Tuesday, December 28, 2010
मैं यानी हम
Monday, December 6, 2010
मलबा -सुदीप बनर्जी
पूरे मुल्क की छाती पर फैला मलबा
ऊबड़-खाबड़ ही रह जाएगा यह प्रसंग
इबादतगाह की आख़िरी अज़ान
विक्षिप्त अनंत तक पुकारती हुई।
Thursday, December 2, 2010
रोज़ा पार्क्स जिसने अपनी सीट से उठने से मना कर दिया था
Tuesday, November 30, 2010
संस्कृति का जनपक्ष : दूसरी और अंतिम किस्त
Wednesday, November 24, 2010
संस्कृति का जनपक्ष : हबीब तनवीर
Friday, November 19, 2010
जसम का बारहवां राष्ट्रीय सम्मेलन
लोकार्पण
Saturday, November 13, 2010
एक षड़यंत्र की गाथा - असद ज़ैदी
अयोध्या इतनी "हिन्दू नगरी" कभी न थी जितनी आज है. मौर्यकाल में यह मुख्यतः एक बौद्ध नगरी थी. इसके क़रीब एक हज़ार साल बाद आए चीनी यात्री फ़ाहियान (पांचवीं सदी) और ह्वेन-सांग (सातवीं सदी) ने भी इसे एक प्रमुख बौद्ध नगर ही पाया और कुछ ग़ैर बौद्ध आबादी और प्रार्थना स्थलों का भी ज़िक्र किया. कालान्तर में यहाँ बौद्ध धर्मावलम्बी और बौद्ध धर्मस्थल क्रमशः विलुप्त होते गए (यह वाक़या सिर्फ अयोध्या ही नहीं पूरे उपमहाद्वीप में घटित हुआ) और विभिन्न मत-मतान्तर के लोगों का, जिन्हें आज की भाषा में मोटे तौर पर हिन्दू कहा जा सकता है, बाहुल्य हो गया. अयोध्या जैन धर्मावलम्बियों के लिए भी एक महत्वपूर्ण नगरी रही है – उनके दो तीर्थंकर यहीं के थे. सल्तनत (मुग़ल-पूर्व) काल में अयोध्या में सूफ़ी प्रभाव भी बहुत बढ़ा. यानी अयोध्या में रामभक्ति के उद्भव से दो सदी पहले ही यहाँ सूफी-मत पहुँच चुका था. हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया के ख़लीफ़ा ख़्वाजा नासिरुद्दीन महमूद 'चिराग़े देहली' यहीं के थे और चालीस साल की उम्र तक यहीं रहे. मुगलों के आने से पहले ही अयोध्या अपनी मिली-जुली संस्कृति और धार्मिक बहुलता के लिए जाना जाता था.
रामभक्ति की परम्परा उत्तर भारत में मुग़ल काल से ज़्यादा पुरानी नहीं है. पंद्रहवीं सदी के उत्तरार्ध में रामानंदी प्रभाव दिखना शुरू हुआ, पर बाबर के समय तक यह बहुत ही सीमित था. रामभक्ति का हिन्दू जनता के बीच लोकव्यापीकरण अवध के इलाक़े में अकबर के समय से होता है और इसमें अकबर के समकालीन तुलसीदास 'रामचरितमानस' की केन्द्रीय भूमिका है. सत्रहवीं सदी से पहले उत्तर भारत में कहीं भी कोई राम मंदिर नहीं था, और हाल तक भी बहुत ज़्यादा मंदिर नहीं थे. तुलसीदास और वाल्मीकि की अयोध्या मिथकीय नगरी है और सरयू एक मिथकीय नदी, लिहाज़ा ये जन्मस्थान को भौगोलिक रूप से फ़ैज़ाबाद में चिह्नित करने की कोशिश नहीं करते (वैसे भी इस देश में एकाधिक अयोध्या और सरयू मौजूद हैं, और अयोध्या ही में अनेक स्थलों के जन्मभूमि होने का दावा किया जाता है). यह भी विचारणीय है कि धार्मिक परम्परा की एक ऐतिहासिकता ज़रूर होती है पर धार्मिक, पौराणिक चरित्रों या महाकाव्यों के नायकों को ऐतिहासिक चरित्रों का दर्जा देने और 'पौराणिक काल' को ऐतिहासिक समय की तरह देखने से आस्तिक मन में उनकी मर्यादा और विश्वसनीयता बढ़ने के बजाय घटती ही है. जहाँ तक इतिहास और पुरातत्व का सवाल है, यह एक स्थापित तथ्य है कि अयोध्या इलाक़े में छः हज़ार वर्ष से पहले मानव सभ्यता या किसी भी तरह की इंसानी मौजूदगी थी ही नहीं. स्थापत्य की नज़र से देखें तो अयोध्या की हर पुरानी इमारत भारतीय-मुग़ल (इंडो-मुग़ल) तर्ज़ पर बनी हुई है, भले ही हनुमानगढ़ी हो या सीता की रसोई.
