Saturday, January 26, 2013

द इंडियन आइडियोलॉजी : बदनसीब मुल्क़ के बदग़ुमान रहनुमा


पेरी एंडरसन की किताब `द इंडियन आइडियोलॉजी` का टुकड़ा-

1945 तक गांधी का युग ख़त्म हो कर नेहरू का ज़माना शुरू हो गया था. दोनों के बीच के फ़र्कों पर बात करने की मानो परम्परा सी रही है, पर इन फ़र्कों का स्वतंत्रता के संघर्ष के परिणाम से सम्बन्ध ज्यादातर अँधेरे में रहा है। न ही वे फ़र्क़ हमेशा साफ़-साफ़ पकड़ में आते हैं। नेहरू एक पीढ़ी छोटे, देखने में सुन्दर, काफी ऊँचे सामाजिक वर्ग से आये, पश्चिम की अभिजात शिक्षा प्राप्त, धार्मिक विश्वासों से रहित थे और उनके कई प्रेमसंबंध भी थे, ये बातें सभी को पता है। गांधी के साथ उनका अनोखा सम्बन्ध यहाँ राजनीतिक तौर पर ज़्यादा प्रासंगिक है। राष्ट्रीय आन्दोलन में अपने अमीर पिता,जो 1890 के दशक से ही काँग्रेस के स्तम्भ थे, द्वारा भर्ती करवाए गए नेहरू पर गांधी का जादू तब चला जब वे तीस की उम्र के करीब थे और जब उनके अपने राजनीतिक विचार उतने विकसित नहीं हुए थे। एक दशक पश्चात जब उन्होंने स्वतंत्रता और समाजवाद की संकल्पनाएँ ग्रहण कर ली थीं जिन से गांधी इत्तफाक़ नहीं रखते थे,और लगभग चालीस के हो चुके थे तब भी वे गांधी को लिख रहे थे: 'क्या मैं आप ही की राजनीतिक औलाद नहीं हूँ, गो कि किसी क़दर नाफ़रमाँ-बरदार और बिगड़ी औलाद?' वल्दियत वाली बात अपनी जगह सही है; पर नाफ़रमानी (या अवज्ञा) दरअसल नाफ़रमानी कम, नख़रा ज़्यादा था। बहुतों की तरह 1922 में गांधी द्वारा असहयोग आन्दोलन की हवा निकाल देने से हताश, 1932 में अछूतों का निर्वाचन मंडल शुरू करने के खिलाफ़ उनके अनशन से निराश, 1934 में सविनय अवज्ञा आन्दोलन को स्थगित करने के गांधी के कारणों से चकित, नेहरू फिर भी हर बार अपने सरपरस्त के फ़ैसले के आगे अपने आप को झुका देते।


राष्ट्रीय आन्दोलन का पवित्रीकरण? 'हमारी राजनीति में इस धार्मिक तत्व के बढ़ने से मैं कभी-कभी परेशान हो जाता,' मगर ' मुझे अच्छी तरह पता था कि उसमें कोई और चीज़ है, जो मनुष्यों की गहन आतंरिक लालसा की पूर्ति करती है।' असहयोग आन्दोलन की असफलता? 'आखिर वे (गांधी) इसके लेखक और प्रवर्तक थे, और वह आन्दोलन क्या था और क्या नहीं इस बात का निर्णय उन से बेहतर कौन कर सकता था। और उनके बिना हमारे आन्दोलन का अस्तित्व ही कहाँ था?' पूना का आमरण अनशन? 'दो दिनों तक मैं अन्धकार में था और आशा की कोई किरण नहीं नज़र आती थी, गांधीजी जो कर रहे थे उस काम के चंद परिणामों के बारे में सोच कर मेरे दिल बैठता जाता ...फिर एक अजीब सी बात हुई। एकदम भावनात्मक संकट जैसा हुआ और उसके बाद मुझे शान्ति महसूस हुई और भविष्य उतना अंधकारमय नहीं लगा। मनोवैज्ञानिक क्षण में सही चीज़ करने का अद्भुत कौशल गांधीजी के पास था, और मुमकिन है कि उनके किये के - जिसे सही ठहराना मेरे दृष्टिकोण से नामुमकिन सा था- बहुत अच्छे परिणाम होंगे।' और वह दावा कि बिहार में भूकंप भेज कर ईश्वर ने सविनय अवज्ञा आन्दोलन के प्रति अप्रसन्नता दर्शाई थी? बापू की घोषणा ने नेहरू को उनके विश्वास के 'लंगर से दूर खदेड़ दिया' मगर यह मानकर कि उनके सरपरस्त का किया सही है उन्होंने 'जैसे तैसे समझौता कर लिया।' क्योंकि 'आख़िरकार गांधीजी क्या ही अद्भुत व्यक्ति थे।' ये सारी घोषणाएँ 1936 के ज़माने की हैं जब नेहरू अपने समूचे कैरियर के किसी भी कालखंड के मुकाबले राजनीतिक तौर पर सबसे ज़्यादा रैडिकल थे इतने कि कम्यूनिस्ट विचारधारा के प्रति झुकाव रखते थे।1939 के आते आते वे सीधे-सीधे यह प्रमाणित कर रहे थे: 'भारत का उनके (गांधी के) बिना कुछ नहीं होगा।'

मनोवैज्ञानिक अवलंब की इस मात्रा में अलग-अलग सूत्र आपस में गुंथे हुए थे। नेहरू के गांधी के प्रति संतानवत विमोह में कुछ अनोखा नहीं था। मगर नेहरू के प्रति गांधी के अभिभावकीय स्नेह की गहराई - जो उन्होंने अपनी संतानों के प्रति विशेष सख्ती बरतते हुए अमूमन नहीं दिखाई- अप्रतिम थी। इन भावनात्मक बंधनों में परस्पर हितों का गणित भी समाविष्ट था। जब तक वे काँग्रेस के दायरे में रह कर काम करते रहे, गांधी नेहरू पर यह भरोसा कर सकते थे कि वे वयस्क राजनीतिक मुद्दे उनके समक्ष नहीं उठाएँगे, जबकि गांधी के प्रिय होने की वजह से नेहरू यह मान कर चल सकते थे कि वे काँग्रेस की अगुआई करने और आज़ादी के बाद देश पर राज करने में अपने प्रतिद्वंद्वियों को पीछे छोड़ देंगे। फिर भी उन दोनों के बीच क्या उतनी भी बड़ी बौद्धिक खाई थी ही नहीं? एक बुनियादी सन्दर्भ में वास्तव में एक खाई थी। गांधी के अलौकिक स्वप्नों और दुनियावी अप्रचलितों की खातिर नेहरू के पास वक़्त नहीं था। उद्योगों और आधुनिकता के फायदों में उनका पूरी तरह लौकिक स्तर पर भरोसा था। फिर भी जब तक राजसत्ता पहुँच से दूर थी तब तक यह विभाजन रेखा उतनी महत्त्वपूर्ण न थी । जहाँ तक ब्रिटिश राज के तहत राष्ट्रीय आन्दोलन के राजनीतिक नज़रिए का सम्बन्ध है, तो गुरु और चेले में उनकी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के विभेद की बनिस्बत बहुत कम फर्क़ है।

गांधी के यहाँ पुस्तकीय ज्ञान अधिक न था। लन्दन में उन्हें कानून की अपनी पाठ्य-पुस्तकें रुचिपूर्ण लगीं- संपत्ति कानून पर आधारित पुस्तिका को पढ़ना 'उपन्यास पढ़ने जैसा था' - मगर बेन्थम को समझना बेहद मुश्किल था। दक्षिण अफ्रीका में उन्हें इल्हाम हुआ रस्किन और टॉल्सटॉय की पुस्तकों का. भारत में जेल में वे इस नतीजे पर पहुंचे कि गिबन महाभारत का घटिया संस्करण है और यह कि वे स्वयं पूँजी को मार्क्स से बेहतर लिख सकते थे। जहाँ पर आकर उनकी दृष्टि जमी वह थीं वे चंद पुस्तकें जो उन्होंने हिन्द स्वराज  लिखना शुरू करने से पहले तक पढ़ रखी थीं और कुछ गिनी-चुनी हिन्दू क्लासिक्स। दक्षिण अफ्रीका छोड़ते समय दुनिया के बारे में उनके मूलभूत विचार मूलतः परवान चढ़ चुके थे। सत्य और किताबों में नहीं बल्कि खुद उनमें मौजूद था। एक भारतीय आलोचक ने 'एक अधभरे दिमाग की ऐसी समाश्वस्तता' के खतरों के प्रति आगाह करते हुए लिखा था कि 'गांधी जैसी बेफिक्र स्वच्छंदता से प्रथम पुरुष का इस्तेमाल करने वाला, लगभग वैसी ही परिस्थितियों में रहा हुआ दूसरा कोई भी व्यक्ति बहुत खोजने पर भी मुझे नहीं मिला।'

गांधी को जो उच्च शिक्षा नहीं मिली थी वह नेहरू को हासिल हुई,और वह बौद्धिक विकास भी जिसमें अत्यधिक धार्मिक आस्था ने अड़ंगा नहीं डाला था। लेकिन इन सुअवसरों का जो प्रतिफलन हुआ वह अपेक्षा से कम था। प्रतीत होता है कि उन्होंने केम्ब्रिज में बहुत कम सीखा, जैसे-तैसे प्राकृतिक विज्ञान में मीडियोकर डिग्री हासिल की जिसका बाद में नामोनिशां तक न रहा, वकालत के इम्तहानों में  उनका प्रदर्शन ठीक नहीं रहा, और लौटने पर अपने पिता के नक्शेकदम पर चलते हुए वकालत की प्रैक्टिस में भी उन्हें कोई ख़ास सफलता नहीं मिली। केम्ब्रिज में दर्शन के मेधावी छात्र रहे सुभाष चन्द्र बोस, जो आईसीएस के एलीट ओहदे की परीक्षा पास करने वाले और फिर देशभक्ति की वजह उसमें प्रवेश करने से इनकार करने वाले पहले देशी थे, के साथ नेहरू का कॉन्ट्रास्ट ध्यानाकर्षक है।मगर एक मामूली किस्म का आगाज़ आगे आने वाली बहार को नहीं रोक सकता, और नेहरू समयानुसार एक समर्थ वक्ता और सफल लेखक बन गए। मगर फिर भी वे नाम मात्र की भी साहित्यिक अभिरुचि या बौद्धिक अनुशासन नहीं हासिल कर पाए। उनकी सबसे महत्त्वाकांक्षी कृति दि डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया, जो 1946 में शाया हुई थी, श्वेर्मराई  (अति भावुकता) के वाष्प-स्नान जैसी है। अछूतों के नेता आम्बेडकर बौद्धिक स्तर में काँग्रेस के बहुत से नेताओं से काफी ऊपर थे और कुछ हद तक जिसका कारण लन्दन स्कूल ऑफ़ इकॉनॉमिक्स और कोलंबिया विश्वविद्यालय में हुई उनकी गंभीर शिक्षा-दीक्षा थी। उनसे नेहरू की तुलना करना उचित नहीं होगा। आम्बेडकर को पढ़ना मतलब किसी दूसरी दुनिया में प्रवेश करना है। दि डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया - और उसकी पूर्ववर्ती कृति दि यूनिटी ऑफ़ इंडिया को तो रहने ही दीजिये- न केवल उनमें औपचारिक विद्वत्ता की कमी और रूमानी मिथकों के प्रति उनकी लत को दर्शाती है,बल्कि उस से भी कुछ गहरी बात जो बौद्धिक से ज़्यादा मनोवैज्ञानिक सीमा है: खुद को धोखा देने का ऐसा सामर्थ्य जिसके दूरगामी राजनीतिक परिणाम सामने आये।

'भारत मेरे खून में था और उसमें ऐसा बहुत कुछ था जो सहज रूप से मुझे रोमांचित करता था,' वे अपने पाठकों से कहते हैं।

