Tuesday, February 28, 2012

गुलबर्ग सोसाइटी




"गोधरा में ट्रेन जलाये जाने के बारे में जब सुना तब मेरे बच्चे ट्यूशन में थे. घर पर टीवी चल रहा था पर उस समय मैंने ज़्यादा तवज्जो नहीं दी. मेरे पति ने, जो फिल्म प्रोजेक्शनिस्ट हैं, अपने ऑफिस से फ़ोन करके बताया कि हिंसक वारदातें होने की खबर है और हम लोग सावधान रहें. मैं अपने बच्चों को घर ले आई. फिर हमने अपने पड़ोसियों को चिंतित अवस्था में बाहर निकलते देखा. हमारी कालोनी छोटी और घेरेबंद सी है और अपने फ्लैट से मैं पास की छतों पर लोगों को इकठ्ठा होते देख रही थी. तभी मैंने हाथ में गुप्ती लिए एक आदमी को हमारी ओर इशारा करते देखा- मुझे फ़िक्र हुई."
"हम लोग जाफ़री साहब के घर पर इकठ्ठा होना शुरू हुए. वे सांसद थे और हमें यकीन था कि वे मदद जुटा लेंगे. एकाएक सैकड़ों आदमी दीवारें खरोंच रहे थे और सोसायटी में घुस रहे थे. उनके पास केमिकल्स की सैकड़ों छोटी-छोटी शीशियाँ थीं - जो नेल पॉलिश की शीशियों जैसी लग रही थीं, और जो उन्होंने हमारे घर में फेंकीं. ज़मीन पर पड़ते ही शीशियाँ आग की लपटें उगलते हुए फट पड़तीं. भीड़ ने बड़ी चतुराई से ऊपर लगी टंकियों से हो रही पानी की सप्लाई काट डाली ताकि हम किसी भी तरह आग न बुझा पाएँ. उन लोगों ने जाफ़री साहब के घर का घेराव करना शुरू किया और उन्हें बाहर आने को कहने लगे. हम 30-40 लोग छुपे हुए थे, और हमने गैस सिलेंडरों को छुपाने की कोशिश की ताकि केमिकल्स उनसे न टकरा जाएँ. वे दीवारें उड़ाने के लिए सिलेंडरों का इस्तेमाल कर रहे थे. इस बीच बाहर भीड़ हमारे पड़ोसियों को क़त्ल कर रही थी. हमें औरतों के चीखने की आवाज़ें सुनाई दे रही थीं- बाद में पता चला कि उनमें से कई औरतों के साथ बलात्कार किया गया."
"शाम तक लगभग हर कमरे में आग लग चुकी थी. घर के पीछे छत पर जाने के लिए एक सीढ़ी लगी थी. बाहर निकलने का रास्ता खोजते  हम सीढ़ी चढ़ने लगे. धुएँ की वजह से तब तक कई लोग अचेत हो गए थे. मैंने जाफ़री साहब को कहते हुए सुना, 'अगर तुम्हारी जान बच जाती है तो मर जाने दो मुझे.' वह हमने सुना हुआ उनका आखिरी वाक्य था. उन्हें भीड़ ने मार डाला. उस वक़्त मेरे दोनों बच्चे मेरे साथ थे. उस हो-हल्ले में मैं गिर पड़ी. "
"गिरते वक़्त मैं मेरी बेटी को चिल्लाते हुए सुना - मम्मी उठो, मम्मी उठो. जितनी देर हम जाफ़री साहब के घर छुपे हुए थे मेरी बेटी ने मेरे बेटे अज़हर का हाथ थाम रखा था. मुझे बचाने के लिए उसे अज़हर का हाथ छोड़ना पड़ा. जब मैं उठी तो केवल अपनी बेटी  बिनइफ़र को देखा, अज़हर नहीं था. हम चिल्लाते रहे अज्जू! अज्जू! पर वह नहीं मिला. आख़िरकार हम छत पर चढ़ गए पर वहां भी अज़हर नहीं मिला. मैं वापिस नीचे जाने लगी मगर हर किसी ने कहा कि भीड़ मुझे मार डालेगी. ज़कियाबेन ने फिर भी कहा, 'उसे जाने दो- वह एक माँ है.' आखिर जब मदद पहुंची तो हमें बताया गया कि अज़हर से मिलते-जुलते हुलिए वाला एक बच्चा साईबाग पुलिस स्टेशन में है. मैं अज्जू! अज्जू! चिल्लाते हुए पुलिस स्टेशन में घुसी पर वह लड़का अज्जू नहीं था. तब से अब तक मैंने उसे खोजना नहीं छोड़ा."
"हम लगभग दो हफ़्तों बाद गुलबर्ग सोसाइटी वापिस गए. पूरी कालोनी जला दी गई थी. विडम्बना यह कि हमारा घर सही-सलामत था. शायद इसलिए कि दीवार पर माता की एक तस्वीर थी और उन्होंने सोचा होगा कि यह एक हिन्दू का घर है. कभी-कभी मैं सोचती हूँ कि अगर हमने अपना घर नहीं छोड़ा होता तो हम सलामत होते और अज़हर भी मेरे पास होता."

गुलबर्ग सोसाइटी हत्याकांड के बारे में रूपा (तनाज़) मोदी की फ्रंटलाइन से बातचीत, राहुल ढोलकिया की फिल्म 'परज़ानिया'  उनके अनुभवों पर आधारित है.
हिन्दी अनुवाद भारतभूषण तिवारी का है।

3 comments:

दीपिका रानी said...

आज भी ऐसे संस्मरण पढ़कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। लोग इंसानियत का धर्म कैसे छोड़ देते हैं।

वर्षा said...

डर लग गया, जो हम पढ़ रहे हैं, वो किसी पर बीता है, बेहद ख़ौफ़नाक, इतना कि शब्द उसे ठीक से बता नहीं सकते।

प्रदीप कांत said...

क्या इस खौफनाक को पढकर कोई प्रतिक्रिया दी जा सकती है?