फिर हम कहाँ जा रहे हैं? यह सचमुच आस्था का प्रश्न है या धोखाधड़ी और धींगामुश्ती के बल पर फहराई गयी खूनी ध्वजा को आस्था की पताका कहने और कहलवाने का अभियान?
क्या हिन्दुत्ववादी गिरोह और आपराधिक पूंजी द्वारा नियंत्रित समाचारपत्रों और टी वी चैनलों और उनके शिकंजे में फंसे असुरक्षित, हिंसक और लालची पत्रकार और 'विशेषज्ञ' अब इस कल्पित और गढ़ी गयी आस्था के लिए परम्परा, ज्ञान, इतिहास, पुरातत्व, क़ानून, इंसाफ़, लोकतंत्र और संवैधानिक अधिकारों की बलि देंगे? यह अधिकार इन्हें किसने दिया है?
मेरे ख़याल से यह 'अधिकार' इन्हें पिछले पच्चीस साल में उभरे उभरे नए मध्यवर्ग और नवधनाढ्य तबक़े ने दिया है. ये नव-बर्बर समुदाय इस मुल्क के नए मालिक हैं, अनियंत्रित आर्थिक नव-उदारवाद इनकी मूल विचारधारा है और इसे मुल्क पर थोपने के लिए इनकी सेवा में दोनों मुख्य राजनीतिक गठबंधन (कांग्रेस और भाजपा और इनके सहयोगी दल) मुस्तैद हैं जिन्हें ये एक दूसरे के विकल्प की तरह पेश करते हैं. मुल्क के भीतर कभी कठोर तो कभी नर्म हिंदुत्व, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अमरीका की गुलामी, सार्वजनिक संसाधनों की निजी लूट इसके बुनियादी लक्ष्य हैं.
दरअसल यह नई पूंजी और नव-उदारवादी आर्थिक दर्शन भारतीय मध्यवर्ग के मूलगामी पुनर्गठन और एकीकरण में व्यस्त है. यह एक प्रतिक्रियावादी और फाशिस्ट एकीकरण है जो मध्यवर्ग और व्यापक जनसमुदाय के भीतर अब तक मौजूद लोकतांत्रिक प्रतिरोध और वैचारिक अंतर्विरोधों की परम्परा को मिटा देना चाहता है. ये उसके रास्ते की रुकावटें हैं. और साम्प्रदायिक बहुमतवाद इस प्रतिक्रियावादी एकीकरण का मुख्य उपकरण है. नव-उदारीकरण इस मुल्क में कभी राजनीतिक बहुमत प्राप्त नहीं कर सकता, साम्प्रदायिक बहुमत का निर्माण ही उसकी एकमात्र आशा है क्योंकि इसका नियंत्रण असंवैधानिक, अलोकतांत्रिक, धर्मांध, हिंसक और भ्रष्ट तत्वों के हाथ में होता है.
यह समझ भी कि यह मंडल के जवाब में भाजपा मंदिर लेकर आई (मंडल बनाम कमंडल) पूरी तरह ठीक नहीं है. हिन्दू राष्ट्र बनाने की परियोजना पुरानी है और दो राष्ट्रों का सिद्धांत जिन्ना और मुस्लिम लीग की देन ही नहीं है, सावरकर से पहले भी इसके अनेक मज़बूत प्रवक्ता रहे हैं, जिनमें से कुछ तो हमारी राष्ट्रीय देवमाला में शामिल हैं. मंडल आयोग की सिफारिशों के विश्वनाथप्रताप सिंह सरकार द्वारा लागू किये जाने से सवर्ण हिन्दू समाज में खलबली ज़रूर मची और अनुभव के स्तर पर सवर्ण वर्गों को अपना वर्चस्व और रोज़गार के अवसर संकट में पड़ते दिखाई दिए, दूसरी और मध्य जातियों के राजनीतिक दलों की ताक़त बढ़ी और हिन्दुस्तानी राजनीति में अब तक छाया भद्र-सर्वानुमातिवाद टूटा. लेकिन इससे आर्थिक नव-उदारीकरण और निजीकरण की कार्यसूची को कोई खतरा नहीं हुआ, बल्कि शासक तबक़ों ने यह पाया कि साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण और हिन्दुत्ववादी अभियान से मध्यवर्ग के एकीकरण में मदद मिलेगी. चूंकि मध्यवर्ग का विशालतम लगभग 98 प्रतिशत हिस्सा हिन्दू, जैन और सिख समुदायों से आता है इसलिए मुस्लिम-विरोधी बाड़ेबंदी के तहत इन्हें एक करना अपेक्षाकृत आसान और सुरक्षित और आज़मूदा नुस्खा है, तो क्यों न ऐसा ही हो! यह सैम हंटिंगटन और जार्ज बुश और उनके उत्तराधिकारियों की नीतियों से भी मेल खाता है और इस बात का कोई खतरा भी नहीं कि "अंतर्राष्ट्रीय समुदाय" (जिसका मतलब हमारे यहाँ अमरीका और यूरोप होता है) भारत पर पिछड़ी और अलोकतांत्रिक नीतियाँ अपनाने का इलज़ाम लगाएगा. एक प्रकार से मुस्लिम विरोधी साम्प्रदायिकता और बर्बर हिंसा को सिर्फ संघ परिवार के मुख्यालय नागपुर की ही नहीं, वाशिंगटन कन्सेंसस की भी शह प्राप्त है।