वह बहुत ही प्यारा है और उसकी संतानें उसे नहीं भुला सकतीं चाहे वे कहीं भी चले जाएँ या उन पर कैसी भी विपत्तियाँ आयें. क्योंकि वह अपनी महानता और कमजोरियों में भी उनका हिस्सा है, और उसकी संतानों का अक्स उसकी गहरी आँखों में है जिन्होंने बहुत कुछ जीवन का आवेग, हर्ष और मूर्खता को देखा है और ज्ञान के कुएँ में भी झाँका है।

समूची डिस्कवरी ऑफ़ इण्डिया पुस्तक इस किस्म की बिलकुल नहीं है। मगर बारबरा कार्टलैंड (अपने रोमांटिक उपन्यासों के मशहूर बीसवीं सदी की एक प्रमुख अंग्रेज़ लेखिका)  प्रवृत्ति सतह से कभी दूर न थी:

शायद अब भी हम प्रकृति के रहस्यों को अनुभव कर पाएँ, और उसके जीवन और सौंदर्य राग को सुन पाएँ, और उस से सत हासिल कर पाएँ. यह राग चुनिन्दा जगहों पर नहीं गाया जाता,और अगर उसे सुन सकने वाले कान हमारे पास हों तो हम उसे लगभग कहीं भी सुन सकते हैं। मगर कुछ जगहें होती हैं जहाँ वह उन्हें भी लुभा लेता है जो उसके लिए तैयार नहीं होते और कहीं दूर बज रहे तेज़ वाद्य के गहरे स्वरों की तरह आता है। ऐसी ही पसंदीदा जगहों में है कश्मीर, जहाँ सुन्दरता का बसेरा है और एक इंद्रजाल हमारे होश फाख्ता कर देता है।

ऐसा गद्य लिखने वाले दिमाग़ से राष्ट्रीय आन्दोलन के सामने खड़ी कठिनाइयों के बारे में अधिक यथार्थवाद दिखाने की उम्मीद नहीं की जा सकती।

जब गांधी डॉ आम्बेडकर को यह मांग स्वीकार करने के लिए ब्लैकमेल कर रहे थे कि अछूतों के साथ जाति व्यवस्था के परित्यक्तों की तरह नहीं बल्कि उसी के अंतर्गत निष्ठावान हिन्दुओं के तौर बर्ताव किया जाएगा, तब नेहरू ने आम्बेडकर के समर्थन में या उनके प्रति एकजुटता दर्शाने वाला एक भी लफ्ज़ न कहा। गांधी अनशन पर थे और बावजूद इसके कि तब अछूतों का भविष्य एक गौण बात थी, जैसे कि नेहरू ने बड़े ज़ोरदार तरीके से उसे खारिज कर दिया, उनका चुप रहना काफी था. हालाँकि यहाँ पर, जिस किसी मुद्दे पर वे राजनीतिक स्टैंड लेते थे उस के विषय में गांधी के साथ असहमति प्रदर्शित करने को लेकर एक मामूली सी अनिच्छा वाला मामला भर नहीं था। नेहरू, जैसा कि उन्होंने कई बार स्वयं माना है, आस्तिक नहीं थे: हिन्दू धर्म के सिद्धांतों की उनकी नज़र में बहुत कम या नहीं के बराबर कीमत थी। मगर गांधी की ही तरह एकदम सरल तौर पर वे धर्म को राष्ट्र से जोड़ते थे यह कहते हुए कि 'हिन्दू धर्म राष्ट्रवाद का प्रतीक बन गया था। वह वास्तव में राष्ट्रीय धर्म था जिसकी नस्ली और सांस्कृतिक, सभी गहन प्रवृत्तियों को आकर्षित करने की क्षमता थी और यही चीज़ आज हर तरफ राष्ट्रवाद की बुनियाद बनी है।' उसके विपरीत बौद्ध धर्म भारत में उत्पन्न होने के बावजूद इसलिए पिछड़ गया क्योंकि वह 'अनिवार्यतः अंतर्राष्ट्रीय' था। इस्लाम, जो भारत में उपजा भी नहीं था, तो और भी कम राष्ट्रीय था।

इसका नतीजा यह हुआ कि जिस व्यवस्था के हिन्दू धर्म की आधारशिला होने की बात पर गाँधी जोर देते थे और जिसने पूर्वेतिहास में उसे बिखरने से बचाया था, उसे सजीले रूप में पेश करना ज़रूरी था। बेशक जाति के अपने विकृतियाँ (कुरुपताएँ) थीं और गांधी को भी यह बात तस्लीम करनी पड़ी। नेहरू ने बतलाया था कि वृहत परिप्रेक्ष्य में मगर भारत को उसके लिए शर्मिंदा होने की ज़रूरत नहीं थी। 'जाति कार्य और प्रयोजन पर आधारित एक समूह व्यवस्था थी। उसका मतलब था एक सर्व-समावेशी व्यवस्था जिसमें कोई साझा सिद्धांत न हो और हर समूह को पूरी स्वतंत्रता मिले।' सौभाग्य से जिस चीज़ ने यूनानियों को अक्षम बनाया था वह इसमें नहीं थी और 'यह निम्नतम स्तर वालों के लिए दासप्रथा के मुकाबले बहुत ज़्यादा बेहतर थी। हर जाति के अंतर्गत समानता और कुछ हद तक स्वतंत्रता थी; हर जाति उपजीविकाजन्य थी और स्वयं को अपने विशिष्ट कार्य में प्रयुक्त करती थी। इस कारण दस्तकारी और शिल्पकारिता में ऊंचे दर्जे की विशेषज्ञता और कौशल पैदा हो पाया वह भी उस समाज व्यवस्था के अंतर्गत जो प्रतिस्पर्धात्मक और अर्जनशील नहीं थी।' वास्तव में किसी हाइरार्की के सिद्धांत को मूर्त रूप देने से बहुत दूर जाकर जाति ने 'हर समूह में लोकतांत्रिक प्रवृत्ति बनाये रखी।' बाद की पीढ़ियाँ, जिन्हें यह मानने में दिक्कत पेश आ रही होगी कि नेहरू ने ऐसी भयावह बातें लिखी हैं, उन परिच्छेदों की ओर इशारा कर सकती हैं जहाँ उन्होंने जोड़ा था कि 'वर्तमान समाज के सन्दर्भ में' - (कालखंड रहित) अतीत के विपरीत- जाति 'प्रगति की अवरोधक' बन गई थी, जो राजनीतिक या आर्थिक लोकतंत्र से सुसंगत नहीं थी। जैसा कि आम्बेडकर ने बड़े तीखेपन से नोट किया था, नेहरू ने अस्पृश्यता का कभी ज़िक्र भी नहीं किया था।

यह मानना भूल होगी कि नेहरू द्वारा जाति को अलंकरण प्रदान करना रणनीतिक अथवा सिनिकल था। भारतीय चरित्र और दीगर चीज़ों पर बहु-सहस्त्राब्दिक 'एकात्मता की छाप' की उनकी खोज की ही भाँति यह भी उसी श्वेर्मराई का हिस्सा था। गांधी ने लिखा था कि इतिहास प्रकृति का व्यवधान है। और इस बात का प्रमाण अप्रासंगिक है। जिस बात का दावा गांधी ने स्वयं के लिए किया था, नेहरू ने उसका सामान्यीकरण कर दिया। नेहरू ने दि डिस्कवरी ऑफ़ इण्डिया में लिखा, 'सत्य क्या है। मैं निश्चित तौर पर नहीं जानता। मगर व्यक्ति मात्र के लिए सत्य कम से कम वह है जो वह खुद महसूस करता है और जानता है कि वह खरा है। इस व्याख्या के आधार पर अपने सत्य पर दृढ़ रहने वाला गांधी जैसा दूसरा नहीं देखा।' राष्ट्र के कारज में 'हमें ऊपर उठाने और सत्य के लिए बाध्य करने हेतु अविचल सत्य के प्रतीक के तौर गांधी सदैव उपस्थित थे।' ऐसे ज्ञानमीमांसात्मक प्रोटोकालों के कारण ही नेहरू एक पृष्ठ पर जाति की समानता और स्वतंत्रता का भली भाँति अनुमोदन कर सकते थे, और दूसरे पन्ने पर उसके बीत जाने की उम्मीद भी जता सकते थे।

अगर राष्ट्रीय धर्म और उसके मूलभूत संस्थानों के बारे में उनका यह मत था,तो उन धर्मों के मानने वालों की
उनके दृष्टिकोण में क्या स्थिति थी जो न तो अपने उद्गम में राष्ट्रीय थे या विस्तारण में? राजनीतिक नेता के तौर पर नेहरू की पहली असली परीक्षा 1937 के चुनावों के साथ आई। अब वे गांधी के सहायक नहीं थे, जो 1934 के बाद नेपथ्य में चले गए थे। चुनावों में काँग्रेस की जीत और उसकी प्रथम क्षेत्रीय सरकारों के गठन के साल में वे काँग्रेस के अध्यक्ष थे। चुनाव परिणामों को लेकर शेखी बघारते हुए नेहरू ने घोषणा की कि भारत में महत्त्व रखने वाली अब दो ही शक्तियाँ हैं : काँग्रेस और अंग्रेज़ सरकार। इसमें ज़रा भी शक नहीं कि खुद को धोखा देने वाले घातक अंदाज़ में उन्हें इस बात पर भरोसा भी था। दरअसल यह एक इकबालिया जीत थी। इस समय तक काँग्रेस का सदस्यत्व 97 फ़ीसदी हिन्दू था। भारत भर के लगभग 90 फ़ीसदी मुसलमान संसदीय क्षेत्रों में उसे खड़े होने के लिए मुसलमान उम्मीदवार तक नहीं मिले। नेहरू के अपने प्रांत उत्तर प्रदेश में, जो अब की तरह उस समय भी भारत का सबसे घनी आबादी वाला क्षेत्र था, काँग्रेस ने सभी हिन्दू सीटें जीत ली थीं। मगर एक भी मुस्लिम सीट वह हासिल नहीं पर पाई थी। फिर भी, चुनाव प्रचार के दौरान तक काँग्रेस और मुस्लिम लीग के ताल्लुकात खराब नहीं थे और जब नतीजे आये तो लीग ने तब लखनऊ में बनने वाले मंत्रिमंडल में कुछ प्रतिनिधित्व हासिल करने के लिए दोनों पार्टियों के बीच गठबंधन करना चाहा। 'ज़ाती तौर पर मुझे पक्का यकीन है कि हमारे और मुस्लिम लीग के बीच कोई भी समझौता या गठबंधन बेहद हानिकारक होगा।' तो नेहरू के आदेश पर मुस्लिम लीग को बड़ी रुखाई से बता दिया गया कि ऐसा कुछ चाहने से पहले वह अपने-आप को काँग्रेस में विलीन कर दे। ऊँची जाति के हिन्दुओं की मनोवृत्ति को आगे चलकर डॉ आम्बेडकर ने एकाधिकारवादी बताया था। इस सामान्यीकरण की वैधता चाहे जो हो, जो यकीनन संदेहास्पद है, मगर इस बात में कोई शक़ नहीं कि स्वतंत्रता संघर्ष की वैधता के एकाधिकार पर काँग्रेस का दावा उसका केंद्रीय वैचारिक तत्त्व था।

फिर क्यों आम मुसलमानों ने, दीगर हिन्दुस्तानियों की तरह पर्याप्त संख्या में काँग्रेस को वोट नहीं दिया? इस पर नेहरू का जवाब यह था कि उन्हें चंद मुस्लिम सामंतों ने बहकाया था और हिन्दू भाइयों के साथ अपने साझा सामजिक हितों को जान जाने पर पर वे काँग्रेस के समर्थन में आ जायेंगे। उनके नेतृत्व में मुसलमानों को यह समझाने के लिए एक व्यापक जनसंपर्क अभियान चलाया गया था। मगर बोस के विपरीत नेहरू का जनता के साथ सहजज्ञ संपर्क बेहद कम था और वह कोशिश जल्द ही ठप्प पड़ गई। ज़मीनी स्तर पर लामबंदी करने की वह उनकी आखिरी कोशिश थी। दो साल बाद जब वे काँग्रेस  के अध्यक्ष नहीं थे,उन्होंने बोस को निकाल बाहर करने में सांठ-गांठ की। सैद्धांतिक तौर पर बोस पार्टी के वाम पक्ष में उनके हमराह थे मगर नेहरू के विपरीत गाँधी के जादू से मुक्त थे, और उन्हें गांधी का उत्तराधिकारी बनने से वंचित रखने में सक्षम प्रतिद्वंद्वी थे। नेहरू अब भी स्वतंत्र अभिनेता नहीं थे। नेहरू की जीवनीकार जूडिथ ब्राउन की तथ्यात्मक राय में वे पार्टी के पुराने खूसटों के 'एकदम भरोसेमंद' आधार बने रहे।

