पेरी एंडरसन की किताब `द इंडियन आइडियोलॉजी` का टुकड़ा-
1945 तक गांधी का युग ख़त्म हो कर नेहरू का ज़माना शुरू हो गया था. दोनों के बीच के फ़र्कों पर बात करने की मानो परम्परा सी रही है, पर इन फ़र्कों का स्वतंत्रता के संघर्ष के परिणाम से सम्बन्ध ज्यादातर अँधेरे में रहा है। न ही वे फ़र्क़ हमेशा साफ़-साफ़ पकड़ में आते हैं। नेहरू एक पीढ़ी छोटे, देखने में सुन्दर, काफी ऊँचे सामाजिक वर्ग से आये, पश्चिम की अभिजात शिक्षा प्राप्त, धार्मिक विश्वासों से रहित थे और उनके कई प्रेमसंबंध भी थे, ये बातें सभी को पता है। गांधी के साथ उनका अनोखा सम्बन्ध यहाँ राजनीतिक तौर पर ज़्यादा प्रासंगिक है। राष्ट्रीय आन्दोलन में अपने अमीर पिता,जो 1890 के दशक से ही काँग्रेस के स्तम्भ थे, द्वारा भर्ती करवाए गए नेहरू पर गांधी का जादू तब चला जब वे तीस की उम्र के करीब थे और जब उनके अपने राजनीतिक विचार उतने विकसित नहीं हुए थे। एक दशक पश्चात जब उन्होंने स्वतंत्रता और समाजवाद की संकल्पनाएँ ग्रहण कर ली थीं जिन से गांधी इत्तफाक़ नहीं रखते थे,और लगभग चालीस के हो चुके थे तब भी वे गांधी को लिख रहे थे: 'क्या मैं आप ही की राजनीतिक औलाद नहीं हूँ, गो कि किसी क़दर नाफ़रमाँ-बरदार और बिगड़ी औलाद?' वल्दियत वाली बात अपनी जगह सही है; पर नाफ़रमानी (या अवज्ञा) दरअसल नाफ़रमानी कम, नख़रा ज़्यादा था। बहुतों की तरह 1922 में गांधी द्वारा असहयोग आन्दोलन की हवा निकाल देने से हताश, 1932 में अछूतों का निर्वाचन मंडल शुरू करने के खिलाफ़ उनके अनशन से निराश, 1934 में सविनय अवज्ञा आन्दोलन को स्थगित करने के गांधी के कारणों से चकित, नेहरू फिर भी हर बार अपने सरपरस्त के फ़ैसले के आगे अपने आप को झुका देते।
राष्ट्रीय आन्दोलन का पवित्रीकरण? 'हमारी राजनीति में इस धार्मिक तत्व के बढ़ने से मैं कभी-कभी परेशान हो जाता,' मगर ' मुझे अच्छी तरह पता था कि उसमें कोई और चीज़ है, जो मनुष्यों की गहन आतंरिक लालसा की पूर्ति करती है।' असहयोग आन्दोलन की असफलता? 'आखिर वे (गांधी) इसके लेखक और प्रवर्तक थे, और वह आन्दोलन क्या था और क्या नहीं इस बात का निर्णय उन से बेहतर कौन कर सकता था। और उनके बिना हमारे आन्दोलन का अस्तित्व ही कहाँ था?' पूना का आमरण अनशन? 'दो दिनों तक मैं अन्धकार में था और आशा की कोई किरण नहीं नज़र आती थी, गांधीजी जो कर रहे थे उस काम के चंद परिणामों के बारे में सोच कर मेरे दिल बैठता जाता ...फिर एक अजीब सी बात हुई। एकदम भावनात्मक संकट जैसा हुआ और उसके बाद मुझे शान्ति महसूस हुई और भविष्य उतना अंधकारमय नहीं लगा। मनोवैज्ञानिक क्षण में सही चीज़ करने का अद्भुत कौशल गांधीजी के पास था, और मुमकिन है कि उनके किये के - जिसे सही ठहराना मेरे दृष्टिकोण से नामुमकिन सा था- बहुत अच्छे परिणाम होंगे।' और वह दावा कि बिहार में भूकंप भेज कर ईश्वर ने सविनय अवज्ञा आन्दोलन के प्रति अप्रसन्नता दर्शाई थी? बापू की घोषणा ने नेहरू को उनके विश्वास के 'लंगर से दूर खदेड़ दिया' मगर यह मानकर कि उनके सरपरस्त का किया सही है उन्होंने 'जैसे तैसे समझौता कर लिया।' क्योंकि 'आख़िरकार गांधीजी क्या ही अद्भुत व्यक्ति थे।' ये सारी घोषणाएँ 1936 के ज़माने की हैं जब नेहरू अपने समूचे कैरियर के किसी भी कालखंड के मुकाबले राजनीतिक तौर पर सबसे ज़्यादा रैडिकल थे इतने कि कम्यूनिस्ट विचारधारा के प्रति झुकाव रखते थे।1939 के आते आते वे सीधे-सीधे यह प्रमाणित कर रहे थे: 'भारत का उनके (गांधी के) बिना कुछ नहीं होगा।'
