Friday, February 12, 2010
प्रतिरोध का सिनेमा
फोटो 1- दास्तानगोई प्रस्तुत करते राणा प्रताप और उस्मान शेख
फोटो 2- गोरखपुर फ़िल्म फ़ेस्टिवल में सईद मिर्ज़ा
चार दिनों तक चलने वाला पांचवां गोरखपुर फ़िल्म फ़ेस्टिवल ४ फ़रवरी,२०१० के दिन समानांतर सिनेमा के अद्वितीय फ़िल्मकार सईद मिर्ज़ा द्वारा उदघाटन के साथ शुरु हुआ. मंच पर उनके साथ फ़िल्मकार कुंदन शाह , जसम के उपाध्यक्ष अजय कुमार और महासचिव प्रणय कृष्ण मौजूद थे. उदघाटन सत्र में ही फ़िल्मोत्सव की स्मारिका का विमोचन हुआ जिसमें दिखाई जाने वाली फ़िल्मों और उनसे जुड़े विमर्शों पर अनेक सुंदर लेख संगृहीत हैं. जन पक्षधर पत्रकार अमितसेन गुप्त के चुनिंदा लेखों के संग्रह "Colour of Gratitude is Green" का विमोचन भी सईद मिर्ज़ा ने किया. यह समारोह विख्यात मानवाधिकारवादी के. बालगोपाल और विख्यात मराठी कवि दिलीप चित्रे की स्मृति को समर्पित था. हरेक कार्यकर्ता के चेहरे पर इस बात का वाजिब गर्व झलकता था कि पांचवें साल लगातार तो यह समारोह गोरखपुर में हो ही रहा था, साथ ही इन सालों में ये 'मूविंग फ़िल्म फ़ेस्टिवल' की तर्ज़ पर लखनऊ,पटना, भिलाई, नैनीताल और तमाम छोटे कस्बों तक पहुंचा, वह भी बगैर कारपोरेट, सरकारी या फ़िर एन.जी.ओ. स्पांसरशिप के, संस्कृतिकर्मियों की और जनता की भागीदारी की बदौलत. जन संस्कृति मंच और गोरखपुर फ़िल्म सोसायटी के तत्वावधान में आयोजित होने वाला यह फ़ेस्टिवल कभी भी शुद्धत: फ़िल्मों तक सीमित नहीं रहा है. हर साल इसमें चित्रकला, काव्य-पाठ, नाटक, नृत्य, संगीत, बहस-मुबाहिसे का समावेश रहता है. इस बार भी यह महमूद फ़ारुकी की टीम द्वारा प्रस्तुत 'दास्तानगोई'( कहानी कहने की एक खास पुरानी परंपरा) से शुरु हुआ और असम के क्रांतिकारी लोक-गायक लोकनाथ गोस्वामी के गायन से ७ फ़रवरी को समाप्त हुआ. बीच में, दूसरे दिन श्री जवरीमल्ल पारेख के आलेख "आम आदमी का सिनेमा बनाम सिनेमा का आम आदमी" पर और तीसरे दिन तरूण भारती के लेक्चर-डिमांस्ट्रेशन "बहस की तलाश और डाक्यूमेंट्री संपादन की राजनीति' पर दर्शक समुदाय ने बहस मे अच्छी-खासी तादाद में शिरकत की. फ़िल्मकार सईद मिर्ज़ा, कुंदन शाह ( 'जाने भी दो यारों' जैसी प्रसिद्ध हास्य-फ़िल्म के निर्माता), देबरंजन सारंगी, आनंदस्वरूप वर्मा, अतुल पेठ,अनुपमा श्रीनिवासन, प्रमोद सिंह और तरुण भारती लगातार दर्शकों से रू-ब-रू रहे और इस अंत:क्रिया ने दर्शकों में फ़िल्म की समझ में ज़रूर इज़ाफ़ा किया. मालूम हो कि जन संस्कृति मंच द्वारा किए जाने वाले फ़िल्मोत्सवों की लगातार स्थायी मेगाथीम है 'प्रतिरोध का सिनेमा', लेकिन इस वृहत्तर थीम के अंतर्गत हर फ़िल्मोत्सव किसी विशेष थीम पर केंद्रित होता है जैसे कि इस बार का उत्सव 'समाज के हाशिए' पर ढकेले जा रहे लोगों की बढ़ती तादाद पर केंद्रित था. फ़िल्मों का चयन, सईद मिर्ज़ा का उदघाटन वक्तव्य और जसम के महासचिव का अध्यक्षीय वक्तव्य इसी थीम पर केंद्रित थे. इस बार मह्त्वपूर्ण बात यह भी थी कि फ़िल्मोत्सव में ही चार फ़िल्मों के प्रीमियर (प्रथम प्रदर्शन) हुए. ये फ़िल्में थीं 'इन कैमरा' (रंजन पालित), नेपाल की राजशाही को समाप्त करने वाली लोकतांत्रिक क्रांति पर आधारित 'बर्फ़ की लपटें' ( आनंदस्वरूप वर्मा और आशीष श्रीवास्तव), 'ग्लोबल शहर से चिट्ठे' ( सुरभि शर्मा) तथा कंधमाल में साम्प्रदयिक हिंसा और कारपोरेट पूंजी द्वारा लाए जा रहे आदिवासियों के विस्थापन के अंतर्संबंधों की पड़ताल करती "टकराव: किसकी हानि, किसका लाभ'( देबरंजन सारंगी) .