(समयांतर के नवम्बर 2010 अंक से साभार)
Tuesday, November 9, 2010
अरुंधती और देश - प्रणय कृष्ण
३१ अक्तूबर को मीडिया की ताकतों के साथ आपराधिक मिलीभगत कर भाजपा का उनके घर पर कायराना हमला इसी बौखलाहट का नतीजा है. यह हमला कायराना इसलिए भी था क्योंकि यहाँ हमले में औरतो को आगे किया गया. महिला मोर्चा की औरतों ने कभी उन मर्द सैनिक अधिकारियों पर हमला नहीं किया जिन पर कश्मीर घाटी में शोपियां बलात्कार कांड का आरोप है. उन्होंने कभी उन सुरक्षाबलों पर हमला नहीं बोला जिनके बलात्कार कांडों के खिलाफ पूर्वोत्तर प्रांत की महिलाओं ने नग्न देहों के साथ इस नारे के साथ प्रदर्शन किया कि, 'भारतीय सेनाओं, आओ हमारा बलात्कार करो'. भाजपा का महिला मोर्चा कभी दहेज के लिए जलाई जा रही औरतों, दलालों द्वारा वेश्यावृत्ति को मजबूर की जाती और अपहरण कर बेची जाती लड़कियों, भ्रूण में खत्म की जाती बच्चियों, घरेलू हिंसा की और खाप पंचायतों की बलि चढ़ती युवतियों के लिए ज़िम्मेदार अपराधियों पर हमला नहीं बोलतीं. वे तो देशभक्त हैं और उनके देश में इन अभागी औरतो की कोई गिनती नहीं.
अरुंधती ने अब तक अपने लेखन और सामाजिक क्रियाकलाप में उस देश का पक्ष लिया है जिसका कोई पुरसाहाल नहीं है, जो गरीब, वंचित, सताए हुए स्त्री, पुरुषों,बच्चों का है, जिनकी इस देश की सत्ता और संपत्ति में कोई हिस्सेदारी नहीं है. दूसरी तरफ वे हैं जो इस देश की सत्ता और संपत्ति पर काबिज़ हैं. उनका मानना हैं कि वे ही देश हैं. इनकी भक्ति करना ही देशभक्ति है. अमीर- भक्ति, अमेरिका- भक्ति, ओबामा-भक्ति, मिलिटरी-भक्ति, पुलिस-भक्ति,मुखबिर-भक्ति, अदालत-भक्ति- इस देशभक्ति के कई रूप हैं. अरुंधती का लेखन और आचरण अक्सर ही अमीरों, अमरीका,मिलीटरी, पुलिस और अदालत से टकरा जाता है यानी जिन चीजों को देश बताया जा रहा है उनसे ही वे टकरा जा रही हैं , फिर क्यों न देशद्रोही कहलाएँ?
पिछले दो दशकों से देशभक्ति इतनी सस्ती हुई है कि कोई भी अपराधी,लम्पट,बलात्कारी और भ्रष्ट व्यक्ति पाकिस्तान को चार गाली देकर देशभक्त होने का तमगा पा सकता है। ऐसे माहौल में अरुंधती को देशद्रोही बताया जाए तो क्या आश्चर्य? जब कांग्रेसी भी उनके कश्मीर वाले बयान पर उन पर मुकदमा करने की धमकी दे रहे थे, तो उन्होंने ठीक ही कहा था कि, " तरस आता है उस देश पर, जो लेखकों की आत्मा की आवाज को खामोश करता है। तरस आता है, उस देश पर जो इंसाफ की मांग करनेवालों को जेल भेजना चाहता है – जबकि सांप्रदायिक हत्यारे, जनसंहारों के अपराधी, कॉरपोरेट घोटालेबाज, लुटेरे, बलात्कारी और गरीबों के शिकारी खुले घूम रहे हैं।" समस्या यह है कि दुनिया की बड़ी पूंजी की दलाली, सरकारी खजाने की लूट और अपराध-राजनीति गठजोड़ की बदौलत सम्पन्न और सफल लोगों ने देश और देशभक्ति की परिभाषा बदल दी है. सच तो यह है कि ऐसे सबल,सम्पन्न और सफल लोगों की मुखालफत ही आज की सच्ची देशभक्ति है.