मनोवैज्ञानिक अवलंब की इस मात्रा में अलग-अलग सूत्र आपस में गुंथे हुए थे। नेहरू के गांधी के प्रति संतानवत विमोह में कुछ अनोखा नहीं था। मगर नेहरू के प्रति गांधी के अभिभावकीय स्नेह की गहराई - जो उन्होंने अपनी संतानों के प्रति विशेष सख्ती बरतते हुए अमूमन नहीं दिखाई- अप्रतिम थी। इन भावनात्मक बंधनों में परस्पर हितों का गणित भी समाविष्ट था। जब तक वे काँग्रेस के दायरे में रह कर काम करते रहे, गांधी नेहरू पर यह भरोसा कर सकते थे कि वे वयस्क राजनीतिक मुद्दे उनके समक्ष नहीं उठाएँगे, जबकि गांधी के प्रिय होने की वजह से नेहरू यह मान कर चल सकते थे कि वे काँग्रेस की अगुआई करने और आज़ादी के बाद देश पर राज करने में अपने प्रतिद्वंद्वियों को पीछे छोड़ देंगे। फिर भी उन दोनों के बीच क्या उतनी भी बड़ी बौद्धिक खाई थी ही नहीं? एक बुनियादी सन्दर्भ में वास्तव में एक खाई थी। गांधी के अलौकिक स्वप्नों और दुनियावी अप्रचलितों की खातिर नेहरू के पास वक़्त नहीं था। उद्योगों और आधुनिकता के फायदों में उनका पूरी तरह लौकिक स्तर पर भरोसा था। फिर भी जब तक राजसत्ता पहुँच से दूर थी तब तक यह विभाजन रेखा उतनी महत्त्वपूर्ण न थी । जहाँ तक ब्रिटिश राज के तहत राष्ट्रीय आन्दोलन के राजनीतिक नज़रिए का सम्बन्ध है, तो गुरु और चेले में उनकी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के विभेद की बनिस्बत बहुत कम फर्क़ है।
गांधी के यहाँ पुस्तकीय ज्ञान अधिक न था। लन्दन में उन्हें कानून की अपनी पाठ्य-पुस्तकें रुचिपूर्ण लगीं- संपत्ति कानून पर आधारित पुस्तिका को पढ़ना 'उपन्यास पढ़ने जैसा था' - मगर बेन्थम को समझना बेहद मुश्किल था। दक्षिण अफ्रीका में उन्हें इल्हाम हुआ रस्किन और टॉल्सटॉय की पुस्तकों का. भारत में जेल में वे इस नतीजे पर पहुंचे कि गिबन महाभारत का घटिया संस्करण है और यह कि वे स्वयं पूँजी को मार्क्स से बेहतर लिख सकते थे। जहाँ पर आकर उनकी दृष्टि जमी वह थीं वे चंद पुस्तकें जो उन्होंने हिन्द स्वराज लिखना शुरू करने से पहले तक पढ़ रखी थीं और कुछ गिनी-चुनी हिन्दू क्लासिक्स। दक्षिण अफ्रीका छोड़ते समय दुनिया के बारे में उनके मूलभूत विचार मूलतः परवान चढ़ चुके थे। सत्य और किताबों में नहीं बल्कि खुद उनमें मौजूद था। एक भारतीय आलोचक ने 'एक अधभरे दिमाग की ऐसी समाश्वस्तता' के खतरों के प्रति आगाह करते हुए लिखा था कि 'गांधी जैसी बेफिक्र स्वच्छंदता से प्रथम पुरुष का इस्तेमाल करने वाला, लगभग वैसी ही परिस्थितियों में रहा हुआ दूसरा कोई भी व्यक्ति बहुत खोजने पर भी मुझे नहीं मिला।'
गांधी को जो उच्च शिक्षा नहीं मिली थी वह नेहरू को हासिल हुई,और वह बौद्धिक विकास भी जिसमें अत्यधिक धार्मिक आस्था ने अड़ंगा नहीं डाला था। लेकिन इन सुअवसरों का जो प्रतिफलन हुआ वह अपेक्षा से कम था। प्रतीत होता है कि उन्होंने केम्ब्रिज में बहुत कम सीखा, जैसे-तैसे प्राकृतिक विज्ञान में मीडियोकर डिग्री हासिल की जिसका बाद में नामोनिशां तक न रहा, वकालत के इम्तहानों में उनका प्रदर्शन ठीक नहीं रहा, और लौटने पर अपने पिता के नक्शेकदम पर चलते हुए वकालत की प्रैक्टिस में भी उन्हें कोई ख़ास सफलता नहीं मिली। केम्ब्रिज में दर्शन के मेधावी छात्र रहे सुभाष चन्द्र बोस, जो आईसीएस के एलीट ओहदे की परीक्षा पास करने वाले और फिर देशभक्ति की वजह उसमें प्रवेश करने से इनकार करने वाले पहले देशी थे, के साथ नेहरू का कॉन्ट्रास्ट ध्यानाकर्षक है।