सपना देखा, पुलिस-यान में बैठे हो तुम
चंदू, मैंने सपना देखा, तुम हो बाहर, मैं हूँ अंदर
चंदू, मैंने सपना देखा, लाए हो तुम नया कैलेंडर

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अकाल और उसके बाद

कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास

कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त


दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद
धुआँ उठा आँगन से ऊपर कई दिनों के बाद
चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद
कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद
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यह दंतुरित मुस्कान

तुम्हारी यह दंतुरित मुस्कान

मृतक में भी डाल देगी जान
धूली-धूसर तुम्हारे ये गात...
छोड़कर तालाब मेरी झोंपड़ी में खिल रहे जलजात
परस पाकर तुम्हारी ही प्राण,
पिघलकर जल बन गया होगा कठिन पाषाण
छू गया तुमसे कि झरने लग पड़े शेफालिका के फूल
बाँस था कि बबूल?
तुम मुझे पाए नहीं पहचान?
देखते ही रहोगे अनिमेष!
थक गए हो?
आँख लूँ मैं फेर?
क्या हुआ यदि हो सके परिचित पहली बार?
यदि तुम्हारी माँ माध्यम बनी होगी आज
मैं सकता देख
मैं पाता जान
तुम्हारी यह दंतुरित मुस्कान


धन्य तुम, माँ भी तुम्हारी धन्य!
चिर प्रवासी मैं इतर, मैं अन्य!
इस अतिथि से प्रिय क्या रहा तम्हारा संपर्क
उँगलियाँ माँ की कराती रही मधुपर्क
देखते तुम इधर कनखी मार
और होतीं जब कि आँखे चार
तब तुम्हारी दंतुरित मुस्कान
लगती बड़ी ही छविमान!

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Sunday, June 12, 2011

दस दिन का अनशन - हरिशंकर परसाई


10 जनवरी


आज मैंने बन्नू से कहा, " देख बन्नू, दौर ऐसा आ गया है की संसद, क़ानून, संविधान, न्यायालय सब बेकार हो गए हैं. बड़ी-बड़ी मांगें अनशन और आत्मदाह की धमकी से पूरी हो रही हैं. २० साल का प्रजातंत्र ऐसा पक गया है कि एक आदमी के मर जाने या भूखा रह जाने की धमकी से ५० करोड़ आदमियों के भाग्य का फैसला हो रहा है. इस वक़्त तू भी उस औरत के लिए अनशन कर डाल."
बन्नू सोचने लगा. वह राधिका बाबू की बीवी सावित्री के पीछे सालों से पड़ा है. भगाने की कोशिश में एक बार पिट भी चुका है. तलाक दिलवाकर उसे घर में डाल नहीं सकता, क्योंकि सावित्री बन्नू से नफरत करती है.
सोचकर बोला, " मगर इसके लिए अनशन हो भी सकता है? "
मैंने कहा, " इस वक़्त हर बात के लिए हो सकता है. अभी बाबा सनकीदास ने अनशन करके क़ानून बनवा दिया है कि हर आदमी जटा रखेगा और उसे कभी धोएगा नहीं. तमाम सिरों से दुर्गन्ध निकल रही है. तेरी मांग तो बहुत छोटी है- सिर्फ एक औरत के लिए."
सुरेन्द्र वहां बैठा था. बोला, " यार कैसी बात करते हो! किसी की बीवी को हड़पने के लिए अनशन होगा? हमें कुछ शर्म तो आनी चाहिए. लोग हँसेंगे."
मैंने कहा, " अरे यार, शर्म तो बड़े-बड़े अनशनिया साधु-संतों को नहीं आई. हम तो मामूली आदमी हैं. जहाँ तक हंसने का सवाल है, गोरक्षा आन्दोलन पर सारी दुनिया के लोग इतना हंस चुके हैं क उनका पेट दुखने लगा है. अब कम-से-कम दस सालों तक कोई आदमी हंस नहीं सकता. जो हंसेगा वो पेट के दर्द से मर जाएगा."
बन्नू ने कहा," सफलता मिल जायेगी?"
मैंने कहा," यह तो 'इशू' बनाने पर है. अच्छा बन गया तो औरत मिल जाएगी. चल, हम 'एक्सपर्ट' के पास चलकर सलाह लेते हैं. बाबा सनकीदास विशेषज्ञ हैं. उनकी अच्छी 'प्रैक्टिस' चल रही है. उनके निर्देशन में इस वक़्त चार आदमी अनशन कर रहे हैं."
हम बाबा सनकीदास के पास गए. पूरा मामला सुनकर उन्होंने कहा," ठीक है. मैं इस मामले को हाथ में ले सकता हूँ. जैसा कहूँ वैसा करते जाना. तू आत्मदाह की धमकी दे सकता है?"
बन्नू कांप गया. बोला," मुझे डर लगता है."
"जलना नहीं है रे. सिर्फ धमकी देना है."
"मुझे तो उसके नाम से भी डर लगता है."
बाबा ने कहा," अच्छा तो फिर अनशन कर डाल. 'इशू' हम बनायेंगे."
बन्नू फिर डरा. बोला," मर तो नहीं जाऊँगा."
बाबा ने कहा," चतुर खिलाड़ी नहीं मरते. वे एक आँख मेडिकल रिपोर्ट पर और दूसरी मध्यस्थ पर रखते हैं. तुम चिंता मत करो. तुम्हें बचा लेंगे और वह औरत भी दिला देंगे."