मीडिया और बौद्धिकों का एक समूह राज्य को ही राष्ट्र मानता है और राजभक्ति को ही राष्ट्रभक्ति। अरुंधती का बौद्धिक व्यक्तित्व राजभक्ति के इसी फर्जीबाड़े को देशभक्ति के नाम से विख्यात करने में बाधा डालता है. अगर सैन्यबल टार्चर , ह्त्या ,बलात्कार कर रहे हों और आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर्स एक्ट के तहत उन पर कोई कार्रवाई न हो पा रही हो , जब पूर्व सेना प्रमुखों सहित ४० बड़े पूर्व सैन्य अधिकारी मुम्बई के हाउज़िंग घोटाले में फंसे हों, जब पुलिस फर्जी एन्काउंटर कर रही हो, अदालतें जनता के खिलाफ व कारपोरेट के पक्ष में निर्णय सुना रही हों, न्यायाधीशों पर भ्रष्टाचार के आरोपों के बाद भी राजनीतिक कारणों से उन पर महाभियोग न चलाया जा सकता हो, मीडिया पेड़ न्यूज़ से लेकर अंधविश्वास, युद्धोन्माद और साम्प्रदायिकता फैलाने और गरीबों की आवाज़ दबाने पर ,जन-आंदोलनों को बदनाम करने पर कमर कसे हुए हो, तो इन्हीं संस्थाओं को देश मान इनकी भक्ति कैसे की जाए?
सिर्फ गुंडागर्दी के बल पर इंसाफ की बात ख़त्म नहीं की जा सकती। संघ परिवार के तमाम कालम-लेखक इस समय अरुंधती की जनम कुंडली खोल कर बैठे हैं .वे बता रहे है कि कैसे जब उनका उपन्यास 'गाड ऑफ़ आफ स्माल थिंग्स' प्रकाशित हुआ था, तभी से वे देशद्रोही हैं क्योंकि उस उपन्यास से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर देश की घृणित मानव -द्रोही, प्रेम-द्रोही जाति-प्रथा-पितृसत्त्ता-राजसत्ता के गठजोड़ का सच उजागर करके उन्होंने देश की किरकिरी की थी, मानो वे ऐसा करनेवाली पहली लेखिका हों. चरित्र-हनन में माहिर ये अखबारनवीस बताते हैं कि बुकर पुरस्कार की धन-राशि के लिए उन्होने यह सब किया, लेकिन ये कभी नहीं बताते कि इस राशि से उन्होंने मदद की तमाम संस्थाओं, पत्रिकाओं और ज़रूरतमंद कार्यकर्ताओं की, अपने लिए नहीं रखा. ऐसे तत्व यह भी लिखते हैं कि वे उपन्यास से पुरस्कार और पुरस्कार से शोहरत पाना चाहती थीं. वे नहीं बताते कि इस शोहरत का उन्होंने क्या इस्तेमाल किया. इस शोहरत का इस्तेमाल उन्होंने दुनिया भर में हक़, मानवाधिकार और इन्साफ के लिए, साम्राज्यवाद और युद्धोन्माद के खिलाफ चलने वाले आंदोलनों के पक्ष में किया है. देश के भीतर हाशिए पर रहनेवाले लोगों के लिए इंसाफ के पक्ष में किया है.शोहरत के इस इस्तेमाल ने उन्हें हुक्मरानों , संसद , सरकार, अदालत, मीडिया और फासीवादी ताकतों ,सबके निशाने पर ला दिया है. आज के भारत पर काबिज़ सत्ताधारियों के लिए अरुंधती बेशक एक ख़तरा हैं, लेकिन उन मेहनतकशों के लिए एक साथिन हैं जिन्हें कभी न कभी खुद देश हो जाना है.
Sunday, November 7, 2010
अमरीकी राष्ट्रपतियों की मुस्कान
वे आश्चर्यजनक रूप से मुस्कराते रहते हैं
शिवप्रसाद जोशी
अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा भारत दौरे पर हैं, उन्हीं के शब्दों में गांधी के देश में.
उनके राष्ट्रपति बनने के कुछ ही समय बाद नोबेल शांति पुरस्कार की घोषणा हुई थी और संयोग से ओबामा तब तक मध्य एशिया और अरब देशों और मुसलमानों के बारे में अपनी टिप्पणियों-दौरों से पुरस्कार कमेटी और विश्व नेताओं को मोहित कर चुके थे.