सईद मिर्ज़ा ने पहले ही दिन कहा कि हिंदी में न्यू वेव सिनेमा का अंत १९९० के दशक के भूमंडलीकरण, निजीकरण और उदारीकरण की नीतियों के ज़रिए हुआ. इन नीतियों के निर्माताओं ने देश और समाज में सेंसेक्स की उछाल से तय होने वाले विकास औए अंधाधुंध बाज़ारीकरण को लोकतंत्र का नाम दिया जबकि इसने लोकतंत्र को और कमज़ोर बनाया तथा गरीबों की तादाद में बेतहाशा वृद्धि की. यह समाज के अमानवीयकरण की प्रक्रिया थी.सारे बुनियादी मुद्दों को राजनैतिक सर्वानुमति से हाशिए पर डाल दिय गया और उनकी जगह भावनात्मक और विभाजनकारी मुद्दों की राजनीति का युग शुरु हुआ. ऎसे में आम आदमी के सिनेमा को चोट तो पहुंचनी ही थी. सिनेमा समाज से अलग नहीं होता. आज सार्थक और सोद्देश्य सिनेमा को भला कौन सा साबुन, कौन सा तेल और कौन सी कार स्पांसर करेगी? सार्थक और सोद्देश्य सिनेमा को जनता के आंदोलनों के साथ ही बढ़ना होगा, क्योंकि न तो सरकार और न ही कारपोरेट घरानों को इसकी कोई ज़रूरत है. सईद ने बातचीत के दौरान प्राकृतिक संसाधनों की कारपोरेट लूट के विरोध का दमन 'आपरेशन ग्रीनहंट' जैसे तरीकों से किए जाने की घोर भर्त्सना की. उन्होंने गोरखपुर फ़िल्म फ़ेस्टिवल को आज के सिनेमाई परिड्रुश्य में रामायण और महाभारत के बीच 'नुक्कड़'( सईद द्वारा निर्मित प्रसिद्ध टेलिसीरियल) की उपमा दी. सईद ने कहा कि वे एक 'लेफ़्टिस्ट सूफ़ी' कहलाना पसंद करेंगे. यह भी कहा कि १९९६ के बाद उन्होंने फ़िल्में इसलिए नहीं बनाईं कि वे एक अंतर्यात्रा पर हैं. ऎसे में उन्होंने कैमरा रखकर कलम उठा ली है और उपन्यास लिखा है. 'अम्मी: लेटर टू ए डिमोक्रेटिक मदर' उनका आत्मकथात्मक उपन्यास मां की यादों, सूफ़ी नीतिकथाओं और बचपन की स्मृतियों के ताने-बाने से बुना हुआ है.
प्रणय कृष्ण ने अध्यक्षीय संबोधन में कहा कि सिर्फ़ न्यू वेव सिनेमा ही नहीं , बल्कि किसान आंदोलन, ट्रेड यूनियन आंदोलन और तमाम मूल्य भी भूमंडलीकरण की मार से हाशिए पर गए हैं. नौजवानों के भीतर आदर्शवाद, मध्यवर्ग के भीतर गरीबों के प्रति करुणा, बुद्धिजीवियों के भीतर ईमान और जनता के बीच एकजुट हो लड़ने की क्षमता भी हाशिए पर गई है. फ़िर भी जगह जगह भारत के भूमंडलीकरण के दूसरे दौर में लोग बगैर किसी संगठित पार्टी या विचार के भी लड़ने उठ खड़े हो रहे हैं. कलिंगनगर, मणिपुर की मनोरमा से लेकर लालगढ़ तक संघर्षरत जन हम संस्कृतिकर्मियों को हाथ हिला-हिलाकर बुला रहे हैं. हमें उनके पास जाना है और उन्हें अपने रचनाकर्म में लाना है.