मगर एक मामूली किस्म का आगाज़ आगे आने वाली बहार को नहीं रोक सकता, और नेहरू समयानुसार एक समर्थ वक्ता और सफल लेखक बन गए। मगर फिर भी वे नाम मात्र की भी साहित्यिक अभिरुचि या बौद्धिक अनुशासन नहीं हासिल कर पाए। उनकी सबसे महत्त्वाकांक्षी कृति दि डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया, जो 1946 में शाया हुई थी, श्वेर्मराई (अति भावुकता) के वाष्प-स्नान जैसी है। अछूतों के नेता आम्बेडकर बौद्धिक स्तर में काँग्रेस के बहुत से नेताओं से काफी ऊपर थे और कुछ हद तक जिसका कारण लन्दन स्कूल ऑफ़ इकॉनॉमिक्स और कोलंबिया विश्वविद्यालय में हुई उनकी गंभीर शिक्षा-दीक्षा थी। उनसे नेहरू की तुलना करना उचित नहीं होगा। आम्बेडकर को पढ़ना मतलब किसी दूसरी दुनिया में प्रवेश करना है। दि डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया - और उसकी पूर्ववर्ती कृति दि यूनिटी ऑफ़ इंडिया को तो रहने ही दीजिये- न केवल उनमें औपचारिक विद्वत्ता की कमी और रूमानी मिथकों के प्रति उनकी लत को दर्शाती है,बल्कि उस से भी कुछ गहरी बात जो बौद्धिक से ज़्यादा मनोवैज्ञानिक सीमा है: खुद को धोखा देने का ऐसा सामर्थ्य जिसके दूरगामी राजनीतिक परिणाम सामने आये।
'भारत मेरे खून में था और उसमें ऐसा बहुत कुछ था जो सहज रूप से मुझे रोमांचित करता था,' वे अपने पाठकों से कहते हैं।
वह बहुत ही प्यारा है और उसकी संतानें उसे नहीं भुला सकतीं चाहे वे कहीं भी चले जाएँ या उन पर कैसी भी विपत्तियाँ आयें. क्योंकि वह अपनी महानता और कमजोरियों में भी उनका हिस्सा है, और उसकी संतानों का अक्स उसकी गहरी आँखों में है जिन्होंने बहुत कुछ जीवन का आवेग, हर्ष और मूर्खता को देखा है और ज्ञान के कुएँ में भी झाँका है।
समूची डिस्कवरी ऑफ़ इण्डिया पुस्तक इस किस्म की बिलकुल नहीं है। मगर बारबरा कार्टलैंड (अपने रोमांटिक उपन्यासों के मशहूर बीसवीं सदी की एक प्रमुख अंग्रेज़ लेखिका) प्रवृत्ति सतह से कभी दूर न थी:
शायद अब भी हम प्रकृति के रहस्यों को अनुभव कर पाएँ, और उसके जीवन और सौंदर्य राग को सुन पाएँ, और उस से सत हासिल कर पाएँ. यह राग चुनिन्दा जगहों पर नहीं गाया जाता,और अगर उसे सुन सकने वाले कान हमारे पास हों तो हम उसे लगभग कहीं भी सुन सकते हैं। मगर कुछ जगहें होती हैं जहाँ वह उन्हें भी लुभा लेता है जो उसके लिए तैयार नहीं होते और कहीं दूर बज रहे तेज़ वाद्य के गहरे स्वरों की तरह आता है। ऐसी ही पसंदीदा जगहों में है कश्मीर, जहाँ सुन्दरता का बसेरा है और एक इंद्रजाल हमारे होश फाख्ता कर देता है।
ऐसा गद्य लिखने वाले दिमाग़ से राष्ट्रीय आन्दोलन के सामने खड़ी कठिनाइयों के बारे में अधिक यथार्थवाद दिखाने की उम्मीद नहीं की जा सकती।
जब गांधी डॉ आम्बेडकर को यह मांग स्वीकार करने के लिए ब्लैकमेल कर रहे थे कि अछूतों के साथ जाति व्यवस्था के परित्यक्तों की तरह नहीं बल्कि उसी के अंतर्गत निष्ठावान हिन्दुओं के तौर बर्ताव किया जाएगा, तब नेहरू ने आम्बेडकर के समर्थन में या उनके प्रति एकजुटता दर्शाने वाला एक भी लफ्ज़ न कहा। गांधी अनशन पर थे और बावजूद इसके कि तब अछूतों का भविष्य एक गौण बात थी, जैसे कि नेहरू ने बड़े ज़ोरदार तरीके से उसे खारिज कर दिया, उनका चुप रहना काफी था. हालाँकि यहाँ पर, जिस किसी मुद्दे पर वे राजनीतिक स्टैंड लेते थे उस के विषय में गांधी के साथ असहमति प्रदर्शित करने को लेकर एक मामूली सी अनिच्छा वाला मामला भर नहीं था। नेहरू, जैसा कि उन्होंने कई बार स्वयं माना है, आस्तिक नहीं थे: हिन्दू धर्म के सिद्धांतों की उनकी नज़र में बहुत कम या नहीं के बराबर कीमत थी। मगर गांधी की ही तरह एकदम सरल तौर पर वे धर्म को राष्ट्र से जोड़ते थे यह कहते हुए कि 'हिन्दू धर्म राष्ट्रवाद का प्रतीक बन गया था। वह वास्तव में राष्ट्रीय धर्म था जिसकी नस्ली और सांस्कृतिक, सभी गहन प्रवृत्तियों को आकर्षित करने की क्षमता थी और यही चीज़ आज हर तरफ राष्ट्रवाद की बुनियाद बनी है।' उसके विपरीत बौद्ध धर्म भारत में उत्पन्न होने के बावजूद इसलिए पिछड़ गया क्योंकि वह 'अनिवार्यतः अंतर्राष्ट्रीय' था। इस्लाम, जो भारत में उपजा भी नहीं था, तो और भी कम राष्ट्रीय था।