इसी संयोग के बीच ओबामा को नोबेल शांति पुरस्कार दिए जाने का ऐलान हुआ. इसी दौरान तिब्बती नेता दलाई लामा से न मिल पाने की असमर्थता ओबामा ने जताई जो उन दिनों अमेरिका जाने की तैयारी कर रहे थे. जिस वक़्त नोबेल शांति का अवार्ड ओबामा को देने की घोषणा दुनिया भर में जा रही थी उस समय ओबामा अपनी सर्वोच्च युद्ध परिषद की बैठक के लिए जा रहे थे जिसमें अफ़ग़ानिस्तान पर भावी रणनीति की चर्चा की जानी थी.
इसी बैठक से मुस्कराते हुए निकलकर ओबामा ने दुनिया का शुक्रिया कहा, शांति की कामना की, और महात्मा गांधी की अहिंसा को याद किया. ये उनका दबदबा ही रहा होगा या दलाई लामा की अपनी ख़ामोशी की पॉलिटिक्स जो उन्होंने भी कह दिया कि ओबामा मिलना नहीं चाहते तो कोई बात नहीं.
ओबामा ऐसे समय में भारत के दौरे पर हैं जब अमेरिका के मध्यावधि चुनावों के इतिहास में उनकी पार्टी की शर्मनाक हार हुई है. प्रतिनिधि सभा में रिपब्लिकनों की भरमार हो गई है. ओबामा कमज़ोर हुए हैं. और उनकी आवाज़ और मुस्कान और इरादों की हवा धीरे धीरे निकल रही है. वे ऐसे समय में गांधी को याद करते हुए हिंदुस्तान में हैं, जब अफ़ग़ानिस्तान में सैनिकों की आमद बढ़ाए जाने का फ़ैसला उन्हें करना है, ड्रोन हमलों के दायरे में कुछ और ठिकाने लाए जाने हैं, उनके दबंग खुफ़िया अधिकारी रात दिन एक कर जुलियन असांजे की तलाश कर रहे हैं. वो असांजे जिसने अपनी विकीलीक्स नाम की वेबसाइट पर सीआईए और दूसरे एजेंटों की हाल की ख़ुराफ़ातों के दस्तावेज़ सार्वजनिक कर दिए हैं. ओबामा का गांधी प्रेम की परत के नीचे असांजे से निपटने की रणनीति की नाकामी का क्रोध धधक रहा है.
हेरॉल्ड पिंटर ने लिखा था कि अमेरिकी राष्ट्रपति मुस्कराते बहुत हैं. ओबामा के पूर्ववर्ती बुश के विश्व संग्राम के दौर में पिंटर ने लिखा था कि अमेरिका ने वास्तव में- दूसरे विश्व युद्ध के खत्म होने के बाद से- एक चमकदार, यहां तक कि चतुर नीति अख़्तियार की है. सार्वभौम अच्छाई की स्थापना का झंडा उठाकर उसने विश्वव्यापी ताक़त का टिकाऊ, सुव्यवस्थित, अपराध बोध से मुक्त और क्लिनिकीय प्रदर्शन किया है. लेकिन कम से कम- अभी तो ये कहा जा सकता है कि- अमेरिका अपने दड़बे से बाहर आ गया है. मुस्कान ज़ाहिर है अपनी जगह क़ायम है(तमाम अमेरिकी राष्ट्रपतियों के पास हमेशा आश्चर्य जनक मुस्कान रही है) लेकिन भाव भंगिमा अनिर्णीत रूप से ज़्यादा नंगी और ज़्यादा रूखी है जितना कि पहले कभी नहीं रही.
एक अघोषित नारे की ओट में ओबामा भारत दौरे पर हैं कि वो गांधी के पुजारी जैसे हैं. भक्त हैं. आदि आदि. आंतकवाद के ख़िलाफ़ अमेरिका की अगुवाई वाला युद्ध जारी है. अफ़ग़ानिस्तान एक दुष्चक्र में फंस गया है. इराक़ में अमेरिकी फ़ौजें सबकुछ बरबाद कर लौट रही हैं. इस्राएल पहले से ज़्यादा खुंखारी के साथ फ़िलस्तीनी संघर्ष को ख़त्म करने पर तुला है. यूरोप में कट्टरवादी ताक़तें सिर उठाने लगी हैं. जर्मनी की मैर्केल और फ्रांस के सारकोज़ी की ज़बानें बदल रही हैं. वे और अनुदारवादी हो रहे हैं. रूस पूतिन के दर्प और दबदबे में स्थानीय अस्मिताओं का दमन कर रहा है. खाड़ी देश एक विराट अलौकिक निर्माण में व्यस्त हैं और वहां को़ड़े फांसी दुर्दांत सज़ाएं जारी हैं. अफ़्रीका में अमेरिका के रक्तबीज संहार मचा रहे हैं. चीन बहुत शातिरी से अल्पसंख्यकों की आवाज़ को बर्फ़ में दबा रहा है. उसका राष्ट्रपति दुनिया का शक्तिशाली व्यक्ति हो गया है. लातिन अमेरिका में अमेरिकावाद का विरोध पहाड़ों में गायब हो रहे पानी की तरह हो गया है. क्यूबा अब किसी भी वक़्त अमेरिकी जबड़े में जा सकता है.