11 जनवरी

आज बन्नू आमरण अनशन पर बैठ गया. तम्बू में धुप-दीप जल रहे हैं. एक पार्टी भजन गा रही है - 'सबको
सन्मति दे भगवान्!'. पहले ही दिन पवित्र वातावरण बन गया है. बाबा सनकीदास इस कला के बड़े उस्ताद हैं. उन्होंने बन्नू के नाम से जो वक्तव्य छपा कर बंटवाया है, वो बड़ा ज़ोरदार है. उसमें बन्नू ने कहा है कि 'मेरी आत्मा से पुकार उठ रही है कि मैं अधूरी हूँ. मेरा दूसरा खंड सावित्री में है. दोनों आत्म-खण्डों को मिलाकर एक करो या मुझे भी शरीर से मुक्त करो. मैं आत्म-खण्डों को मिलाने के लिए आमरण अनशन पर बैठा हूँ. मेरी मांग है कि सावित्री मुझे मिले. यदि नहीं मिलती तो मैं अनशन से इस आत्म-खंड को अपनी नश्वर देह से मुक्त कर दूंगा. मैं सत्य पर हूँ, इसलिए निडर हूँ. सत्य की जय हो!'
सावित्री गुस्से से भरी हुई आई थी. बाबा सनकीदास से कहा," यह हरामजादा मेरे लिए अनशन पर बैठा है ना?"
बाबा बोले," देवी, उसे अपशब्द मत कहो. वह पवित्र अनशन पर बैठा है. पहले हरामजादा रहा होगा. अब नहीं रहा. वह अनशन कर रहा है."
सावित्री ने कहा," मगर मुझे तो पूछा होता. मैं तो इस पर थूकती हूँ."
बाबा ने शान्ति से कहा," देवी, तू तो 'इशू' है. 'इशू' से थोड़े ही पूछा जाता है. गोरक्षा आन्दोलन वालों ने गाय से कहाँ पूछा था कि तेरी रक्षा के लिए आन्दोलन करें या नहीं. देवी, तू जा. मेरी सलाह है कि अब तुम या तुम्हारा पति यहाँ न आएं. एक-दो दिन में जनमत बन जाएगा और तब तुम्हारे अपशब्द जनता बर्दाश्त नहीं करेगी."
वह बड़बड़ाती हुई चली गई.
बन्नू उदास हो गया. बाबा ने समझाया," चिंता मत करो. जीत तुम्हारी होगी. अंत में सत्य की ही जीत होती है."