इसका नतीजा यह हुआ कि जिस व्यवस्था के हिन्दू धर्म की आधारशिला होने की बात पर गाँधी जोर देते थे और जिसने पूर्वेतिहास में उसे बिखरने से बचाया था, उसे सजीले रूप में पेश करना ज़रूरी था। बेशक जाति के अपने विकृतियाँ (कुरुपताएँ) थीं और गांधी को भी यह बात तस्लीम करनी पड़ी। नेहरू ने बतलाया था कि वृहत परिप्रेक्ष्य में मगर भारत को उसके लिए शर्मिंदा होने की ज़रूरत नहीं थी। 'जाति कार्य और प्रयोजन पर आधारित एक समूह व्यवस्था थी। उसका मतलब था एक सर्व-समावेशी व्यवस्था जिसमें कोई साझा सिद्धांत न हो और हर समूह को पूरी स्वतंत्रता मिले।' सौभाग्य से जिस चीज़ ने यूनानियों को अक्षम बनाया था वह इसमें नहीं थी और 'यह निम्नतम स्तर वालों के लिए दासप्रथा के मुकाबले बहुत ज़्यादा बेहतर थी। हर जाति के अंतर्गत समानता और कुछ हद तक स्वतंत्रता थी; हर जाति उपजीविकाजन्य थी और स्वयं को अपने विशिष्ट कार्य में प्रयुक्त करती थी। इस कारण दस्तकारी और शिल्पकारिता में ऊंचे दर्जे की विशेषज्ञता और कौशल पैदा हो पाया वह भी उस समाज व्यवस्था के अंतर्गत जो प्रतिस्पर्धात्मक और अर्जनशील नहीं थी।' वास्तव में किसी हाइरार्की के सिद्धांत को मूर्त रूप देने से बहुत दूर जाकर जाति ने 'हर समूह में लोकतांत्रिक प्रवृत्ति बनाये रखी।' बाद की पीढ़ियाँ, जिन्हें यह मानने में दिक्कत पेश आ रही होगी कि नेहरू ने ऐसी भयावह बातें लिखी हैं, उन परिच्छेदों की ओर इशारा कर सकती हैं जहाँ उन्होंने जोड़ा था कि 'वर्तमान समाज के सन्दर्भ में' - (कालखंड रहित) अतीत के विपरीत- जाति 'प्रगति की अवरोधक' बन गई थी, जो राजनीतिक या आर्थिक लोकतंत्र से सुसंगत नहीं थी। जैसा कि आम्बेडकर ने बड़े तीखेपन से नोट किया था, नेहरू ने अस्पृश्यता का कभी ज़िक्र भी नहीं किया था।
यह मानना भूल होगी कि नेहरू द्वारा जाति को अलंकरण प्रदान करना रणनीतिक अथवा सिनिकल था। भारतीय चरित्र और दीगर चीज़ों पर बहु-सहस्त्राब्दिक 'एकात्मता की छाप' की उनकी खोज की ही भाँति यह भी उसी श्वेर्मराई का हिस्सा था। गांधी ने लिखा था कि इतिहास प्रकृति का व्यवधान है। और इस बात का प्रमाण अप्रासंगिक है। जिस बात का दावा गांधी ने स्वयं के लिए किया था, नेहरू ने उसका सामान्यीकरण कर दिया। नेहरू ने दि डिस्कवरी ऑफ़ इण्डिया में लिखा, 'सत्य क्या है। मैं निश्चित तौर पर नहीं जानता। मगर व्यक्ति मात्र के लिए सत्य कम से कम वह है जो वह खुद महसूस करता है और जानता है कि वह खरा है। इस व्याख्या के आधार पर अपने सत्य पर दृढ़ रहने वाला गांधी जैसा दूसरा नहीं देखा।' राष्ट्र के कारज में 'हमें ऊपर उठाने और सत्य के लिए बाध्य करने हेतु अविचल सत्य के प्रतीक के तौर गांधी सदैव उपस्थित थे।' ऐसे ज्ञानमीमांसात्मक प्रोटोकालों के कारण ही नेहरू एक पृष्ठ पर जाति की समानता और स्वतंत्रता का भली भाँति अनुमोदन कर सकते थे, और दूसरे पन्ने पर उसके बीत जाने की उम्मीद भी जता सकते थे।
अगर राष्ट्रीय धर्म और उसके मूलभूत संस्थानों के बारे में उनका यह मत था,तो उन धर्मों के मानने वालों की
उनके दृष्टिकोण में क्या स्थिति थी जो न तो अपने उद्गम में राष्ट्रीय थे या विस्तारण में? राजनीतिक नेता के तौर पर नेहरू की पहली असली परीक्षा 1937 के चुनावों के साथ आई। अब वे गांधी के सहायक नहीं थे, जो 1934 के बाद नेपथ्य में चले गए थे। चुनावों में काँग्रेस की जीत और उसकी प्रथम क्षेत्रीय सरकारों के गठन के साल में वे काँग्रेस के अध्यक्ष थे। चुनाव परिणामों को लेकर शेखी बघारते हुए नेहरू ने घोषणा की कि भारत में महत्त्व रखने वाली अब दो ही शक्तियाँ हैं : काँग्रेस और अंग्रेज़ सरकार। इसमें ज़रा भी शक नहीं कि खुद को धोखा देने वाले घातक अंदाज़ में उन्हें इस बात पर भरोसा भी था। दरअसल यह एक इकबालिया जीत थी। इस समय तक काँग्रेस का सदस्यत्व 97 फ़ीसदी हिन्दू था। भारत भर के लगभग 