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12 comments:
एक अच्छा लेख पढ़ने को मिला. जानकारी भरा..
बढ़िया जानकारी भरा आलेख है।आभार।
पढ़कर अच्छा लगा कि संस्कृति की दुनिया में गोरखपुर नए आयाम खोल रहा है.
आयोजकों को सफल आयोजन के लिए बधाई।
ये हलचले बनी रहे और रोज़-रोज़ कुछ और विस्तृत हो!
अच्छी रपट. 'आपरेशन ग्रीनहंट' की भर्त्सना के साथ-साथ अगर माओवाद, अलगाववाद के विरोध के स्वर भी सुनाई देते तो वक्ता के मंतव्य पर यकीन आसानी से हो जाता वरना तो एक महंगे प्रचार के विरुद्ध दूसरा सस्ता प्रचार जैसा ही लगता है.
जिन खोजा तिन पाईयां .......क्या बात है....!
मेरे ब्लॉग पर भी कुछ है जो आपसे मिलता जुलता है आइये तशरीफ़ लाईये शायद अच्छा लगे....!
इस ठण्डे दौर में, गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल लगातार पांचवे वर्ष आयोजित किया गया, यह सुखद लगता है।
आपके ब्लॉग के जरिए वहां की हलचल की जानकारी मिली, धन्यवाद।
आपका स्वास्थ्य कैसा है....
फ़िल्मकार सईद मिर्ज़ा के अनुसार हिंदी में न्यू वेब सिनेमा का अंत १९९० के दशक में हुआ . उन्होंने यह भी बताया है १९९६ के बाद सिनेमा इसलिए नहीं बनाया की वह उपन्यास लिखने लगे . इन दोनों जान्कारिओं के बाद प्रतिरोध के सिनेमा को लेकर मेरे मन में कई सवाल उठने लगे हैं . हालाँकि पहले भी सवाल कम नहीं थे लेकिन इस फिल्म महोत्सवा के साथ जरूर उठ रहे हैं . हालाँकि अभी भी कई फ़िल्में ऐसी बन रही है जिन्हें प्रतिरोध का सिनेमा कहा जा सकता है लेकिन क्या वह उस आम आदमी तक पहुँच पति हैं . जाहिर है नहीं . इस तरह के फिल्मोत्सव एक प्रयास कहे जा सकते हैं लेकिन इनकी अधिक सार्थकता तब होती जब इनके दर्शकों की संख्या बढाई जा सकती . मुझे लगता है इस उपलब्धि के बावजूद की यह लगातार आयोजित हो रहा है, आम लोगों के बीच जा पता तो इसकी सार्थकता कहीं अधिक होती . एक बात और . जन संस्कृति मंच के महासचिव प्रणय कृष्ण का यह कहना की न्यू वेब सिनेमा हाशिए पर चला गया है एक सच अवश्य है लेकिन उनकी बात में इसे आगे बढ़ाने की कोई कोशिश नहीं नजर नहीं आती . उनका यह भी कहना की बुधिजीविओं के भीतेर इमान और जनता के बीच एकजुट होकर लड़ने की छमता भी हाशिए पर है . फिर भी लोग बिना किसी पार्टी या विचार के लड़ने को तयार हो रहे हैं .हमें उनके पास जाना है और उन्हें अपने रचनाकर्म में लाना है .दरअसल येही नहीं हो रहा है . इस तरह के फिल्मोत्सवों की सार्थकता भी तभी होगी वरना कुछ गिने -चुने लोग ही इसके दर्शक होंगे और खुश हो जाया करेंगें की हमने कुछ किया . कहीं जिआदा अच्छा होता की प्रणय कृष्ण और उनका जन संस्कृति मंच कोई ऐसा व्यापक कार्यक्रम बनता जिससे सिनेमा वाकई प्रतिरोध का सिनेमा बन पता और वह प्रतिरोध खड़ा कर पता . आनंदस्वरूप वर्मा की फिल्म की चर्चा तो सुनी पर अभी तक देख न पाने का मलाल है . कोशिश करूंगा की मिले तो देखूं .
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khalida a khan
भाई जान आप कि नयी रपट अच्छी लगी ! प्रतिरोध सिनेमा लोग ता पहुच रहा ये सुन का अच्छा लगा अब हमें कुछ नए हथियार खोजने होगे ........उसके लिए अच्छी कोशिश है आपरेशन ग्रीनहंट का विरोध जरुरी है .........अच्छे लेख के लिए बधाई भाईजान
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