13 जनवरी

बन्नू भूख का बड़ा कच्चा है. आज तीसरे ही दिन कराहने लगा. बन्नू पूछता है, " जयप्रकाश नारायण आये?"
मैंने कहा," वे पांचवें या छठे दिन आते हैं. उनका नियम है. उन्हें सूचना दे दी है."
वह पूछता है," विनोबा ने क्या कहा है इस विषय में?"
बाबा बोले," उन्होंने साधन और साध्य की मीमांसा की है, पर थोड़ा तोड़कर उनकी बात को अपने पक्ष में उपयोग किया जा सकता है."
बन्नू ने आँखें बंद कर लीं. बोला,"भैया, जयप्रकाश बाबू को जल्दी बुलाओ."
आज पत्रकार भी आये थे. बड़ी दिमाग-पच्ची करते रहे.
पूछने लगे," उपवास का हेतु कैसा है? क्या वह सार्वजनिक हित में है? "
बाबा ने कहा," हेतु अब नहीं देखा जाता. अब तो इसके प्राण बचाने की समस्या है. अनशन पर बैठना इतना बड़ा आत्म-बलिदान है कि हेतु भी पवित्र हो जाता है."
मैंने कहा," और सार्वजनिक हित इससे होगा. कितने ही लोग दूसरे की बीवी छीनना चाहते हैं, मगर तरकीब उन्हें नहीं मालूम. अनशन अगर सफल हो गया, तो जनता का मार्गदर्शन करेगा."


14 जनवरी

बन्नू और कमज़ोर हो गया है. वह अनशन तोड़ने की धमकी हम लोगों को देने लगा है. इससे हम लोगों का मुंह काला हो जायेगा. बाबा सनकीदास ने उसे बहुत समझाया.
आज बाबा ने एक और कमाल कर दिया. किसी स्वामी रसानंद का वक्तव्य अख़बारों में छपवाया है. स्वामीजी ने कहा है कि मुझे तपस्या के कारण भूत और भविष्य दिखता है. मैंने पता लगाया है क बन्नू पूर्वजन्म में ऋषि था और सावित्री ऋषि की धर्मपत्नी. बन्नू का नाम उस जन्म में ऋषि वनमानुस था. उसने तीन हज़ार वर्षों के बाद अब फिर नरदेह धारण की है. सावित्री का इससे जन्म-जन्मान्तर का सम्बन्ध है. यह घोर अधर्म है कि एक ऋषि की पत्नी को राधिका प्रसाद-जैसा साधारण आदमी अपने घर में रखे. समस्त धर्मप्राण जनता से मेरा आग्रह है कि इस अधर्म को न होने दें.
इस वक्तव्य का अच्छा असर हुआ. कुछ लोग 'धर्म की जय हो!' नारे लगाते पाए गए. एक भीड़ राधिका बाबू के घर के सामने नारे लगा रही थी----
"राधिका प्रसाद-- पापी है! पापी का नाश हो! धर्म की जय हो."
स्वामीजी ने मंदिरों में बन्नू की प्राण-रक्षा के लिए प्रार्थना का आयोजन करा दिया है.


15 जनवरी

रात को राधिका बाबू के घर पर पत्थर फेंके गए.
जनमत बन गया है.
स्त्री-पुरुषों के मुख से यह वाक्य हमारे एजेंटों ने सुने---
"बेचारे को पांच दिन हो गए. भूखा पड़ा है."
"धन्य है इस निष्ठां को."
"मगर उस कठकरेजी का कलेजा नहीं पिघला."
"उसका मरद भी कैसा बेशरम है."
"सुना है पिछले जन्म में कोई ऋषि था."
"स्वामी रसानंद का वक्तव्य नहीं पढ़ा!"
"बड़ा पाप है ऋषि की धर्मपत्नी को घर में डाले रखना."
आज ग्यारह सौभाग्यवतियों ने बन्नू को तिलक किया और आरती उतारी.
बन्नू बहुत खुश हुआ. सौभाग्यवतियों को देख कर उसका जी उछलने लगता है.
अखबार अनशन के समाचारों से भरे हैं.
आज एक भीड़ हमने प्रधानमन्त्री के बंगले पर हस्तक्षेप की मांग करने और बन्नू के प्राण बचाने की अपील करने भेजी थी. प्रधानमन्त्री ने मिलने से इनकार कर दिया.
देखते हैं कब तक नहीं मिलते.
शाम को जयप्रकाश नारायण आ गए. नाराज़ थे. कहने लगे," किस-किस के प्राण बचाऊं मैं? मेरा क्या यही धंधा है? रोज़ कोई अनशन पर बैठ जाता है और चिल्लाता है प्राण बचाओ. प्राण बचाना है तो खाना क्यों नहीं लेता? प्राण बचाने के लिए मध्यस्थ की कहाँ ज़रुरत है? यह भी कोई बात है! दूसरे की बीवी छीनने के लिए अनशन के पवित्र अस्त्र का उपयोग किया जाने लगा है."
हमने समझाया," यह 'इशू' ज़रा दूसरे किस्म है. आत्मा से पुकार उठी थी."
वे शांत हुए. बोले," अगर आत्मा की बात है तो मैं इसमें हाथ डालूँगा."
मैंने कहा," फिर कोटि-कोटि धर्मप्राण जनता की भावना इसके साथ जुड़ गई है."
जयप्रकाश बाबू मध्यस्थता करने को राज़ी हो गए. वे सावित्री और उसके पति से मिलकर फिर प्रधानमन्त्री से मिलेंगे.
बन्नू बड़े दीनभाव जयप्रकाश बाबू की तरफ देख रहा था.
बाद में हमने उससे कहा," अबे साले, इस तरह दीनता से मत देखा कर. तेरी कमज़ोरी ताड़ लेगा तो कोई भी नेता तुझे मुसम्मी का रस पिला देगा. देखता नहीं है, कितने ही नेता झोलों में मुसम्मी रखे तम्बू के आस-पास घूम रहे हैं."