90 फ़ीसदी मुसलमान संसदीय क्षेत्रों में उसे खड़े होने के लिए मुसलमान उम्मीदवार तक नहीं मिले। नेहरू के अपने प्रांत उत्तर प्रदेश में, जो अब की तरह उस समय भी भारत का सबसे घनी आबादी वाला क्षेत्र था, काँग्रेस ने सभी हिन्दू सीटें जीत ली थीं। मगर एक भी मुस्लिम सीट वह हासिल नहीं पर पाई थी। फिर भी, चुनाव प्रचार के दौरान तक काँग्रेस और मुस्लिम लीग के ताल्लुकात खराब नहीं थे और जब नतीजे आये तो लीग ने तब लखनऊ में बनने वाले मंत्रिमंडल में कुछ प्रतिनिधित्व हासिल करने के लिए दोनों पार्टियों के बीच गठबंधन करना चाहा। 'ज़ाती तौर पर मुझे पक्का यकीन है कि हमारे और मुस्लिम लीग के बीच कोई भी समझौता या गठबंधन बेहद हानिकारक होगा।' तो नेहरू के आदेश पर मुस्लिम लीग को बड़ी रुखाई से बता दिया गया कि ऐसा कुछ चाहने से पहले वह अपने-आप को काँग्रेस में विलीन कर दे। ऊँची जाति के हिन्दुओं की मनोवृत्ति को आगे चलकर डॉ आम्बेडकर ने एकाधिकारवादी बताया था। इस सामान्यीकरण की वैधता चाहे जो हो, जो यकीनन संदेहास्पद है, मगर इस बात में कोई शक़ नहीं कि स्वतंत्रता संघर्ष की वैधता के एकाधिकार पर काँग्रेस का दावा उसका केंद्रीय वैचारिक तत्त्व था।
फिर क्यों आम मुसलमानों ने, दीगर हिन्दुस्तानियों की तरह पर्याप्त संख्या में काँग्रेस को वोट नहीं दिया? इस पर नेहरू का जवाब यह था कि उन्हें चंद मुस्लिम सामंतों ने बहकाया था और हिन्दू भाइयों के साथ अपने साझा सामजिक हितों को जान जाने पर पर वे काँग्रेस के समर्थन में आ जायेंगे। उनके नेतृत्व में मुसलमानों को यह समझाने के लिए एक व्यापक जनसंपर्क अभियान चलाया गया था। मगर बोस के विपरीत नेहरू का जनता के साथ सहजज्ञ संपर्क बेहद कम था और वह कोशिश जल्द ही ठप्प पड़ गई। ज़मीनी स्तर पर लामबंदी करने की वह उनकी आखिरी कोशिश थी। दो साल बाद जब वे काँग्रेस के अध्यक्ष नहीं थे,उन्होंने बोस को निकाल बाहर करने में सांठ-गांठ की। सैद्धांतिक तौर पर बोस पार्टी के वाम पक्ष में उनके हमराह थे मगर नेहरू के विपरीत गाँधी के जादू से मुक्त थे, और उन्हें गांधी का उत्तराधिकारी बनने से वंचित रखने में सक्षम प्रतिद्वंद्वी थे। नेहरू अब भी स्वतंत्र अभिनेता नहीं थे। नेहरू की जीवनीकार जूडिथ ब्राउन की तथ्यात्मक राय में वे पार्टी के पुराने खूसटों के 'एकदम भरोसेमंद' आधार बने रहे।
दूसरा विश्व युद्ध छिड़ जाने पर काँग्रेस आलाकमान ने भारत की जनता से पूछे बिना वाइसराय द्वारा जर्मनी के खिलाफ जंग छेड़ देने के विरोध में सभी प्रांतीय सरकारों को इस्तीफ़ा देने का निर्देश दिया। इसका तुरंत असर यह हुआ कि एक राजनीतिक खालीपन तैयार हो गया जिसमें जिन्ना ने बड़ी दृढ़ता से अपने पैर जमा दिए। वे इस बात से बाखबर थे कि अपने सबसे महत्तवपूर्ण साम्राज्य में लन्दन को रियाया के वफादारी दिखाने की बेहद ज़रूरत थी। काँग्रेस मंत्रिमंडलों के अंत को 'हश्र का दिन' घोषित कर उन्होंने बिना समय खोये ब्रिटेन की मुश्किल घड़ी में उसके प्रति अपना समर्थन व्यक्त किया और उसके बदले में युद्धकालीन अनुग्रह हासिल कर लिया। लेकिन उनके सामने काम मुश्किल था। अब तक वे मुस्लिम लीग के निर्विवाद नेता बन चुके थे। मगर उपमहाद्वीप की दूर-दूर तक बिखरी हुई मुस्लिम अवाम बिलकुल एकजुट न थी। बल्कि वह पहेली के उन टुकड़ों की तरह थी जिन्हें साथ मिलाकर कभी एक नहीं किया जा सकता।