दूसरा विश्व युद्ध छिड़ जाने पर काँग्रेस आलाकमान ने भारत की जनता से पूछे बिना वाइसराय द्वारा जर्मनी के खिलाफ जंग छेड़ देने के विरोध में सभी प्रांतीय सरकारों को इस्तीफ़ा देने का निर्देश दिया। इसका तुरंत असर यह हुआ कि एक राजनीतिक खालीपन तैयार हो गया जिसमें जिन्ना ने बड़ी दृढ़ता से अपने पैर जमा दिए। वे इस बात से बाखबर थे कि अपने सबसे महत्तवपूर्ण साम्राज्य में लन्दन को रियाया के वफादारी दिखाने की बेहद ज़रूरत थी। काँग्रेस मंत्रिमंडलों के अंत को 'हश्र का दिन' घोषित कर उन्होंने बिना समय खोये ब्रिटेन की मुश्किल घड़ी में उसके प्रति अपना समर्थन व्यक्त किया और उसके बदले में युद्धकालीन अनुग्रह हासिल कर लिया। लेकिन उनके सामने काम मुश्किल था। अब तक वे मुस्लिम लीग के निर्विवाद नेता बन चुके थे। मगर उपमहाद्वीप की दूर-दूर तक बिखरी हुई मुस्लिम अवाम बिलकुल एकजुट न थी। बल्कि वह पहेली के उन टुकड़ों की तरह थी जिन्हें साथ मिलाकर कभी एक नहीं किया जा सकता।

ऐतिहासिक तौर पर मुस्लिम एलीट का सांस्कृतिक और राजनीतिक ह्रदय स्थल उत्तर प्रदेश में था, जहाँ लीग सबसे ज्यादा मज़बूत स्थिति में थी बावजूद इसके कि एक-तिहाई से भी कम आबादी मुसलमान थी। सुदूर पश्चिम में सिंध, बलूचिस्तान और उत्तर-पश्चिम सीमावर्ती प्रांत में मुस्लिम ज़बरदस्त रूप से बहुलता में थे। मगर अंग्रेजों के कब्ज़े में वे काफी बाद में आये और इस वजह से वे इलाके देहाती पिछड़े हुए क्षेत्र थे जहाँ उन स्थानीय नामी-गिरामियों का वर्चस्व था जो न उर्दू ज़बान बोलते थे और न लीग के प्रति कोई वफादारी रखते थे, और न ही लीग की उन इलाकों में कोई सांगठनिक मौजूदगी थी। पंजाब और बंगाल में, जो भारत के संपन्नतम प्रांत थे और एक दूसरे काफी दूर स्थित थे, मुसलमान बहुसंख्यक थे। पंजाब में उनका संख्याबल ज़रा ही अधिक था मगर बंगाल में अधिक मज़बूत था। इन दोनों ही प्रान्तों में लीग बहुत प्रभावशाली शक्ति नहीं थी। पंजाब में वह नगण्य थी। यूनियनिस्ट पार्टी जिसका पंजाब प्रांत पर नियंत्रण था, बड़े मुस्लिम ज़मींदारों और संपन्न हिन्दू जाट किसानों का गठबंधन था और इन दोनों ही धड़ों के सेना से सम्बन्ध मज़बूत थे और वे अंग्रेज़ी राज के प्रति वफादार भी थे। बंगाल में, जहाँ लीग के नेता प्रांत के पूर्वी हिस्से में बड़ी रियासतों के मालिक कुलीन ज़मींदार थे, राजनीतिक प्रभाव केपीपी (कृषक प्रजा पार्टी) का था जिसका आधार आम किसान वर्ग था। इस तरह प्रांतीय स्तर पर पर्यवेक्षक जहाँ भी नज़र डालते, मुस्लिम लीग कमज़ोर नज़र आती- हिन्दू बहुल इलाकों में उसे काँग्रेस ने सत्ता से परे रखा हुआ था और मुस्लिम-बहुल क्षेत्रों में उसे उसके विरोधी संगठनों ने उपेक्षित कर रखा था। अखिल भारतीय स्तर पर आवश्यक कौशल और जीवट के साथ काम कर सकने वाले एकमात्र मुस्लिम नेता के तौर पर जिन्ना की प्रतिष्ठा ने लीग को बचा लिया। इसी वजह से यूनियनिस्ट, केपीपी और दीगर नेतृत्व अपनी-अपनी प्रांतीय जागीरें बनाये रखते हुए अंग्रेज़ों के साथ केंद्र में बातचीत की खातिर जिन्ना को अपना नुमाइंदा बनाने को राज़ी हुए। यह टुकड़ा-टुकड़ा और असम्बद्ध आलम ही 1937 के चुनावों में काँग्रेस की हेकड़ी का एक कारण था। काँग्रेस आलाकमान के लिए लीग एक चुकी हुई ताक़त थी जिसे नज़र-अंदाज़ किया जा सकता था जबकि दीगर स्थानीय मुस्लिम पार्टियों को अपने सुभीते के अनुसार चुना जा सकता था और अपना सहयोगी बनाया जा सकता था।

महायुद्ध ने इस संरचना को तेजी से बदल देना था। अंग्रेज़,जो मुसलमानों को ग़दर के बाद अपनी रियाया का सबसे खतरनाक हिस्सा मानते आये थे,बीसवीं सदी के आते-आते उन्हें हिन्दू राष्ट्रवाद के सबसे सुरक्षित प्रत्युत्तर के रूप में देखने लगे। अंग्रेज़ी राज के खिलाफ साझा संघर्ष में मुसलमान हिन्दुओं के साथ गुट न बना लें यह सुनिश्चित करने के लिए अंग्रेज़ों ने उन्हें पृथक निर्वाचक मंडल भी प्रदान कर दिया। दूसरी तरफ वे यह भी नहीं चाहते थे कि उपमहाद्वीप में कानून और व्यवस्था कायम करने के उनके दावों की कलई सांप्रदायिक हिंसा
खोल दे और न ही वे अपेक्षाकृत शक्तिशाली हिन्दू समुदाय से,जिसमें उनके अनेकों मित्रवत ज़मींदार और व्यापारी थे,बेज़ा दुश्मनी ही मोल लेना चाहते थे। सो उन्होंने ध्यान रखा कि वे अपने अनुग्रहों में एकदम पक्षपाती न हो जाएँ। मगर काँग्रेस मंत्रिमंडलों के पद त्याग देने के बाद और जब लीग युद्ध कार्य में सरकार को जन समर्थन मुहैया करा रही थी, जिन्ना वाइसराय के पसंदीदा संभाषी बन गए। जीवन पद्धति और दृष्टिकोण में पूर्णतः सेकुलर होने के बावजूद काँग्रेस ने जिन्ना को दशकों से अस्वीकार कर रखा था और काँग्रेस के समाजशास्त्रीय यथार्थ से वे भली-भाँति परिचित थे। जैसा कि सीनियर नेहरू ने, जो अपने बेटे की तुलना में ज्यादा सुस्पष्ट या यूँ कहें कि ज़्यादा साफगोई वाले थे, ध्यान दिलाया था कि काँग्रेस अपनी संरचना में अनिवार्यतः एक हिन्दू पार्टी थी और केंद्र में उसकी सत्ता के उसकी प्रांतीय सरकारों की बनिस्बत मुसलमानों के प्रति ज़्यादा हमदर्द होने की सम्भावना कम थी।

जिन्ना ने, जो अभी तक अपनी बुनियाद के कमज़ोर होने से वाकिफ़ थे और उस वजह से सीमित होने को राज़ी नहीं थे, अंग्रेज़ी राज के आगे कोई एकदम साफ़-साफ़ मांगें रखना टाले रखा था। अब घटनाक्रम से हौसला पाकर उन्होंने नए कार्यक्रम का खुलासा किया। 1940 में लाहौर में उन्होंने घोषणा की कि उपमहाद्वीप में एक नहीं बल्कि दो राष्ट्र हैं और यह कि आज़ादी को उन दोनों के सह-अस्तित्व को इस स्वरूप में समायोजित करना होगा जो उन क्षेत्रों को स्वायत्तता और सार्वभौमिकता दे जिनमें मुसलमान बहुसंख्यक हैं। जिन्ना के निर्देशानुसार लीग ने जो प्रस्ताव पारित किया उसका शब्दांकन जानबूझ कर अस्पष्ट रखा गया; उसमें संघटक राज्यों के बारे में बहुवचन में बात की गई थी और 'पाकिस्तान' लफ्ज़ का इस्तेमाल नहीं किया गया था - जिसके बारे में जिन्ना ने बाद में शिकायत की थी कि काँग्रेस ने उन्हें ऐसा करने के लिए बाध्य किया था। उस पदबंध की अस्पष्टता के पीछे जिन्ना की अनसुलझी कशमकश थी। लगभग समान रूप से मुसलमान बाहुल्य वाले इलाकों को स्वतंत्र राष्ट्र के गठन के लिए संभव उम्मीदवार समझा जा सकता था। मगर क्या कम बाहुल्य वाले इलाकों में भी वही संभाव्यता थी? और सर्वोपरि यह कि बाहुल्य वाले इलाके कल्पित भारत से अगर अलग हो गए, तो पीछे रह जाने वाले उन अल्पसंख्यकों का क्या होगा जो जिन्ना का अपना राजनीतिक आधार थे? क्या उन्हें किसी प्रकार के व्यापक संघ की ज़रूरत न होगी जिसमें मुस्लिम अवाम बहुसंख्यक हिन्दू मर्जी के मनमाने इस्तेमाल से अपना बचाव कर सकें? इन सारी दिक्कतों के मद्देनज़र क्या नहीं कहा जा सकता कि जिन्ना स्वयं झाँसा दे रहे थे- वास्तविक महत्तम हासिल करने के लिए अवास्तविक मांगों को सौदेबाजी के तौर पर सामने रख रहे थे? उस दौरान बहुत सारे लोगों को ऐसा ही लगा था और उसके बाद भी इस बात को मानने वाले कुछ कम नहीं।

लाहौर प्रस्ताव को चाहे जितना चमकाने की कोशिश की जाए,तब तक यह साफ़ हो चुका था कि आज़ादी अपने-आप में उस शाश्वत एकता की गारंटी नहीं होगी जिसकी बात काँग्रेस के विचारक अक्सर किया करते थे। हिन्दू और मुसलमान राजनीतिक अस्मिताओं की प्रतिद्वंद्विता ने उस एकता के लिए पैदा किया खतरा आसन्न और सुस्पष्ट था। नेहरू की प्रतिक्रिया क्या थी? 1935 में अपनी आत्मकथा के एक विशिष्ट परिच्छेद में उन्होंने भारत में एक मुस्लिम राष्ट्र के होने की संभावना को नकार दिया था: 'राजनीतिक तौर पर यह विचार बेतुका है, और आर्थिक रूप से खामख्याली; यह गौर किये जाने लायक है ही नहीं।' 1938 में उनसे मिलने आये कुछ अमेरिकियों से उन्होंने कहा कि 'भारत में कोई धार्मिक या सांस्कृतिक संघर्ष नहीं है और सदियों से चली आई उसकी अनिवार्य एकता भारत का अद्भुत और सारभूत तत्व है।' अपने एक निबंध में उन्होंने दावा किया था कि 'भारत की एकात्मकता के लिए कार्यरत ताक़तें दुर्जेय और ज़बरदस्त हैं और कोई अलगाववादी प्रवृत्ति इस एकात्मकता को तोड़ डालेगी ऐसी कल्पना नहीं की जा सकती।' लाहौर प्रस्ताव के बाद, 1941 में वह प्रवृत्ति उनके सामने मुंह बाए खड़ी थी मगर अपने उस निबंध को पुनर्प्रकाशित करते हुए उन्हें अपने इस दावे को बदलने की कोई ज़रूरत नहीं महसूस हुई।