16 जनवरी

जयप्रकाश बाबू की 'मिशन' फेल हो गई. कोई मानने को तैयार नहीं है. प्रधानमन्त्री ने कहा," हमारी बन्नू के साथ सहानुभूति है, पर हम कुछ नहीं कर सकते. उससे उपवास तुडवाओ, तब शान्ति से वार्ता द्वारा समस्या का हल ढूँढा जाएगा."
हम निराश हुए. बाबा सनकीदास निराश नहीं हुए. उन्होंने कहा," पहले सब मांग को नामंज़ूर करते हैं. यही प्रथा है. अब आन्दोलन तीव्र करो. अखबारों में छपवाओ क बन्नू की पेशाब में काफी 'एसीटोन' आने लगा है. उसकी हालत चिंताजनक है. वक्तव्य छपवाओ कि हर कीमत पर बन्नू के प्राण बचाए जाएँ. सरकार बैठी-बैठी क्या देख रही है? उसे तुरंत कोई कदम उठाना चाहिए जिससे बन्नू के बहुमूल्य प्राण बचाए जा सकें."
बाबा अद्भुत आदमी हैं. कितनी तरकीबें उनके दिमाग में हैं. कहते हैं, "अब आन्दोलन में जातिवाद का पुट देने का मौका आ गया है. बन्नू ब्राम्हण है और राधिकाप्रसाद कायस्थ. ब्राम्हणों को भड़काओ और इधर कायस्थों को. ब्राम्हण-सभा का मंत्री आगामी चुनाव में खड़ा होगा. उससे कहो कि यही मौका है ब्राम्हणों के वोट इकट्ठे ले लेने का."
आज राधिका बाबू की तरफ से प्रस्ताव आया था कि बन्नू सावित्री से राखी बंधवा ले.
हमने नामंजूर कर दिया.


17 जनवरी

आज के अखबारों में ये शीर्षक हैं---
"बन्नू के प्राण बचाओ!
बन्नू की हालत चिंताजनक!'
मंदिरों में प्राण-रक्षा के लिए प्रार्थना!"
एक अख़बार में हमने विज्ञापन रेट पर यह भी छपवा लिया---
"कोटि-कोटि धर्म-प्राण जनता की मांग---!
बन्नू की प्राण-रक्षा की जाए!
बन्नू की मृत्यु के भयंकर परिणाम होंगे !"
ब्राम्हण-सभा के मंत्री का वक्तव्य छप गया. उन्होंने ब्राम्हण जाति की इज्ज़त का मामला इसे बना लिया था. सीधी कार्यवाही की धमकी दी थी.
हमने चार गुंडों को कायस्थों के घरों पर पत्थर फेंकने के लिए तय कर किया है.
इससे निपटकर वही लोग ब्राम्हणों के घर पर पत्थर फेंकेंगे.
पैसे बन्नू ने पेशगी दे दिए हैं.
बाबा का कहना है क कल या परसों तक कर्फ्य लगवा दिया जाना चाहिए. दफा 144 तो लग ही जाये. इससे 'केस' मज़बूत होगा.