ओबामा ऐसे समय में शांति और अहिंसा की कामना के साथ आए हैं जब हम सब जानते हैं कि उस देश के तमाम राष्ट्रपतियों ने क्योटो प्रोटोकोल को ख़ारिज किए रखा है, छोटे हथियारों के व्यापार को नियंत्रित करने के लिए होने वाले समझौते में दस्तख़त करने से इंकार कर दिया है, एंटी बैलिस्टिक मिसाईल संधि, व्यापक एटमी परीक्षण प्रतिबंध संधि और जैव हथियार कन्वेंशन से किनारा कर लिया है. जैव हथियार मामले पर तो अमेरिका ने बिल्कुल साफ कर दिया था कि वो इन हथियारों को निषिद्ध करने के लिए राज़ी है बशर्ते अमेरिकी धरती पर किसी जैव हथियार उत्पादन फैक्ट्री का कभी मुआयना न किया जाए. अमेरिका ने प्रस्तावित अंतरराष्ट्रीय आपराधिक न्याय अदालत को स्वीकृति भी नहीं दी है. दूसरे देशों पर सैन्य अभियान की उसकी मर्जी का डंका तो बजता ही रहता आया है.
हेरॉल्ड पिंटर ने इस अमेरिकी दादावाद की धुनाई करते हुए लिखा था कि वो दर्प से भरा, बेपरवाह, अंतरराष्ट्रीय क़ानून की मानहानि करने वाला, संयुक्त राष्ट्र को मन मुताबिक ख़ारिज और तोड़ने मरोड़ने वाला- वो अब दुनिया में अब तक ज्ञात सबसे ख़तरनाक शक्ति है- विशुद्ध रूप से ‘लफंगा’ राज्य लेकिन विराट सैन्य और आर्थिक बल वाला ‘लफंगा’. और यूरोप- ख़ासकर ब्रिटेन- शिकायती और शिकार दोनों है. या जूलियस सीज़र में जैसा कि कैसियस कहता है: ‘हम अपनी ही अपमानजनक क़ब्रें देखकर चिंचियाते हैं.’
लेकिन. लेकिन अपनी ही इच्छाओं, लालच, दमन और कट्टरवादी आग्रहों के भारी बोझ में अमेरिका एक स्वर्ण जड़ित बूढ़े महादैत्य की तरह डोल रहा है. उसके फैलाए युद्ध दुनिया को धूल और ख़ून से भरकर अब दम तोड़ रहे हैं. दुनिया में घास उग ही रही है, हवाएं चल ही रही हैं और प्रतिरोध करने वाले अपने अपने ढंग से हर कहीं जमा हो रहे हैं. अमेरिका का विरोध उसकी नाक के नीचे वेनेज़ुएला ही नहीं करता, अमेरिका से कोसों दूर इधर उत्तराखंड में मेरे गांव का एक पूर्व हलवाहा भी करता है. पहले जिसकी खेती छूटी, डंगर छूटे, बीज छूटे, हल छूटा और फिर गांव. दुनिया में अमेरिकी ताक़त और भूमंडलीय पूंजीवाद के प्रति एक अत्यधिक घृणा और उबकाई है.
Thursday, November 4, 2010
एक लम्हे का मौन
(एमानुएल ओर्तीज़ की यह कविता असद ज़ैदी के अनुवाद में पहली बार शायद २००७ में 'पहल' (मरहूम) में छपी थी. उसके बाद यह कई बार प्रकाशित हो चुकी है. इस कविता के अनेक नाटकीय पाठ और मंचन भी हुए हैं. राष्ट्रपति ओबामा के भारत आगमन पर हमारी तरफ़ से तोहफ़े के बतौर फिर से पेश की जाती है .)