ऐतिहासिक तौर पर मुस्लिम एलीट का सांस्कृतिक और राजनीतिक ह्रदय स्थल उत्तर प्रदेश में था, जहाँ लीग सबसे ज्यादा मज़बूत स्थिति में थी बावजूद इसके कि एक-तिहाई से भी कम आबादी मुसलमान थी। सुदूर पश्चिम में सिंध, बलूचिस्तान और उत्तर-पश्चिम सीमावर्ती प्रांत में मुस्लिम ज़बरदस्त रूप से बहुलता में थे। मगर अंग्रेजों के कब्ज़े में वे काफी बाद में आये और इस वजह से वे इलाके देहाती पिछड़े हुए क्षेत्र थे जहाँ उन स्थानीय नामी-गिरामियों का वर्चस्व था जो न उर्दू ज़बान बोलते थे और न लीग के प्रति कोई वफादारी रखते थे, और न ही लीग की उन इलाकों में कोई सांगठनिक मौजूदगी थी। पंजाब और बंगाल में, जो भारत के संपन्नतम प्रांत थे और एक दूसरे काफी दूर स्थित थे, मुसलमान बहुसंख्यक थे। पंजाब में उनका संख्याबल ज़रा ही अधिक था मगर बंगाल में अधिक मज़बूत था। इन दोनों ही प्रान्तों में लीग बहुत प्रभावशाली शक्ति नहीं थी। पंजाब में वह नगण्य थी। यूनियनिस्ट पार्टी जिसका पंजाब प्रांत पर नियंत्रण था, बड़े मुस्लिम ज़मींदारों और संपन्न हिन्दू जाट किसानों का गठबंधन था और इन दोनों ही धड़ों के सेना से सम्बन्ध मज़बूत थे और वे अंग्रेज़ी राज के प्रति वफादार भी थे। बंगाल में, जहाँ लीग के नेता प्रांत के पूर्वी हिस्से में बड़ी रियासतों के मालिक कुलीन ज़मींदार थे, राजनीतिक प्रभाव केपीपी (कृषक प्रजा पार्टी) का था जिसका आधार आम किसान वर्ग था। इस तरह प्रांतीय स्तर पर पर्यवेक्षक जहाँ भी नज़र डालते, मुस्लिम लीग कमज़ोर नज़र आती- हिन्दू बहुल इलाकों में उसे काँग्रेस ने सत्ता से परे रखा हुआ था और मुस्लिम-बहुल क्षेत्रों में उसे उसके विरोधी संगठनों ने उपेक्षित कर रखा था। अखिल भारतीय स्तर पर आवश्यक कौशल और जीवट के साथ काम कर सकने वाले एकमात्र मुस्लिम नेता के तौर पर जिन्ना की प्रतिष्ठा ने लीग को बचा लिया। इसी वजह से यूनियनिस्ट, केपीपी और दीगर नेतृत्व अपनी-अपनी प्रांतीय जागीरें बनाये रखते हुए अंग्रेज़ों के साथ केंद्र में बातचीत की खातिर जिन्ना को अपना नुमाइंदा बनाने को राज़ी हुए। यह टुकड़ा-टुकड़ा और असम्बद्ध आलम ही 1937 के चुनावों में काँग्रेस की हेकड़ी का एक कारण था। काँग्रेस आलाकमान के लिए लीग एक चुकी हुई ताक़त थी जिसे नज़र-अंदाज़ किया जा सकता था जबकि दीगर स्थानीय मुस्लिम पार्टियों को अपने सुभीते के अनुसार चुना जा सकता था और अपना सहयोगी बनाया जा सकता था।
महायुद्ध ने इस संरचना को तेजी से बदल देना था। अंग्रेज़,जो मुसलमानों को ग़दर के बाद अपनी रियाया का सबसे खतरनाक हिस्सा मानते आये थे,बीसवीं सदी के आते-आते उन्हें हिन्दू राष्ट्रवाद के सबसे सुरक्षित प्रत्युत्तर के रूप में देखने लगे। अंग्रेज़ी राज के खिलाफ साझा संघर्ष में मुसलमान हिन्दुओं के साथ गुट न बना लें यह सुनिश्चित करने के लिए अंग्रेज़ों ने उन्हें पृथक निर्वाचक मंडल भी प्रदान कर दिया। दूसरी तरफ वे यह भी नहीं चाहते थे कि उपमहाद्वीप में कानून और व्यवस्था कायम करने के उनके दावों की कलई सांप्रदायिक हिंसा
खोल दे और न ही वे अपेक्षाकृत शक्तिशाली हिन्दू समुदाय से,जिसमें उनके अनेकों मित्रवत ज़मींदार और व्यापारी थे,बेज़ा दुश्मनी ही मोल लेना चाहते थे। सो उन्होंने ध्यान रखा कि वे अपने अनुग्रहों में एकदम पक्षपाती न हो जाएँ। मगर काँग्रेस मंत्रिमंडलों के पद त्याग देने के बाद और जब लीग युद्ध कार्य में सरकार को जन समर्थन मुहैया करा रही थी, जिन्ना वाइसराय के पसंदीदा संभाषी बन गए। जीवन पद्धति और दृष्टिकोण में पूर्णतः सेकुलर होने के बावजूद काँग्रेस ने जिन्ना को दशकों से अस्वीकार कर रखा था और काँग्रेस के समाजशास्त्रीय यथार्थ से वे भली-भाँति परिचित थे। जैसा कि सीनियर नेहरू ने, जो अपने बेटे की तुलना में ज्यादा सुस्पष्ट या यूँ कहें कि ज़्यादा साफगोई वाले थे, ध्यान दिलाया था कि काँग्रेस अपनी संरचना में अनिवार्यतः एक हिन्दू पार्टी थी और केंद्र में उसकी सत्ता के उसकी प्रांतीय सरकारों की बनिस्बत मुसलमानों के प्रति ज़्यादा हमदर्द होने की सम्भावना कम थी।