वेवल जो महायुद्ध के दौरान भारत में फौज के प्रधान सेनापति थे, 1945 के आते-आते वाइसराय बन गए। वे जानते थे कि साम्राज्यवादी खेल ख़त्म हो गया है। उनकी टिप्पणी: 'अपने खिलाफ़ बहुत भारी संख्या में खड़े विरोधी पक्ष को देखकर पीछे हटने को मजबूर होने वाली सैन्य शक्ति की जो हालत होती है वैसी ही हमारी वर्तमान स्थिति है।' महायुद्ध के दौरान भारत छोडो आन्दोलन छेड़ने के जुर्म में जेल में बंद नेहरू और उनके सहकारियों को जून में रिहा कर दिया गया और सर्दियों में प्रान्तों और केंद्र के चुनाव हुए जो 1935 के मताधिकार पर ही आधारित थे। नतीजे काँग्रेस के लिए खतरे की घंटी की तरह थे और होने भी चाहिए थे। मुस्लिम लीग न सिमटी थी और न ओझल हुई थी। अपने संगठन को खड़ा करने के, उसकी सदस्यता बढ़ाने के, अपना दैनिक पत्र निकालने के और जिन प्रांतीय सरकारों से अब तक उन्हें दूर रखा गया था उनमें अपने कदम जमाने के कामों में जिन्ना ने महायुद्ध के दौर का इस्तेमाल किया था। 1936 में एक ठंडा पड़ चुका उबाल कह कर नकार दी गई मुस्लिम लीग ने 1945-46 में भारी जीत हासिल की। उसने केंद्र के चुनावों में हर एक मुस्लिम सीट और प्रांतीय चुनावों में 89 प्रतिशत मुस्लिम सीटें जीत लीं। मुसलमानों के बीच अब उनकी प्रतिष्ठा वैसी हो चली थी जैसी हिन्दुओं में काँग्रेस की थी।

आज़ादी के लिए सभी दलों को स्वीकार्य संवैधानिक ढाँचे के बारे में बातचीत करने के लिए लेबर पार्टी की सरकार ने लन्दन से कैबिनेट मिशन भेजा। जिस संघीय रचना का प्रस्ताव मिशन ने अंततः रखा वह लाहौर में जिन्ना द्वारा सामने रखी गई व्यवस्थाओं से कुछ मिलता-जुलता था। हालाँकि अब तक मुस्लिम लीग का रुख काफी कड़ा हो गया था, फिर भी दोनों पार्टियों ने पहलेपहल इस योजना के प्रति अपनी सम्मति दर्शाई। दो हफ़्तों बाद नेहरू उस से मुकर गए और घोषणा की काँग्रेस अपने मन की करने के लिए स्वतंत्र है। राजनीतिक नेता के तौर यह उनका पहला विशुद्ध रूप से व्यक्तिगत निर्णय था। उनके कट्टरपंथी सहकर्मी वल्लभभाई पटेल ने तक उसे 'जज़्बाती अहमकपन' करार दिया मगर कमान से निकला हुआ तीर वापिस नहीं आ सकता था। इसके जवाब में जिन्ना, जिन्होंने सड़कों पर किये जाने वाले विरोध प्रदर्शनों को भीड़ से की गई लापरवाह अपील मानते हुए हमेशा उनकी निंदा की थी, ने संसदीय तरीके को लेकर मुसलमानों का धैर्य अब टूट चुका है यह दर्शाने के लिए 'सीधी कार्रवाई के दिन' की घोषणा कर दी। अभिजात स्तर पर दांव खेलने में माहिर सियासतदां के तौर पर जिन्ना का जनसामूहिक कार्रवाई में  कोई अनुभव नहीं था और उन्हें उसके संचालन और नियंत्रण का भी अंदाज़ा नहीं था। कलकत्ते में सांप्रदायिक मारकाट मच गई। मुस्लिम गुंडों द्वारा शुरू की गई यह मारकाट जब ख़त्म हुई तो दोनों समुदायों के सापेक्ष संख्याबल के मद्देनज़र अपरिहार्य रूप से हिन्दुओं की तुलना में कहीं ज़्यादा मुसलमान मारे जा चुके थे।

हर संभव तरीका अपनाकर देख लेने के बाद हार कर वेवल ने एक अंतरिम सरकार बनाई जिसकी अगुवाई प्रधानमंत्री के तौर पर नेहरू कर रहे थे और पटेल आतंरिक मंत्री थे। लीग द्वारा किये गए शुरूआती बहिष्कार के बाद जिन्ना के सहायक लियाक़त अली खान अंतरिम सरकार में वित्त मंत्री बने। हर पार्टी दूसरी के आड़े आने पर आमादा थी। प्रांतीय चुनावों के नतीजों के आधार पर नामजद किये गए नुमाइंदों को लेकर बनी संविधान-सभा का लीग ने बहिष्कार किया। संविधान-सभा में काँग्रेस इस कदर हावी थी और इसके लिए सैद्धांतिक रूप से सरकार की ही ज़िम्मेदारी बनती थी, कि  काँग्रेस ने लियाक़त के संपत्ति कर के प्रस्ताव को इस आधार पर रोक दिया कि चूँकि ज़्यादातर व्यापारी हिन्दू हैं, ऐसा करना धार्मिक पक्षपात होगा। तो यह परिस्थिति थी जब फरवरी 1947 में एटली सरकार ने घोषणा की कि जून 1948 तक भारत को आज़ादी मिल जायेगी और हस्तांतरण के प्रभारी के तौर पर वाइसराय का काम संभालने माउंटबेटन को रवाना किया।
जारी--
भारतभूषण तिवारी

यह टुकड़ा मशहूर इतिहासकार पेरी एंडरसन की हाल में `थ्री एसेज़ कलेक्टिव` से
आई किताब `द इंडियन आइडियोलॉजी` से लिया गया है। इसका हिंदी अनुवाद पेशे से इंजीनियर और लत से पढ़ाकू भारतभूषण तिवारी ने `समयांतर` पत्रिका के लिए किया है। वे अंग्रेजी और मराठी के जनप्रतिबद्ध लेखन से हिंदी पाठकों का परिचय लगातार कराते रहे हैं।

Monday, January 21, 2013

शमशेर : कुछ निजी नोट्स - शुभा (अंतिम किस्त)


(पिछली दो कड़ियों से जारी)

शमशेर की कविता में गहरी आत्मीयता है। इस आत्मीयता के कारण उनके यहां प्रेम के अछूते चित्र और उमंग भरी कल्पना मौजूद है। सिकंदर पर लिखी उनकी एक अद्भुत कविता है। आर्यों के आने से पहले हिंदुस्तान के हमलावरों पर एक टिपण्णी के साथ वे कविता में हिंदुस्तान के बच्चों, सिकंदर, खीर, और रसमलाई का जो खुशनुमा रास रचाते हैं, उसमें हमलावर सिकंदर एक बड़े प्यारे मेहमान की तरह सामने आता है, जिसे बच्चे बड़े करीने से एक सबक़ भी देते हैं। बच्चों के गीत में कुछ यूनानी ध्वनियों के साथ वह एक समूह गान की रचना में शामिल होता है। इस समूह गान में लय के माध्यम से एक नृत्य की रचना भी शामिल है। सिकंदर को इस रूप में शमशेर ही देख सकते थे। शमशेर की कविता में बच्चों, स्त्रियों, मित्रों और मज़दूरों की प्रगाढ़ उपस्थिति है। इस उपस्थिति में संबंधों की मौलिक परिकल्पना मौजूद है। इस परिकल्पना में मानवीय संवेदना की जगह है, अपने से भिन्न को पहचानने की जगह है और सत्ता संबंधों का ढांचा इससे एक निश्चित दूरी पर रहता है। व्यक्तियों में शमशेर की दिलचस्पी उनकी आत्मीयता की आदत के कारण ख़ास है। उनकी कविता में सिकंदर, मदर टैरेसा से लेकर मुक्तिबोध तक अनके व्यक्ति-चरित्र ठोस रूप से मौजूद हैं। शमशेर ने व्यक्तियों पर जो कविताएं लिखीं, उनमें अज्ञेय, नागार्जुन, नेमिचंद्र जैन, रज़िया सज्जाद ज़हीर, भारत भूषण अग्रवाल, प्रभाकर माचवे, भुवनेश्वर आदि शमशेर के साथ एक विशेष संबंध के साथ और अपने विशेष व्यक्तित्व के साथ मौजूद हैं। इन कविताओं में एक दौर के इतिहास की गूंजें मौजूद हैं। शमशेर की शोख़ी, छेड़ख़ानी और शरारत भी इन कविताओं में मौजूद है। अज्ञेय के जन्मदिन पर वे अज्ञेय को एक कविता भेंट करते हैं :


अज्ञेय- - एय
         तुम बड़े वो हो
         (क्या कहा मैंने)
         तुम बड़े वो हो
         (बड़े ध्येय)
         आधुनिक परिवेश में तुम
         बूर्ज़्वाज़ी का करुणतम व्यंग्य
         बहुत प्यारा सा
                        काव्य दक्षिण है तुम्हारा रूपाकार
                        कथा वाम (वामा)
                        कथा जो है अकथनीय
                        गेय जो अज्ञेय (ख़ूब)


और आख़िर में ये बिंब :
                            
                                 हाथी दांत के मीनार पर
                                 चांद का घोंसला


शमशेर मोटे विचाराधारात्मक विमर्श के बजाय एक वैकल्पिक मूल्य-व्यवस्था को सामने लाते हैं, जतन से बनाते हैं, जो उनकी पक्षधरता से मेल खाती है। यह चुनाव कविता के माध्यम के लिए उपयुक्त है और शमशेर की प्रकृति के अनुरूप है। शमशेर अपने समय की गुत्थियों को सत्ता संबंधों के बीच नहीं, अपने द्वारा रचे गये अपने इसी स्पेस में ले जाकर सुलझाते हैं।


शमशेर के क़रीब जाने का तरीक़ा वही सबसे अच्छा है जिस तरीक़े से वे ख़ुद किसी को भी अपनी कविता में लाते हैं। कविता में आने से पहले हर चीज़ उनके दिल से गुज़रती है। एक रचनात्मक एकांत उनका ठिकाना है। वे पोलिमिक्स को बाहर छोड़ देते हैं लेकिन पक्षधरता को नहीं। पक्षधरता की ज़मीन पर ही उनके रचनात्मक एकांत का सुहावना, उदास और जीवट भरा ठिकाना है।

यह लेख `नया पथ- जुलाई-सितंबर-2011` अंक से साभार।
शुभा- 09896310916

Thursday, January 17, 2013

शमशेर : कुछ निजी नोट्स - शुभा (दूसरी किस्त)


(पिछली पोस्ट से जारी)
2

शमशेर अपने ढंग के मार्क्सवादी हैं। वे धर्म को बाई-पास नहीं करते। ख़ास तौर से इसलिए कि साम्प्रदायिक दंगे, विभाजन, हिंदी और उर्दू की त्रासदी उनके भावनात्मक ढांचे और संवेदना में घुल गयी थी। ये मामले उनके लिए सिर्फ़ वैचारिक मामले नहीं थे। उनके लिए उर्दू के छंद और हिंदी के छंद अलग नहीं थे। उनकी चेतना में हिंदी और उर्दू के बीच वह पार्थक्य नहीं था जो एक सामान्य बात होती जा रही है और लगभग सबने उसे ख़ामोशी से स्वीकार कर लिया है। शमशेर इसे जीवन भर स्वीकार नहीं कर सके। शमशेर को जीवन भर एक ही स्मृति आकर्षित करती है, जैसे यह शमशेर की स्मृति में बिंधा एक आद्य बिंब है :