18 जनवरी

रात को ब्राम्हणों और कायस्थों के घरों पर पत्थर फिंक गए.
सुबह ब्राम्हणों और कायस्थों के दो दलों में जमकर पथराव हुआ.
शहर में दफा 144 लग गयी.
सनसनी फैली हुई है.
हमारा प्रतिनिधि मंडल प्रधानमन्त्री से मिला था. उन्होंने कहा," इसमें कानूनी अडचनें हैं. विवाह-क़ानून में संशोधन करना पड़ेगा."
हमने कहा," तो संशोधन कर दीजिये. अध्यादेश जारी करवा दीजिये. अगर बन्नू मर गया तो सारे देश में आग लग जायेगी."
वे कहने लगे," पहले अनशन तुडवाओ ? "
हमने कहा," सरकार सैद्धांतिक रूप से मांग को स्वीकार कर ले और एक कमिटी बिठा दे, जो रास्ता बताये कि वह औरत इसे कैसे मिल सकती है."
सरकार अभी स्थिति को देख रही है. बन्नू को और कष्ट भोगना होगा.
मामला जहाँ का तहाँ रहा. वार्ता में 'डेडलॉक' आ गया है.
छुटपुट झगड़े हो रहे हैं.
रात को हमने पुलिस चौकी पर पत्थर फिंकवा दिए. इसका अच्छा असर हुआ.
'प्राण बचाओ'---की मांग आज और बढ़ गयी.


19 जनवरी

बन्नू बहुत कमज़ोर हो गया है. घबड़ाता है. कहीं मर न जाए.
बकने लगा है कि हम लोगों ने उसे फंसा दिया है. कहीं वक्तव्य दे दिया तो हम लोग 'एक्सपोज़' हो जायेंगे.
कुछ जल्दी ही करना पड़ेगा. हमने उससे कहा कि अब अगर वह यों ही अनशन तोड़ देगा तो जनता उसे मार डालेगी.
प्रतिनिधि मंडल फिर मिलने जाएगा.


20 जनवरी

'डेडलॉक '
सिर्फ एक बस जलाई जा सकी.
बन्नू अब संभल नहीं रहा है.
उसकी तरफ से हम ही कह रहे हैं कि "वह मर जाएगा, पर झुकेगा नहीं!"
सरकार भी घबराई मालूम होती है.
साधुसंघ ने आज मांग का समर्थन कर दिया.
ब्राम्हण समाज ने अल्टीमेटम दे दिया. १० ब्राम्हण आत्मदाह करेंगे.
सावित्री ने आत्महत्या की कोशिश की थी, पर बचा ली गयी.
बन्नू के दर्शन के लिए लाइन लगी रही है.
राष्ट्रसंघ के महामंत्री को आज तार कर दिया गया.
जगह-जगह- प्रार्थना-सभाएं होती रहीं.
डॉ. लोहिया ने कहा है क जब तक यह सरकार है, तब तक न्यायोचित मांगें पूरी नहीं होंगी. बन्नू को चाहिए कि वह सावित्री के बदले इस सरकार को ही भगा ले जाए.


21 जनवरी

बन्नू की मांग सिद्धांततः स्वीकार कर ली गयी.
व्यावहारिक समस्याओं को सुलझाने के लिए एक कमेटी बना दी गई है.
भजन और प्रार्थना के बीच बाबा सनकीदास ने बन्नू को रस पिलाया. नेताओं की मुसम्मियाँ झोलों में ही सूख गईं. बाबा ने कहा कि जनतंत्र में जनभावना का आदर होना चाहिए. इस प्रश्न के साथ कोटि-कोटि जनों की भावनाएं जुड़ी हुई थीं. अच्छा ही हुआ जो शान्ति से समस्या सुलझ गई, वर्ना हिंसक क्रान्ति हो जाती.
ब्राम्हणसभा के विधानसभाई उमीदवार ने बन्नू से अपना प्रचार कराने के लिए सौदा कर लिया है. काफी बड़ी रकम दी है. बन्नू की कीमत बढ़ गयी.
चरण छूते हुए नर-नारियों से बन्नू कहता है," सब ईश्वर की इच्छा से हुआ. मैं तो उसका माध्यम हूँ."
नारे लग रहे हैं -- सत्य की जय! धर्म की जय!

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