कवितापाठ से पहले एक लम्हे का मौन
एमानुएल ओर्तीज़
अनुवाद: असद ज़ैदी
इससे पहले कि मैं यह कविता पढ़ना शुरू करूँ
मेरी गुज़ारिश है कि हम सब एक मिनट का मौन रखें
ग्यारह सितम्बर को वर्ल्ड ट्रेड सेंटर और पेंटागन में मरे लोगों की याद में
और फिर एक मिनट का मौन उन सब के लिए जिन्हें प्रतिशोध में
सताया गया, क़ैद किया गया
जो लापता हो गए जिन्हें यातनाएँ दी गईं
जिनके साथ बलात्कार हुए एक मिनट का मौन
अफ़ग़ानिस्तान के मज़लूमों और अमरीकी मज़लूमों के लिए
और अगर आप इजाज़त दें तो
एक पूरे दिन का मौन
हज़ारों फिलस्तीनियों के लिए जिन्हें उनके वतन पर दशकों से क़ाबिज़
इस्त्राइली फ़ौजों ने अमरीकी सरपरस्ती में मार डाला
छह महीने का मौन उन पन्द्रह लाख इराक़ियों के लिए, उन इराक़ी बच्चों के लिए,
जिन्हें मार डाला ग्यारह साल लम्बी घेराबन्दी, भूख और अमरीकी बमबारी ने
इससे पहले कि मैं यह कविता शुरू करूँ
दो महीने का मौन दक्षिण अफ़्रीक़ा के अश्वेतों के लिए जिन्हें नस्लवादी शासन ने
अपने ही मुल्क में अजनबी बना दिया। नौ महीने का मौन
हिरोशिमा और नागासाकी के मृतकों के लिए, जहाँ मौत बरसी
चमड़ी, ज़मीन, फ़ौलाद और कंक्रीट की हर पर्त को उधेड़ती हुई,
जहाँ बचे रह गए लोग इस तरह चलते फिरते रहे जैसे कि ज़िंदा हों।
एक साल का मौन विएतनाम के लाखों मुर्दों के लिए --
कि विएतनाम किसी जंग का नहीं, एक मुल्क का नाम है --
एक साल का मौन कम्बोडिया और लाओस के मृतकों के लिए जो
एक गुप्त युद्ध का शिकार थे -- और ज़रा धीरे बोलिए,
हम नहीं चाहते कि उन्हें यह पता चले कि वे मर चुके हैं। दो महीने का मौन
कोलम्बिया के दीर्घकालीन मृतकों के लिए जिनके नाम
उनकी लाशों की तरह जमा होते रहे
फिर गुम हो गए और ज़बान से उतर गए।
इससे पहले कि मैं यह कविता शुरू करूँ।
एक घंटे का मौन एल सल्वादोर के लिए
एक दोपहर भर का मौन निकारागुआ के लिए
दो दिन का मौन ग्वातेमालावासिओं के लिए
जिन्हें अपनी ज़िन्दगी में चैन की एक घड़ी नसीब नहीं हुई।
४५ सेकिंड का मौन आकतिआल, चिआपास में मरे ४५ लोगों के लिए,
और पच्चीस साल का मौन उन करोड़ों ग़ुलाम अफ़्रीकियों के लिए
जिनकी क़ब्रें समुन्दर में हैं इतनी गहरी कि जितनी ऊँची कोई गगनचुम्बी इमारत भी न होगी।
उनकी पहचान के लिए कोई डीएनए टेस्ट नहीं होगा, दंत चिकित्सा के रिकॉर्ड नहीं खोले जाएंगे।
उन अश्वेतों के लिए जिनकी लाशें गूलर के पेड़ों से झूलती थीं
दक्षिण, उत्तर, पूर्व और पश्चिम
एक सदी का मौन
यहीं इसी अमरीका महाद्वीप के करोड़ों मूल बाशिन्दों के लिए
जिनकी ज़मीनें और ज़िन्दगियाँ उनसे छीन ली गईं
पिक्चर पोस्ट्कार्ड से मनोरम खित्तों में --
जैसे पाइन रिज वूंडेड नी, सैंड क्रीक, फ़ालन टिम्बर्स, या ट्रेल ऑफ़ टिअर्स।
अब ये नाम हमारी चेतना के फ्रिजों पर चिपकी चुम्बकीय काव्य-पंक्तियाँ भर हैं।
तो आप को चाहिए ख़ामोशी का एक लम्हा ?