                               जिसमें कल नहीं परसों
                               सब मिलकर हंसते थे किलकारी मारकर
                               हंसते थे
                               जब हमें दुनिया भर के बच्चे
                               अपने ही जैसे प्यारे
                               मासूम और पवित्र लगते थे


शमशेर के यहां अगला जनम, पिछला जनम, अल्लाह, ईश्वर, खुदा और भी बहुत से आध्यात्मिकता से जुड़े परिकल्पनात्मक शब्द एक अभूतपूर्व ऐतिहासिक संदर्भ से जुड़े हैं। `ईश्वर अगर मैंने अरबी में प्रार्थना की तो` कविता में ईश्वर, प्रार्थना और आस्था आदि शब्दों का एक ठोस संदर्भ है :
                                  
                                आज वो नहीं है जो सुना
                                और कंठस्थ किया जाता है!
                                छपे काव्य / लिपि संबंधी
                                दंगे
                                संस्कृति
                                बनने लगे हैं
                                जिसका शोध मेरे लिए दुरुहतम
                                साहित्य है
                                जन्म भर की आस्था के
                                बावजूद।

इन पंक्तियों में धर्म और ज्ञान के उस दौर की भी स्मृति है जब काव्य छपता नहीं था और ऋचाएं व आयतें कंठस्थ की जाती थीं।


कहीं  बहुत दूर से सुन रहा हूं (प्रथम संस्करण, 1995, राधाकृष्ण) शमशेर की अनुपस्थिति में छपा पहला काव्य संग्रह है। इसमें संपादिका द्वारा शमशेर का एक नया प्रोजेक्शन है। कविताओं के चयन में भी यही दृष्टि सक्रिय है। भूमिका में लिखा गया है : `शमशेर जी भीतर से गहरे तक कहीं आध्यात्मिक थे। संपूर्ण रचना-रूप भी अंदर-बाहर से ऐसा ही था। आज तक मार्क्सवाद और रूपवाद की लड़ाई में उनकी असली कविता मानो हमारे हाथों से फिसल गयी।`
`असली` का अर्थ यहां जो भी लिया जाये, शमशेर समृद्ध आत्मपक्ष रखने वाले सारपूर्ण कवि हैं और वे स्मृति के बीच एक द्वंद्वपूर्ण तनाव की रचना करते हैं। वे ठोस और अमूर्त के बीच ऐसा द्वंद्वात्मक संबंध कायम करते हैं जो हमारे दौर की विडंबना, एक स्वपन को व स्वपन से दूरी को एक साथ सामने लाता है। उनके संदर्भ में, और वैसे तो अधिकांश कवियों के संदर्भ में, आध्यात्मिक होना न होना एक अप्रासंगिक बात है। मीरा की आध्यात्मिकता के बावजूद उनकी पार्थिवता उनके काव्य में मौजूद है, उनके काव्य में पार्थिव स्त्रियों की गूंज मौजूद है, वे स्त्रियां जो सामंती समाज में क़ैद रहीं, जिन्होंने आज़ादी की इच्छा की, जो अकेलेपन से घिरी रहीं लेकिन उन्हें अपना एकांत उपलब्ध नहीं हुआ। उस काव्य में विधवा स्त्री की पार्थिव इच्छाएं और उनके लिए ठोस संघर्ष मौजूद है। यह सारवस्तु इतनी पार्थिव है, सामाजिक है, ठोस है, संसारी है कि मीरा की आध्यात्मिकता ही नहीं आध्यात्मिकता मात्र को एक लौकिक परिप्रेक्ष्य में पुनः परिभाषित करने की जरूरत है। आध्यात्मिकता एक लौकिक परिघटना है। देश और काल के अंदर, एक इतिहास के अंदर, ठोस भूगर्भों में ठोस जातियों, प्रजातियों, समूहों और समाजों के बीच ही ईश्वर और आध्यात्मिकता का जन्म हुआ है। इसमें इतनी विविधता इसलिए है कि यह साधारण मनुष्यों के दुखों, खुशी, एकांत और इच्छाओं से बने हैं।


`धार्मिक दंगों की राजनीति`, मुरादाबाद दंगों के संदर्भ में लिखी गयी `रुबाइयां`, `प्रेम की पाती (घर के बसंता के नाम)`, `आओ उनकी आत्मा के लिए प्रार्थना करें`, `हैवां ही सही`, `यह क्या सुना है मैंने` और `ईश्वर अगर मैंने अरबी में प्रार्थना की तो` जैसी कविताओं, साम्प्रदायिक घटनाओं के संदर्भ में लिखी गयी कविताओं या दूसरी अनेक कविताओं में भी जगह-जगह साम्प्रदायिक परिघटना के संदर्भ और गूंज मौजूद हैं। इसके अलावा शमशेर के यहां हर कविता में लॉस (हानि) का जो एक अनुभव समाया हुआ है उसका एक महत्वपूर्ण केंद्र यह साम्प्रदायिक विभाजन है। `ओ मेरे घर` में पृथ्वी से शिकायत करते हुए वे कहते हैं :

                                         मुझे भगवान भी दिये कई-कई
                                                  मुझसे भी निरीह मुझसे भी निरीह!

उर्दू और हिंदी का मामला शमशेर के यहां दो भाषाओं के बीच झगड़े की तरह नहीं आता, वह एक आत्मीय संबंध और उस पर हुई चोट की तरह आता है :
                                               
                                               वो अपनों की बातें, वो अपनों की ख़ू-बू
                                               हमारी ही हिंदी, हमारी ही उर्दू!
                                                
                                               ये कोयल्-ओ-बुलबुल के मीठे तराने
                                               हमारे सिवा इसका रस कौन जाने!


अपनों की बातें, अपनों की खू़-बू, कोयल और बुलबुल के मीठे तरानों की याद के साथ उस पर हुई चोट, उसका दर्द, उसकी हानि शमशेर की कविता की बुनावट में मौजूद है। `टूटी हुई, बिखरी हुई` उर्दू की ज़मीन पर लिखी गयी कविता है जिसमें एक रूमानी अनुभव और उसकी हानि हर रेशे में मौजूद है। ज़ाहिर है, यह रोमान और हानि का एक ऐतिहासिक संदर्भ है जिसमें शमशेर का `निजी` अनुभव भी शामिल है।



3

शमशेर की एक कविता है `कन्या`। शुरू होती है यूं :

                सूरज जो
                         गुलाब बनने के सपने के
                         बीच से झांक रहा था
                 वह अल्हड़पन कहां से लाता
                         वह प्यारा कन्या रूप

कविता शुरू होते ही कन्या को सूरज से इस तरह अलग किया गया है कि न सूरज का मूल्य कम हुआ है न कन्या का। सूरज में भी गति है, उसके भी नये-नये रूप हैं, यह उसका सबसे कोमल रूप है। सुबह का सूरज जो गुलाब बनने का सपना देखते हुए उसके बीच से झांक रहा है। सपना खुद एक झिलमिलाहट की तरह होता है। सूरज साफ़ सामने नहीं आया है अभी तो वह `झांक` रहा है। यह कविता उस सुबह, उस दुनिया की कविता है जहां सूरज अपनी गर्मी आदि की शेख़ी में नहीं है। ऐसा मानवीय समय जब सूरज और गुलाब के बीच एक सपना है या कहें कि सूरज गुलाब बनने के सपने के समय में है। और यह परी का चित्र है :

                    मगर वह कोमलता
                              जो किरन को घुला रही थी
                              धूप को पानी कर रही थी
                     जो हंस रही थी


                      वह देवी का गुड़िया रूप
                                 जो आंख झपकाता था
                       और मक्खन सी गहरी गुलाबी हथेलियों को
                                  मुंडेर पर टिकाये हुए था
                        जहां उसके नन्हे पवित्र वक्ष
                                   दीवार को कंपा रहे थे
                        और उसकी आंखों से फूल बरस रहे थे


लेकिन यह परी का चित्र नहीं है। परियों के पंखों की बात की जाती है। यहां हथेलियां हैं, मुंडेर पर टिकायी हुई और नन्हे पवित्र वक्ष हैं जिनमें ऐसा गुण है (मैं शक्ति शब्द छोड़ रही हूं) कि जो दीवार को कंपा रहा है। दीवार कांप नहीं रही, उसे कंपाया जा रहा है और यह `गुण` अकेला नहीं है। इसी गुण की अभिव्यक्ति आंखों से फूलों के बरसने में हो रही है, जो `अल्हड़पन` में भी अभिव्यक्त हो रहा है। और यह गुण है, ऐसी कोमलता जो किरणों को घुला रही है, धूप को पानी कर रही है यानी सभी को बदल रही है। जिसको कविता के शुरू में ही `वह प्यारा कन्या रूप` कहा गया या `देवी का गुड़िया रूप` कहा जा रहा है, लेकिन यह रूप `आंख झपकाता था`, इसलिए यह न देवी है न गुड़िया।


यह वास्तव में देवी नहीं, परी नहीं, गुड़िया नहीं बल्कि एक `सुकुमार स्वस्थ बाला` है जो `यों ही मुक्त अकारण हंसी हंस कर, अंदर चली गयी ओट में।` यहां एक किशोरी को देखने के सभी स्टीरियोटाइप्स को तोड़ दिया गया है तभी यह `स्वस्थ बाला` दिखायी पड़ रही है।

ज़ाहिर है, यह कोई आध्यात्मिक कविता नहीं है। एक युवा होती किशोरी लड़की की सुबह, उसका उल्लास, उसमें छिपी ऊर्जा और उसके गुणों की एक तस्वीर है। एक स्वस्थ बाला को ऐसी तटस्थता से देखकर शमशेर बड़ा ज़रूरी काम कर रहे हैं। यह 1959 में लिखी गयी कविता है। आज युवा लड़कियां जिस बड़े पैमाने पर हिंसा और यौन उत्पीड़न का शिकार हो रही हैं और कन्या भ्रूण हत्या के कारण लिंग अनुपात ही गड़बड़ा गया है, ऐसे समय में कविता का बड़ा भारी मूल्य है। एक रुग्ण समाज में `यह सुकुमार बाला` जनतंत्र के लिए एक चुनौती है।


इस कविता में मौजूद इंद्रियबोध न तो पुरुष-दंभ और उद्दंडता के रूप का है और न किसी भावभीने मानवतावादी गीतिवाद का। यह इंद्रियबोध ऐसे व्यक्ति का इंद्रियबोध है जो एक किशोरी की स्वतंत्रता का क़ायल है, जिसके यहां नैतिकता और इंद्रियबोध अलग-अलग अपवर्जी चीज़ नहीं है। यह सौंदर्य दृष्टि शमशेर की मौलिक देन है। वे मार्क्सवादी हैं और उनकी सौंदर्य दृष्टि एक `वल्नरेबिल`को उसके स्पेस में उसके गुण सहित दिखाती है और इस तरह दिखाती है कि वह प्रतिष्ठित हो जाये। यह जगह शमशेर की कविता कई तरह से बनाती है। `अमन का राग`, `टूटी हुई, बिखरी हुई`, `नीला दरिया बरस रहा है` जैसी कविताएं ही नहीं, शमशेर का अधिकांश काव्य यह काम करता है।


इस `वल्नरेबिल` की जो समृद्धि शमशेर के यहां मौजूद है, उसी के कारण शमशेर की कविता एक रंगशाला और चित्रशाला की तरह है। उसमें एकांत है उजाड़ नहीं। उसमें उदासी है निराशा नहीं। उसके सभी रंगों में एक लॉस का, खोने का रंग मिला है, इसलिए उनकी कविता किसी समाप्त हो गयी प्रेमकथा की तरह न होकर एक ऐसी प्रेमकथा की तरह है जिसमें आश्रय और आलंबन के बीच एक गहरा एवं गाढ़ा रिश्ता है। इसके रास्ते में मुश्किलें हैं जिन्हें हम कह सकते हैं अमल की मुश्किलें :

                     हक़ीकत को लाये तख़ैयुल से बाहर
                     मेरी मुश्किलों का जो हल कोई लाये