जिन्ना ने, जो अभी तक अपनी बुनियाद के कमज़ोर होने से वाकिफ़ थे और उस वजह से सीमित होने को राज़ी नहीं थे, अंग्रेज़ी राज के आगे कोई एकदम साफ़-साफ़ मांगें रखना टाले रखा था। अब घटनाक्रम से हौसला पाकर उन्होंने नए कार्यक्रम का खुलासा किया। 1940 में लाहौर में उन्होंने घोषणा की कि उपमहाद्वीप में एक नहीं बल्कि दो राष्ट्र हैं और यह कि आज़ादी को उन दोनों के सह-अस्तित्व को इस स्वरूप में समायोजित करना होगा जो उन क्षेत्रों को स्वायत्तता और सार्वभौमिकता दे जिनमें मुसलमान बहुसंख्यक हैं। जिन्ना के निर्देशानुसार लीग ने जो प्रस्ताव पारित किया उसका शब्दांकन जानबूझ कर अस्पष्ट रखा गया; उसमें संघटक राज्यों के बारे में बहुवचन में बात की गई थी और 'पाकिस्तान' लफ्ज़ का इस्तेमाल नहीं किया गया था - जिसके बारे में जिन्ना ने बाद में शिकायत की थी कि काँग्रेस ने उन्हें ऐसा करने के लिए बाध्य किया था। उस पदबंध की अस्पष्टता के पीछे जिन्ना की अनसुलझी कशमकश थी। लगभग समान रूप से मुसलमान बाहुल्य वाले इलाकों को स्वतंत्र राष्ट्र के गठन के लिए संभव उम्मीदवार समझा जा सकता था। मगर क्या कम बाहुल्य वाले इलाकों में भी वही संभाव्यता थी? और सर्वोपरि यह कि बाहुल्य वाले इलाके कल्पित भारत से अगर अलग हो गए, तो पीछे रह जाने वाले उन अल्पसंख्यकों का क्या होगा जो जिन्ना का अपना राजनीतिक आधार थे? क्या उन्हें किसी प्रकार के व्यापक संघ की ज़रूरत न होगी जिसमें मुस्लिम अवाम बहुसंख्यक हिन्दू मर्जी के मनमाने इस्तेमाल से अपना बचाव कर सकें? इन सारी दिक्कतों के मद्देनज़र क्या नहीं कहा जा सकता कि जिन्ना स्वयं झाँसा दे रहे थे- वास्तविक महत्तम हासिल करने के लिए अवास्तविक मांगों को सौदेबाजी के तौर पर सामने रख रहे थे? उस दौरान बहुत सारे लोगों को ऐसा ही लगा था और उसके बाद भी इस बात को मानने वाले कुछ कम नहीं।
लाहौर प्रस्ताव को चाहे जितना चमकाने की कोशिश की जाए,तब तक यह साफ़ हो चुका था कि आज़ादी अपने-आप में उस शाश्वत एकता की गारंटी नहीं होगी जिसकी बात काँग्रेस के विचारक अक्सर किया करते थे। हिन्दू और मुसलमान राजनीतिक अस्मिताओं की प्रतिद्वंद्विता ने उस एकता के लिए पैदा किया खतरा आसन्न और सुस्पष्ट था। नेहरू की प्रतिक्रिया क्या थी? 1935 में अपनी आत्मकथा के एक विशिष्ट परिच्छेद में उन्होंने भारत में एक मुस्लिम राष्ट्र के होने की संभावना को नकार दिया था: 'राजनीतिक तौर पर यह विचार बेतुका है, और आर्थिक रूप से खामख्याली; यह गौर किये जाने लायक है ही नहीं।' 1938 में उनसे मिलने आये कुछ अमेरिकियों से उन्होंने कहा कि 'भारत में कोई धार्मिक या सांस्कृतिक संघर्ष नहीं है और सदियों से चली आई उसकी अनिवार्य एकता भारत का अद्भुत और सारभूत तत्व है।' अपने एक निबंध में उन्होंने दावा किया था कि 'भारत की एकात्मकता के लिए कार्यरत ताक़तें दुर्जेय और ज़बरदस्त हैं और कोई अलगाववादी प्रवृत्ति इस एकात्मकता को तोड़ डालेगी ऐसी कल्पना नहीं की जा सकती।' लाहौर प्रस्ताव के बाद, 1941 में वह प्रवृत्ति उनके सामने मुंह बाए खड़ी थी मगर अपने उस निबंध को पुनर्प्रकाशित करते हुए उन्हें अपने इस दावे को बदलने की कोई ज़रूरत नहीं महसूस हुई।
वेवल जो महायुद्ध के दौरान भारत में फौज के प्रधान सेनापति थे, 1945 के आते-आते वाइसराय बन गए। वे जानते थे कि साम्राज्यवादी खेल ख़त्म हो गया है। उनकी टिप्पणी: 'अपने खिलाफ़ बहुत भारी संख्या में खड़े विरोधी पक्ष को देखकर पीछे हटने को मजबूर होने वाली सैन्य शक्ति की जो हालत होती है वैसी ही हमारी वर्तमान स्थिति है।' महायुद्ध के दौरान भारत छोडो आन्दोलन छेड़ने के जुर्म में जेल में बंद नेहरू और उनके सहकारियों को जून में रिहा कर दिया गया और सर्दियों में प्रान्तों और केंद्र के चुनाव हुए जो 1935 के मताधिकार पर ही आधारित थे। नतीजे काँग्रेस के लिए खतरे की घंटी की तरह थे और होने भी चाहिए थे। मुस्लिम लीग न सिमटी थी और न ओझल हुई थी। अपने संगठन को खड़ा करने के, उसकी सदस्यता बढ़ाने के, अपना दैनिक पत्र निकालने के और जिन प्रांतीय सरकारों से अब तक उन्हें दूर रखा गया था उनमें अपने कदम जमाने के कामों में जिन्ना ने महायुद्ध के दौर का इस्तेमाल किया था। 