जबकि हम बेआवाज़ हैं
हमारे मुँहों से खींच ली गई हैं ज़बानें
हमारी आँखें सी दी गई हैं
ख़ामोशी का एक लम्हा
जबकि सारे कवि दफ़नाए जा चुके हैं
मिट्टी हो चुके हैं सारे ढोल।
इससे पहले कि मैं यह कविता शुरू करूँ
आप चाहते हैं एक लम्हे का मौन
आपको ग़म है कि यह दुनिया अब शायद पहले जैसी नहीं रही रह जाएगी
इधर हम सब चाहते हैं कि यह पहले जैसी हर्गिज़ न रहे।
कम से कम वैसी जैसी यह अब तक चली आई है।
क्योंकि यह कविता ९/११ के बारे में नहीं है
यह ९/१० के बारे में है
यह ९/९ के बारे में है
९/८ और ९/७ के बारे में है
यह कविता १४९२ के बारे में है।*
यह कविता उन चीज़ों के बारे में है जो ऐसी कविता का कारण बनती हैं।
और अगर यह कविता ९/११ के बारे में है, तो फिर :
यह सितम्बर ९, १९७१ के चीले देश के बारे में है,
यह सितम्बर १२, १९७७ दक्षिण अफ़्रीक़ा और स्टीवेन बीको के बारे में है,
यह १३ सितम्बर १९७१ और एटिका जेल, न्यू यॉर्क में बंद हमारे भाइयों के बारे में है।
यह कविता सोमालिया, सितम्बर १४, १९९२ के बारे में है।
यह कविता हर उस तारीख़ के बारे में है जो धुल-पुँछ रही है कर मिट जाया करती हैं।
यह कविता उन ११० कहानियो के बारे में है जो कभी कही नहीं गईं, ११० कहानियाँ
इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में जिनका कोई ज़िक्र नहीं पाया जाता,
जिनके लिए सीएनएन, बीबीसी, न्यू यॉर्क टाइम्स और न्यूज़वीक में कोई गुंजाइश नहीं निकलती।
यह कविता इसी कार्यक्रम में रुकावट डालने के लिए है।
आपको फिर भी अपने मृतकों की याद में एक लम्हे का मौन चाहिए ?
हम आपको दे सकते हैं जीवन भर का ख़ालीपन :
बिना निशान की क़ब्रें
हमेशा के लिए खो चुकी भाषाएँ
जड़ों से उखड़े हुए दरख़्त, जड़ों से उखड़े हुए इतिहास
अनाम बच्चों के चेहरों से झाँकती मुर्दा टकटकी
इस कविता को शुरू करने से पहले हम हमेशा के लिए ख़ामोश हो सकते हैं
या इतना कि हम धूल से ढँक जाएँ
फिर भी आप चाहेंगे कि
हमारी ओर से कुछ और मौन।
अगर आपको चाहिए एक लम्हा मौन
तो रोक दो तेल के पम्प
बन्द कर दो इंजन और टेलिविज़न
डुबा दो समुद्री सैर वाले जहाज़
फोड़ दो अपने स्टॉक मार्केट
बुझा दो ये तमाम रंगीन बत्तियाँ
डिलीट कर दो सरे इंस्टेंट मैसेज
उतार दो पटरियों से अपनी रेलें और लाइट रेल ट्रांज़िट।
अगर आपको चाहिए एक लम्हा मौन, तो टैको बैल ** की खिड़की पर ईंट मारो,
और वहाँ के मज़दूरों का खोया हुआ वेतन वापस दो। ध्वस्त कर दो तमाम शराब की दुकानें,
सारे के सारे टाउन हाउस, व्हाइट हाउस, जेल हाउस, पेंटहाउस और प्लेबॉय।
अगर आपको चाहिए एक लम्हा मौन
तो रहो मौन ''सुपर बॉल'' इतवार के दिन ***
फ़ोर्थ ऑफ़ जुलाई के रोज़ ****
डेटन की विराट १३-घंटे वाली सेल के दिन *****
या अगली दफ़े जब कमरे में हमारे हसीं लोग जमा हों
और आपका गोरा अपराधबोध आपको सताने लगे।
अगर आपको चाहिए एक लम्हा मौन
तो अभी है वह लम्हा
इस कविता के शुरू होने से पहले।
(११ सितम्बर, २००२)
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टिप्पणियाँ :
* १४९२ के साल कोलम्बस अमरीकी महाद्वीप पर उतरा था।
** टैको बैल : अमरीका की एक बड़ी फ़ास्ट फ़ूड चेन है।
*** ''सुपर बॉल'' सन्डे : अमरीकी फ़ुटबॉल की राष्ट्रीय चैम्पियनशिप के फ़ाइनल का दिन। इस दिन अमरीका में ग़ैर-सरकारी तौर पर राष्ट्रीय छुट्टी हो जाती है।
**** फ़ोर्थ ऑफ़ जुलाई : अमरीका का ''स्वतंत्रता दिवस'' और राष्ट्रीय छुट्टी का दिन।
४ जुलाई १७७६ को अमरीका में ''डिक्लरेशन ऑफ इंडीपेंडेंस'' (स्वाधीनता का ऐलान) पारित किया गया था।
***** डेटन : मिनिओपोलिस नामक अमरीकी शहर का मशहूर डिपार्टमेंटल स्टोर।
एमानुएल ओर्तीज़ मेक्सिको-पुएर्तो रीको मूल के युवा अमरीकी कवि हैं। वह एक कवि-संगठनकर्ता हैं और आदि-अमरीकी बाशिन्दों, विभिन्न प्रवासी समुदायों और अल्पसंख्यक अधिकारों के लिए सक्रिय कई प्रगतिशील संगठनों से जुड़े हैं।