जारी (एक और क़िस्त बाक़ी)...
(शुभा का यह लेख `नया पथ` के जुलाई-सितंबर : 2011 से साभार) 

ऊपर- शमशेर की तस्वीर लक्ष्मीधर मालवीय के कैमरे से जो असद ज़ैदी के जरिये मिली।

नीचे - शुभा की करीब 30-35 बरस पुरानी तस्वीर।

Monday, January 14, 2013

शमशेरः कुछ निजी नोट्स - शुभा


शमशेर के बारे में हिंदी जगत में जैसे एक रूढ़ि बन गई है कि वे बड़े मुश्किल कवि हैं या वे रूपवादी हैं या वे मार्क्सवादी हैं, या वे प्रयोगवादी और सुर्रियलिस्ट हैं या वे चित्रकला के बोध और औज़ारों का प्रयोग कविता में करते हैं। यह धारणा भी है कि वे प्रणय-चित्रो के कवि हैं। और भी बहुत सी धारणाएं शमशेर  के बारे में प्रचलित हैं। इनमें से अधिकतर धारणाओं में सच्चाई के अंश भी मौजूद हो सकते हैं लेकिन शमशेर हिंदी कविता के बड़े प्रतिष्ठित और आदरणीय कवि होते हुए भी बहुत कम समझे गये कवि हैं। बने-बनाये सांचों (स्टीरियोटाइप) की नज़र से देखने की प्रवृत्ति के चलते शमशेर की समग्रता और उनकी रचना का केंद्र सामने नहीं आ पाया है। हिंदी कविता को उसकी कुछ पुरानी सीमाओं से मुक्त करने वाले कवि के तौर पर शमशेर की पहचान अभी नहीं हो सकी है। खंडित दृष्टि, वितंडा और पंडिताऊपन की प्रवृत्तियां भी शमशेर को समझने में बड़ी बाधाएं हैं। शमशेर के काव्य की विषय वस्तु पर भी शिल्प के मुक़ाबले कम चर्चा हुई है। मुक्तिबोध ने हिंदी में `सामान्यीकरण` की `बुरी आदत` की चर्चा शमशेर पर लिखी अपनी टिपण्णी में की है। शमशेर व्यंजना या ध्वनि के कवि हैं। इस ध्वनि के संदर्भ बहुत अधिक ठोस व ऐतिहासिक हैं, वे सामान्यीकृत और औसत न होकर विशेष हैं। संभवतः इस कारण भी शमशेर को समझना अभी तक मुश्किल बना हुआ है। शायद इसीलए आलोचकों ने शमशेर पर जमकर नहीं लिखा।

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शमशेर एक बड़े पाक-साफ़ व्यक्ति और कवि हैं। यह पाक़ीज़ग़ी किसी सती-सावित्री की पाक़ीज़ग़ी नहीं है, एक आशिक़ की पाक़ीज़ग़ी है। वे हमारे समय के सरमद हैं। क्या खुशनसीबी है! इस कमबख़्ती के दौर में, आलम-ए-नापायेदार में ऐसा साबुत क़दम हमारे बीच हुआ।

सबसे पहले, शमशेर हिंदी के ऐसे कवि हैं जिनकी हिंदी चेतना विभाजित नहीं है। वे अपने ढंग के अकेले कवि हैं जो हिंदी-उर्दू के ऐसे सम्मिलित प्रवाह में रहते हैं जो हिंदी प्रदेश कहे जाने वाले इलाक़े की कोख से ही संभव हुआ। हिंदी और उर्दू जुड़वां भ्रूण की तरह इसकी कोख में आये और रहे। हमारे साबुत दिल आशिक़ शमशेर भी इसी गुनगुनी कोख के जीवनदायी द्रव में, उसके प्रवाह और झंझाओं में रहते आये। इस कोख़ के क्षतिग्रसत किये जाने के बाद भी वह शमशेर की स्म़ति में रहती आयी। शमशेर खुद उस कोख में तब्दील हो गये।

शमशेर हमारे इलाक़े के मार्क्सवादी सूफ़ी कवि हैं। बदहाली के बावजूद इस इलाक़े के समाज और समृद्ध संस्कृति के ख़ज़ाने को समझने में न जाने कितनी नयी विश्लेषणकारी श्रेणियां सामने आयेंगी। सूफ़ियों की तरह शमशेर सच्चे रोमांटिक हैं और मार्क्सवादी की तरह कठोर यथार्थवादी हैं। वे ऐसी मधुमक्खी हैं जो नीम के फूल से बड़ा मीठा शहद बनाती है। वे शहद के छत्ते की रक्षा के लिए मधुमक्खी वाला डंक भी रखते हैं। इसीलिए हिंदी आलोचक उनके प्रति एक तरह की उदासीनता बरतते हैं। वैसे भी सदगृहस्थ सच्चे आशिक़ों से सुरक्षित दूरी बनाकर रहते हैं और चोरी छुपे तथाकथित प्रेम-प्रसंग पकाया करते हैं।

शमशेर प्रेममार्गी हैं। उन्होंने प्रेममार्ग को मध्ययुगीन आध्यात्मिकता के झुटपुटे से निकालकर यथार्थवाद की रोशनी में खड़ा कर दिया। औद्योगिक युग के उत्पीड़ितों-वंचितों, बिखरे अकेले उदास मज़दूरों और कम्युनिस्टों की तड़प से इस रास्ते को आबाद किया। वह पक्षधरता जो इकतरफ़ा लगती है, होती नहीं। एक ऐतिहासिक विफलता के भीतर छिपे सबसे क़ीमती मानवीय सार को रंग और रूप सहित शमशेर ने विलक्षण अभिव्यक्ति दी है। एक समग्र या कहना चाहिए पूरी तरह संगत सेंसिबिलिटी आश्चर्यजनक है, खासतौर से एक रोमेंटिक अंतर्प्रवाह की लगातार गाढ़ी होती उपस्थिति के बीच। मुक्तिबोध के अलावा इस तरह की समग्र सेंसिबिलिटी का कोई दूसरा उदाहरण नहीं, हालांकि मुक्तिबोध ज्ञानमार्गी हैं। मुक्तिबोध और शमशेर दोनों एक साथ हमारे पास हैं। एक के पास वैज्ञानिक की बेचैनी है, साहस है; दूसरे के पास आशिक़ की तड़प है, धैर्य है। यह हिंदी साहित्य में हमारी पिछली सदी का सबसे ख़ूबसूरत चित्र है, उपलब्धि है। यह एक मशाल की तरह है।

कम्युनिस्ट आंदोलन में बिखराव के बाद शमशेर ने पहला काम यह किया कि तमाम फ़ालतू चीज़ें जीवन से निकालकर एक अवकाश तैयार किया, एक फुर्सत, एक परिस्थिति, अपने लिए, अपने भीतर, अपने आस-पास ताकि रचना की जा सके। शमशेर ने व्यर्थ की उठापटक और संबंधों से अपने को अलग किया। यह उनकी `स्ट्रेटजी` थी जो उन्हें अकेले ही बनानी थी। यह शमशेर की पॉलिटिक्स भी है, गहरी पॉलिटिक्स। शमशेर के बिंब, रंग और ध्वनियां उनके एकांत में ही जीवित होती हैं। शमशेर का यह रचनात्मक एकांत एक वैकल्पिक दुनिया है जो भागने से या मिथ्याकरण से नहीं, यथार्थ के बीच एक सलेक्शन से बनी है। यहां शमशेर बड़े आज़ाद व्यक्ति हैं, तात्कालिक बाहरी दबावों से मुक्त. ऊंची-नीची सीढ़ियों और फांकों में बंटी चेतना से अलग, अपने भीतरी दबावों को जगह देते हुए वे एक पक्षधरता की रचना करते हैं। इस पक्षधरता के कारण शमशेर की कविता में हर क्षण एक मानवीय उपस्थिति है, एक साक्षी की उपस्थिति है। इस कविता में हर रंग, शब्द ध्वनि और ख़ामोशी एक सटीकता और भिन्नता (डिस्टिंक्शन) पैदा करती है। यह भिन्नता जैसे स्वयं एक प्रमाण की तरह है। यहां किसी चीज़ का औसतीकरण नहीं होता, हर चीज़ विशेष है, हर संबंध विशेष है। यहां कोई संबंध, कोई संवेदना, कोई रेखा फ़ालतू जगह नहीं लेती। जैसे यहां हर चीज़ वस्तुगत है, अपनी धड़कन और अपनी सांसों सहित अपने अवकाश में उपस्थित है। अगर किसी को शमशेर अतिवादी लगते हैं तो इसलिए कि उनकी वैकल्पिक दुनिया में बदले हुए अनुपातों के द्वारा वस्तुगत को या कहें एक संवेदन-सत्य को हासिल किया गया है। शमशेर का `महीन-युग-भाव` उनके ऐसे बटख़रे हैं जो मिलीमीटर और मिलीलीटर के सौंवे हिस्से को भी पूरा पकड़ लेते हैं। यह महीन पकड़ एक न्याय चेतना है जो बोध में घुली हुई है और सेंसिबिलिटी की संगत में व्यक्त होती है। इसमें बोध और विचार के बीच झोल नहीं है, असंगति नहीं है, कोई दोग़लापन नहीं है, कुछ भी दूसरों को दिखाने के लिए बाहर से नहीं बटोरा गया है, हर चीज़ संवेदना से छनकर आयी है। इसीलिए शमशेर की हर कविता में प्रेम मौजूद है। इस कविता में कोई `अन्य` नहीं है। इस कविता में संवेदना का प्रक्षेपण बहुत है, प्रदर्शन बिल्कुल भी नहीं। शमशेर की आत्मस्थता री गुणवत्ता के कारण ही उनकी कविता ऐसी है जैसे अपने से बात कर रहे हों, जैसे अपने बिल्कुल क़रीबी से बात कर रहे हों। कोई अतिरिक्त ऊंची आवाज़, कोई झल्लाहट, कोई चिल्लाहट उनके वातावरण में नहीं है। हालांकि वे सत्ता संबंधों को स्वीकार नहीं करते थे, साम्प्रदायिक परिस्थिति से वे लगातार दुखी रहे, उस पर कविताएं लिखीं, उन कविताओं में अथाह दुख और अथाह प्रेम मौजूद है। शमशेर की कविता में ंमौजूद अविभाजित दुख और अविभाजित प्रेम ही सूफ़ियों वाले गुण पैदा करता है। सुर्रियलिस्टिक शैली उनकी तात्कालिक कार्यनीति है जो लंबी स्ट्रैटेजी को बनाए रखने के काम आती है। शमशेर कोई भोले-भाले प्रेमी नहीं हैं। वे सत्ता संबंधों को समझते हैं, उन्हें निश्चित दूरी पर रखते हैं, वर्ग-विषमता को पहचानते हैं, वे  कम्युनिस्टों के संघर्ष और ऐतिहासिक विफलता को समझते हैं, वे उनसे निकली इच्छाओं, आदर्शों, दुखों के साथ हैं, साम्राज्यवाद के मंसूबे वे समझते हैं और एक अंतर्राष्ट्रीय वैश्विक चेतना रखते हैं। वे यथार्थ को स्वीकार करते हैं। कम्युनिस्ट आंदोलन के बिखराव पर पूंजीवादी व्यवस्था में लोगों के अंदर पैदा होने वाले बेग़ानेपन (सेल्फ एलिनेशन) के ख़िलाफ़ वे एक सजग व्यक्ति-चेतना से प्रतिबद्ध रहे। यह व्यक्ति चेतना `इंसानियत की तलछट में छोड़े गए स्वाद` से `शराब` खींचती है और आत्मविस्मृति, बेग़ानेपन और अवमूल्यन को परे धकेलती हुई एक मनुष्य व्यक्ति की स्मृति को क़ायम रखती है। यह पूंजीवादी जनतंत्र में ऐतिहासिक रूप में पैदा हुआ मनुष्य व्यक्ति है जिसने आज़ादी का स्वाद कुछ समय के लिए चख़ा है और यह स्वाद उससे छिन गया है;

वो बहारों के मंच
वो जब हम ख़ुद एक
गुलाब का
पर्दा थे गोया
दहकता हुआ, और वो गीत
हैरान, ख़ामोश; और वो जोश से फड़फड़ाते
आज़ाद बुलबुलों के तराने ये सब

          क्यों आज याद आये ही जा रहे हैं
                        याद आये ही जा रहे हैं

हमें इस नुचे-खुचे
            बुच्चे आशियाने में
            आज?