1936 में एक ठंडा पड़ चुका उबाल कह कर नकार दी गई मुस्लिम लीग ने 1945-46 में भारी जीत हासिल की। उसने केंद्र के चुनावों में हर एक मुस्लिम सीट और प्रांतीय चुनावों में 89 प्रतिशत मुस्लिम सीटें जीत लीं। मुसलमानों के बीच अब उनकी प्रतिष्ठा वैसी हो चली थी जैसी हिन्दुओं में काँग्रेस की थी।
आज़ादी के लिए सभी दलों को स्वीकार्य संवैधानिक ढाँचे के बारे में बातचीत करने के लिए लेबर पार्टी की सरकार ने लन्दन से कैबिनेट मिशन भेजा। जिस संघीय रचना का प्रस्ताव मिशन ने अंततः रखा वह लाहौर में जिन्ना द्वारा सामने रखी गई व्यवस्थाओं से कुछ मिलता-जुलता था। हालाँकि अब तक मुस्लिम लीग का रुख काफी कड़ा हो गया था, फिर भी दोनों पार्टियों ने पहलेपहल इस योजना के प्रति अपनी सम्मति दर्शाई। दो हफ़्तों बाद नेहरू उस से मुकर गए और घोषणा की काँग्रेस अपने मन की करने के लिए स्वतंत्र है। राजनीतिक नेता के तौर यह उनका पहला विशुद्ध रूप से व्यक्तिगत निर्णय था। उनके कट्टरपंथी सहकर्मी वल्लभभाई पटेल ने तक उसे 'जज़्बाती अहमकपन' करार दिया मगर कमान से निकला हुआ तीर वापिस नहीं आ सकता था। इसके जवाब में जिन्ना, जिन्होंने सड़कों पर किये जाने वाले विरोध प्रदर्शनों को भीड़ से की गई लापरवाह अपील मानते हुए हमेशा उनकी निंदा की थी, ने संसदीय तरीके को लेकर मुसलमानों का धैर्य अब टूट चुका है यह दर्शाने के लिए 'सीधी कार्रवाई के दिन' की घोषणा कर दी। अभिजात स्तर पर दांव खेलने में माहिर सियासतदां के तौर पर जिन्ना का जनसामूहिक कार्रवाई में कोई अनुभव नहीं था और उन्हें उसके संचालन और नियंत्रण का भी अंदाज़ा नहीं था। कलकत्ते में सांप्रदायिक मारकाट मच गई। मुस्लिम गुंडों द्वारा शुरू की गई यह मारकाट जब ख़त्म हुई तो दोनों समुदायों के सापेक्ष संख्याबल के मद्देनज़र अपरिहार्य रूप से हिन्दुओं की तुलना में कहीं ज़्यादा मुसलमान मारे जा चुके थे।
हर संभव तरीका अपनाकर देख लेने के बाद हार कर वेवल ने एक अंतरिम सरकार बनाई जिसकी अगुवाई प्रधानमंत्री के तौर पर नेहरू कर रहे थे और पटेल आतंरिक मंत्री थे। लीग द्वारा किये गए शुरूआती बहिष्कार के बाद जिन्ना के सहायक लियाक़त अली खान अंतरिम सरकार में वित्त मंत्री बने। हर पार्टी दूसरी के आड़े आने पर आमादा थी। प्रांतीय चुनावों के नतीजों के आधार पर नामजद किये गए नुमाइंदों को लेकर बनी संविधान-सभा का लीग ने बहिष्कार किया। संविधान-सभा में काँग्रेस इस कदर हावी थी और इसके लिए सैद्धांतिक रूप से सरकार की ही ज़िम्मेदारी बनती थी, कि काँग्रेस ने लियाक़त के संपत्ति कर के प्रस्ताव को इस आधार पर रोक दिया कि चूँकि ज़्यादातर व्यापारी हिन्दू हैं, ऐसा करना धार्मिक पक्षपात होगा। तो यह परिस्थिति थी जब फरवरी 1947 में एटली सरकार ने घोषणा की कि जून 1948 तक भारत को आज़ादी मिल जायेगी और हस्तांतरण के प्रभारी के तौर पर वाइसराय का काम संभालने माउंटबेटन को रवाना किया।
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भारतभूषण तिवारी |
यह टुकड़ा मशहूर इतिहासकार पेरी एंडरसन की हाल में `थ्री एसेज़ कलेक्टिव` से
आई किताब `द इंडियन आइडियोलॉजी` से लिया गया है। इसका हिंदी अनुवाद पेशे से इंजीनियर और लत से पढ़ाकू भारतभूषण तिवारी ने `समयांतर` पत्रिका के लिए किया है। वे अंग्रेजी और मराठी के जनप्रतिबद्ध लेखन से हिंदी पाठकों का परिचय लगातार कराते रहे हैं।