यह स्मृति और यह हानि ही शमशेर की कविता का केंद्र है। यह स्मृति किसी ख़त्म हो गई चीज़ की स्मृति नहीं है, यह बिछड़ी हुई चीज़ की स्मृति है। इस बिछड़े हुए स्वपन का रंग और सौंदर्य, हानि और दुख शमशेर के यहां छाया हुआ है।यह स्वपन और यह हानि `बारीक़ शमशेरीय छन्नी से छाना हुआ मार्क्सवाद` है जिसे शमशेर स्वयं `शराब, यानी इंसानियत की तलछट का छोड़ा हुआ स्वाद` कहते हैं।

मुक्तिबोध का एकांत सत्ता केंद्रों के ध्वंस की गहरी इच्छा और आत्माभिव्यक्ति की दुर्निवारता से बना है, जबकि शमशेर का एकांत बेग़ानेपन के ध्वंस और मनुष्य व्यक्ति के अनुसंधान से बना है। यह मनुष्य व्यक्ति ठोस है, ऐतिहासिक है। इसका अंतर्जगत शमशेर के यहां खुलता है, यही वह रंगशाला है, जिसके सौंदर्य, गरिमा, दुख और प्रेम को देखकर, उसकी आत्मीयता, उसकी तीक्ष्णता के बीच साक्षी की उपस्थिति को देखकर हम बार-बार चकित होते हैं। शमशेर की कविता ऐसा आईना है जो हमें हमारा अंतर्जगत दिखाता है, इसे शमशेर `समाज-सत्य का मर्म` कहते हैं। इस समाज-सत्य के मर्म को देखने से बहुत सारी ज़िम्मेदारियां आयद होती हैं, अपनी सतही-खोखली जगह नज़र आती है, अपनी हानि नज़र आती है और अपना ही ऐसा जगमग रूप नज़र आता है जिसे धारण करने से हम डरते हैं। इसीलिए हम शमशेर की कविता से भी बचते हैं और आसान चीज़ों को अपनाये रखते हैं।

कवयित्री-एक्टिविस्ट शुभा का यह लेख नया पथ (जुलाई-सितंबरः 2011) से साभार। ऊपर शमशेर का फोटो लक्ष्मीधर मालवीय के कैमरे से (इसके लिए असद ज़ैदी और जलसा का आभार)
शुभा की तस्वीर कुलदीप कुणाल के कैमरे से।

Monday, January 7, 2013

प्रलाप : लाल्टू


शब्द मिले अनंत तो क्यों प्रलापमय


नहीं उल्लास नहीं यह ब्रह्मांड, जो हो रहा प्रसार
चीखें हैं, है दुःख ही अनिवार अपरंपार

है, अवश्य है कोई ईश्वर कण कण में व्याप्त
सखा नहीं, शत्रु है वह, जानो जो करो शिनाख्त

युधिष्ठिर, क्यों निर्वाक, ओ नीतिविशारद,
पीड़ाओं से देख भरा यह संसार लबालब

2009 में क्या हुआ था?
पूछता हूँ कि 9002 में क्या होगा?
सापेक्षता से सराबोर बयानों में छूट जाते हैं चीखों के रंग
जो 2009 से जुड़े हैं 9002 से जुड़ेंगे
सामान्य सा वह वर्ष
जिसमें जादुई जो कुछ था कुछ नितांत निजी विक्षिप्त क्षण
जो कुछ होगा कुछ नितांत निजी विक्षिप्त क्षण

तीन सौ सवा पैंसठ दिनों की अखिल वार्षिकी में मानव के लिए दस मिनट ढूँढता हूँ
हजारों साल बाद कभी पूछूँगा
9002 में क्या हुआ था?

आदमी को सपनों के बाज़ार में ले जाता है जादूगर
आदमी को आजादी के सपने बेचता है जादूगर
आदमी की चिंता में बारबारकईकईबारलगातार रोता हुआ दिखता है जादूगर
आदमी को आदमी की परंपराओं में ले जाता है जादूगर
आदमी को आदमीआदमी कहता
आदमी को आदमीआदमी कहकर चिल्लाता है जादूगर

आदमी जानता है कि सपनों की खरीदारी आज दो और चार का कारोबार है
आदमी जानता है कि राष्ट्रीय झंडा जिस पर लपेटा गया है वह एक जादूगर की लाश है
आदमी जानता है कि दुःखों से भरा ब्रह्मांड है, दुःखों का समंदर है,
दुःखों का पहाड़ है
आदमी जानता है कि सब कुछ गड्डमड्ड है, खयाल गड्डमड्ड हैं, दुःख गड्डमड्ड हैं
आदमी जानता है कि सत्य असत्य है, विश्वास अविश्वास है, युक्ति युक्तिहीन है
आदमी जानता है कि जीवन सूचनाओं के ब्रह्मराक्षस की लीद है
एकमात्र
सत्य
जो
सत्य
है
वह
है
भूख

दूर सफेद दीवारों पर चमकती धूप है
हवा के कण परस्पर दूर होते जा रहे
प्रकाश के साथ ताप का अहसास तरंगित हो रहा
ज़मीं से आस्मां तक धधक रही है फिजां
एकमात्र सत्य
वह है भूख है जो सत्य
ज़र जोरु ज़मीन भर नहीं
यह भूख निगलती है खुद को ही
क्रमशः और और विकराल बनती
कौन कह सकता है कि है उपजी
किस भूख से कौन सी कला
श्रृंखला कौन सी कौन सी वि
श्रृंखला
कैसा धर्म कैसा मर्म
यह ग़रीब की भूख नहीं जो चाहती अन्न गर्म
यह सत्य उस दुनिया का है
जहाँ किसी चीज की कमी नहीं
फिर भी जैसे कुछ भी है नहीं
इस तरह दौड़े आते हैं लोलुप
आँखें अंतड़ियाँ शिश्न योनियाँ
सब कुछ चबा जाने पर भी जो नहीं मिटती
यह सत्य उस भूख का है

यह धरती रहने लायक नहीं है
यह धरती रहने लायक नहीं है

आ हा हा मैं कहाँ खो गया
इतनी बारिश होती रही
बूँदें टिप टिप बदन पर आ आ गिरतीं
और मैं कहाँ खोया रहा
कितनी बातें बूँदों से करनी थीं
यहाँ वहाँ हर जगह जो फल रहीं उलटबासियाँ
उनसे एक-एक कर सुननी थीं
मैं जाने कहाँ खो गया

हवाओं में जो चीख सुनते हो, वह बहार की गूँज है
बहार आयी है दु:स्वप्नों का बोझ लिए
बहार आयी है खबरें लिए कि बहुत सारे लोग हमेशा के लिए धरती से उड़ चुके हैं
अंतरिक्ष से किस जानिब वे आये थे किस जानिब वे चले गए कौन जानता है
वे मर्द थे या औरत किसको खबर है

ढूँढती कि शून्य में किस दरवाज़े से वह अन्दर आए बहार आई है
अश्कों का बोझ लिए बहार आयी है

शायर के लफ्ज़ लिए कि नई रस्म है वतन में कि सर झुका के चलो बहार आई है
यहाँ कोई नहीं रहेगा सिर्फ वर्दियों के सिवा आर-पार
आदमी को तारों के पार रहना है और मुल्क है कि बँधा है तार-तार
मौत के सौदागरों को मिलते हैं तमगे
कि बहार आएगी तो वे सीना तान कर चलेंगे
बहार आई है दोस्तो, वादियों पर बिछ रही है, मोदी के तमगों को छू रही
है और चीख रही है
सुनो कितने तमगे हैं कितनी मौतें बहार पूछ रही है
कि कितनी मौतें और होंगी कि तमगों से भर जायेंगे वर्दियों के चप्पे चप्पे
बहार पूछ रही है
सुनो बहार की बद दुआ सुनो कि वर्दियां मिट जाएँगी धूल और खून की बदबू में
सड़ जायेंगी
रहेगा आदमी फिर फिर मरने को तैयार कि बहार का श्रृंगार करे कि त्यौहार हो
हो नाच गान
हो आज़ादी.

एक शहेला
दुनिया जो पहले से बेहतर है आज
वह शहेला के होने से है
उसके जाने के बाद उतनी बेहतर दुनिया रह गई है
और और शहेलाएँ खिलखिलाती उड़ रही हैं नाच रही हैं
किसको किसको खत्म करेगा जादूगर पूछ आओ युधिष्ठिर
मरेंगी और शहेलाएँ चीखें होंगी और प्रसारित
यह हमारी सृष्टि की गतिकी है युधिष्ठिर

मरना तो है ही सबको
सजना है कंकालों से कायनात को
भस्म के अथाह जंजालों से
फिर भी आँसू हैं बहते
ऐसे ही आततायियों की गोलियों से भूनी जाओगी बार बार ओ शहेला
कल इशरत कल सोनी सूरी आज शहेला
अनगिनत नाम बन कर आओगी
इतिहास की भैरवी तान ढूँढते
तुमसे टकराते रहेंगे हम

बहार आयी है खबरें लिए कि बहुत सारे लोग हमेशा के लिए धरती से उड़ चुके हैं
अंतरिक्ष से किस जानिब वे आये थे किस जानिब वे चले गए कौन जानता है
वे मर्द थे या औरत किसको खबर है
हा हा, सीना फटा जाता है युधिष्ठिर
सीना फटा जाता है...

नहीं उल्लास नहीं, जो हो रहा प्रसार
चीखें हैं, है दुःख ही अपरंपार
बेटियाँ तारीख में तब्दील हो गयी हैं।
29 मई : सूरज उस दिन वाकई छिपा और अँधेरा वक़्त पर आया। अँधेरे के जाने
की तारीख नहीं आती। कोई बतलाता है कि साल गुजर गया - एक और साल आने को
है। अँधेरे में ढूंढता हूँ नई तारीखें।

अँधेरे में सुनता हूँ जाने कितनी सदियों से चीख रही हैं आशिया और नीलोफर।

बेटियाँ तारीख में तब्दील हो गयी हैं।

बेटियाँ बाग़ में जा रही हैं। मेहनती जवान बेटियों से मिलने उतर आये हैं
रंगीले अब्र धरती पर। बेटियाँ बहते नाले में पानी छलकाती हुई नाचती हैं
कदम-कदम। सुडौल चेहरों पर आँखें आपस में खेल रहीं हैं अनजाने खतरनाक खेल।
पलकें उठी हुई हैं मतवाली। यौवन से उल्लसित नदी जंगल गाते हैं आने वाली
आज़ाद सुबह के गीत।

अँधेरा उतरता है, अँधेरे ने वर्दियां पहनी हुई हैं। अँधेरे के हाथों में
बंदूकें हैं। अँधेरे में चीखतीं बेटियाँ हैं ।
एक फारेनसिक विशेषज्ञ का कहना है कि वह तारीख है जब एक आज़ाद सुबह को
रोकने के लिए बेटियों को चीरफाड़ कर चबा रहे थे जानवर। युधिष्ठिर, कोई
बिंब बताओ, कविता को लीक पर लाओ। कुछ गीत सा हो, कुछ प्रगीत सा हो। कुछ
ऐसा कि आलोचक आत्मीय शब्द ढूँढ सकें, कुछ तग़ज़्जुल हो, कुछ बात हो, कुछ
बात हो।

चीखें बेटियों की गूँजती रहीं पहाड़ों के बीच। बेधती रहीं चट्टानों को।

सदियों से उफन रही तारीख की गूँज उमड़ती चली है। जवान लड़कियों को
महाशून्य में धकेल धरती बंजर होती चली है।

हर दिन गुजरता है
मोदी की सजा में एक दिन और कम हो जाता है
इस तरह लोकतंत्र हँसता रहता है खुद पर खुद
1984 – 1992- 2002-2991-4891-छुक छुक छुक
कि बसंत का सामूहिक बलात्कार हो रहा है खबर आती है
सस्ते टिकटों पर फूलों की योनियाँ बिक रही हैं खबर आती है
कोई कहता है कि हर फूल होता है एक इन्सान
मसला जा रहा है हर ओर इन्सान
देखो रीअल वर्चुअल गर्भवती औरतें नंगी नाच रहीं
सचमुच इस रात की कोई सुबह नहीं
गुड गवर्नेंस के सपनों में एक्स्टेसी जी रहे भले लोग हैं
चारों ओर संतुष्ट लोग हैं
कि हमें इमेजिन्ड फीयर से घबराना नहीं चाहिए संतुष्ट लोग हैं

क्या करूँ, डरपोक हूँ, डरता हूँ
कहते हैं कि हिटलर का टेक्नोलोजी में कोई जोड़ नहीं था...

धरती बंजर होती चली है। भक्षकों की टाप से उड़ते हैं बवंडर, काँपते हैं
माँओं के दिल। देर तक सुनती है आवारा कुत्तों का रुदन-चीत्कार।

दो कुत्ते एक चट्टान पर
एक भूरा एक काला
परस्पर से दो फीट दूर लेटे हुए हैं
एक समांतर विश्व है
जहाँ भूरे वाले कुत्ते का रंग काला है
वहाँ हो सकता है मोदी का रंग अहसान जाफरी सा
वहाँ कौन कुत्ते की मौत मरता है

पर मुझे किसी की मौत से क्या लेना
मैं नास्तिक
सृजन के अखिल नियम ही मेरे ईश्वर
मैं किसी की मृत्यु की कामना नहीं करता
काले या भूरे कुत्ते की तो कतई नहीं

एक दूसरे में बदल सकते हैं पाकिस्तान हिंदुस्तान भी
मसलन मैं हो सकता हूँ पाकिस्तानी
और परवेज हूदभाई हिंदुस्तानी
प्रेम नफरत सब अदल-बदल सकते हैं
फितरत हमारी कि बार बार उठ खड़े हो हम कहते रहे
कि हमारे समांतर संसार में नफरत न होगी
न होगा वहाँ कोई ओसामा, बुश, मोदी
कोई तासीर इसलिए न मारा जाएगा
कि उसने मेरी बेटी के माथे पर है हाथ रखा
कि बेटियाँ वहाँ दौड़ती आएँगीं
मेरे सीने से लिपट जाएँगीं
और वापस लौट अपने नृत्यलोक में जाएँगीं
ता ता थेई थेई ता ता थेई थेई गाएँगी

महाविश्व के एक साल में दस ही मिनट मिले
तो क्यों मिले संतापमय
शब्द मिले अनंत तो क्यों प्रलापमय
नहीं उल्लास नहीं, जो हो रहा प्रसार
चीखें हैं, है दुःख ही अपरंपार

दुखों के धमाके दुःख उबलते
दुःख तारे दुःख ग्रह दुःख ही जमते
दुखी देश दुखी परिवेश
रोता शिशु जैसा यह ब्रह्मांड है
यहाँ दुःख का नाम इतिहास है
दुःख ही ज्ञान विज्ञान विकास है
चलो किसी और सृष्टि की तलाश में
चलें

आवाजें इर्द गिर्द घूमती मिटाती अपनी प्यास हैं
अशरीरी साँसों से भर जाता परिवेश है
मैं रोता रहता हूँ
रोते रोते ही
जड़ होता रहता हूँ
औरों का क्या खुद का रोना भी
दिखता नहीं एक समय के बाद
मैं किस ज़िंदगी की शुरुआत हूँ और किस का अंत
कौन जानता है मुझे कौन है नाज़िर मेरा
यह मेरा मकसद है मेरी नियति भी यही कि मैं
तमाम रस्मों के खिलाफ उठ खड़ा हूँ
महज यह कहने कि मुझे चाहिए आजादी

मैं पत्थर फेंका जाता हूँ मैं मर्सिया जनाजों में गूँजता हूँ
अत्याचारियों की गोलियाँ जातीं मेरे आर पार मैं सीना भूना जाता हूँ
हर किस के सर पर मैं मौत मँडराता हूँ
मैं ही जीवन मैं सपना घाटी की किशोरियों का हूँ
मैं तुम्हारे खिलाफ अगस्त्य के समय से खड़ा हूँ
महज यह कहने कि मुझे चाहिए आजादी

आवाजों में अक्सर कोई पहचानी तरंग होती है
क्षणिक कंपन उँगलियों से उठकर हृदय के गहनतम कोनों में घूम आती है
और देर रात दूर क्षितिज तक गूँजती है
मैं जड़ होता रहता हूँ

इस तरह क्रंदन प्रलाप में कहाँ छिप रहे हो
कोई सुबह सुबह चालीस सेकंड रोता है
उसका रोना महज एक संख्या
कौन है
सुबह सुबह खुद को सहलाता
चालीस सेकंड बाद फोन कट गया
ब्रह्मांड सन्न-सा रह गया
क्या वह इसी ब्रह्मांड से आती आवाज थी
एक आवाज यूँ गुम हो गई
अनंत काल तक अपनी अनदेखी पहचान रख गई

जो भी वह था, उस के अंदर भी प्रलाप करता हूँ बैठा एक मैं
युवा कवियो, उसे छोड़ आओ गुड गवर्नेंस के चारों ओर बने पेशाबघरों में
कोई शब्द मोदी का विकल्प ढूँढ लो तत्सम में
और बुन लो एक कृत्रिम प्रेम कविता
हो सकता है केन्या युगांडा नाईजीरिया से भगा पैसा
थूक मैल में लिपटा वहाँ मनमोहनी गीतों में हो रहा हो सुरबद्ध
हत्या बलात्कार के बीच आ हा हा हा आरोह अवरोह में संबद्ध
आदमी की आँखें नहीं हैं वहाँ
आदमी सूअर से बदतर है वहाँ
यश है वहाँ उन आधुनिक मंदिरों में
वहाँ तमगे हैं तुम्हारे इंतज़ार में

हा, हा, सीना फटा जाता है
इस वक़्त सभी मुहावरे हैं नाकाम
युवा कवियो, हम कैसे अपनी पहचान करें
किधर हैं हम खड़े
अत्याचारियों के साथ या अपने ज़मीर के साथ
हम खड़े हों पर कैसे हों हम खड़े
जब प्रेम एक व्यर्थ खयाल बन गया
हर कोई चमड़े का इंच-इंच बेच रहा
सामूहिक मैथुन ही बचा जीवन की परिभाषा में
युवा कवियो, हम कैसे अपनी पहचान करें

जिन्हें दिखता नहीं कि लोग मर रहे हैं
कि प्राण विलुप्त हो रहा है धरती पर से अनायास
वे कहते हैं कि मैं लिखता हूँ सायास
एक औरत मरती है सड़क किनारे इश्तिहार में
बच्चे हाँ बच्चे मरते हैं सड़क किनारे गू मूत में कीड़ों जैसे
आदमी मरता है निरंतर सभ्यता में
बहुत कुछ बहुत सारे लोगों को नहीं दिखता
समस्वर चिल्लाते हैं वे देखो यह है सायास लिख रहा
जब कहता हूँ कविता नहीं है यहाँ
पूछते हैं कविता है कहाँ
क्यों लिखता है कोई बार बार
बुनता है शब्द जाल निरंतर प्रलाप
विलाप विलाप विलाप विलाप

नहीं उल्लास नहीं, जो हो रहा प्रसार
चीखें हैं, है दुःख ही अपरंपार।

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(लाल्टू की यह महत्वपूर्ण कविता `जलसा` अंक 3 साल 2012 में छपी है। ऊपर पेंटिंग The Old Guitarist पाब्लो पिकासो की है।)

Tuesday, January 1, 2013

स्त्री आजाद होती तो पुरुष भी और ज्यादा आजाद नहीं होता?- सुषमा नैथानी


स्वतंत्र होना, गुलाम होना,ये एक व्यक्ति तय नही करता, वरन ये किसी एक समाज के परिपेक्ष्य मे ही व्यक्ति के सन्दर्भ मे कहा जा सकता है। निजी स्तर पर एक सीमित दायरे मे, थोडी व्यक्तिगत आज़ादी हासिल कर लेना, किसी को आज़ाद नही करता। क्योंकि इस व्यक्तिगत आज़ादी की घोषणा, और महत्त्व ही दिखाता है कि आज़ादी इस समाज मे एक अपवाद है।

अपने घर और आफिस से बाहर अगर आप सडक पर निकलती है, और असुरक्षा का भय अगर 24 घंटे मे से एक घंटे भी आपके सिर पर है, तो आप सडक पर चलने के लिये आज़ाद नही है।
आप सामाजिक रूप से आज़ाद नही है।अगर आप महिला या किसी जाति विशेष की है, और किसी मन्दिर, मस्जिद मे आपको जाने की मनाही है, तो आप धार्मिक रूप से आज़ाद नही है।

अगर आप गर्भवती महिला है, या सिर्फ महिला है, और आपको इस आधार पर नौकरी नही दी जाति, प्रमोशन नही मिलता, तो समान अवसर पाने के लिये आप आज़ाद नही हैं।

एक लडकी को अगर पिता की सम्पति मे समान अधिकार नही है, पत्नी अगर अपना सब कुछ दांव पर लगा कर भी, जनम भर घर का काम करती है, पर घर की/पति की सम्पत्ति पर अगर उसका अधिकार नही है, तो यहां एक बडा तबका, आर्थिक आज़ादी से बेद्खल है।

ये कतिपय उदाहरण हैं, जिनसे ये समझा जा सकता है, कि आज़ादी एक व्यक्तिगत क़ुएस्ट से बहुत ज्यादा एक समाजिक क़ुएस्ट है। व्यक्तिगत आज़ादी की अपनी सीमा है, और ये व्यक्ति के साथ ही खतम हो जाती है। इससे समाज के बडे हिस्से को कोई फायदा नही मिलता। इसीलिये सही मायनो मे आज़ादी पसन्द लोगों को एक बडी सामाजिक लडाई/प्रक्रिया का हिस्सा बनना चाहिये। अकसर महिला आज़ादी का प्रश्न एक व्यक्तिगत सवाल मे तब्दील होता हुआ दिखता है। जैसे अगर महिला ने ठान ली तो मुक्त हो जायेगी। जैसे की स्वतंत्रता का समाज से, कानून से, सभ्यता से कोई लेना देना ही न हो।
एक बंद कमरे मे बैठा व्यक्ति स्वतंत्र है, अपनी मर्जी से खाने, पहनने, और अपना आचरण करने के लिए ? पर एक सामाजिक स्पेस मे ये स्वतंत्रता व्यक्ति नही समाज तय करता है, धर्म से, क़ानून से, रिवाज़ से, संसाधन में साझेदारी से।

ये सोचने की बात है की बंद कमरे मे कोई इंसान समाज से कितना स्वतंत्र है? अपनी सुविधा के साधन जो इस कमरे मे है, वों समाज से ही आते हैं। चोरी का डर भी समाज से ही आता है। और विनिमय शक्ति भी एक सामाजिक शक्ति है। बंद कमरे वाला इंसान भी कितना सामाजिक है ? इस मायने मे स्त्री की समस्या भी क्या केवल स्त्री की ही है? क्या सिर्फ़ इसका निपटारा व्यक्तिगत स्तर पर हो सकता है? क्या स्त्री की समाज में दुर्दशा का प्रभाव पुरुष पर नहीं पड़ता? क्या पुरुष पूरी तरह आजाद है? घर चलाने का जुआ उसके सर भी तो है। एक ख़ास तरह से चाहते न चाहते उसे भी अपने जेंडर के रोल मे फिट बैठना है।

अगर स्त्री आजाद होती तो क्या पुरुष भी कुछ हद तक और ज्यादा आजाद नही होता?

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यह पोस्ट सुषमा नैथानी की फेसबुक वॉल से ली है। 

फोटो Kommuri Srinivas का है जो The Hindu अख़बार में छपा था।