Tuesday, December 28, 2010

मैं यानी हम


शिवप्रसाद जोशी

21वीं सदी के पहले दस साल पूरे हो गए हैं और एक अभूतपूर्व विकास दर की कुलांचे भरते देश में दुश्चिंता का न जाने ये साया क्यों नहीं जाता कि क्या हम सब वलनरेबल हैं. यानी हम सब आम नागरिक.

मुझे बार बार आशंका होती है कि मुझे कभी भी गिरफ़्तार तो नहीं कर लिया जाएगा. हालांकि अगले ही पल मैं सोचता हूं कि मैने तो कोई अपराध किया नहीं. पत्रकार हूं ख़बरें की हैं, कविताएं-निबंध लिखता हूं, ईमानदारी से लेखन करता हूं. बस.

और तो मेरा कोई आपराधिक रिकॉर्ड नहीं है. पर फिर भी मुझे क्यों लगता है कि कोई मुझे देख रहा है, घूर रहा है, मेरा पीछा कर रहा है. मुझे कभी भी दबोचा जा सकता है. मैं कार ड्राइव कर दफ्तर जाता हूं, मुझे कोई किसी आधार पर फंसा सकता है.

क्या मैं सरकार या सत्ता के किसी नुमायंदे के लिए असहनीय होने की स्थिति में आ चुका हूं. क्या मैं शांति भंग कर सकता हूं. क्या मैं सत्ता राजनीति या दबंग समाज की आंख में खटका हूं. क्या मेरी शिनाख्त दुर्योग से एक व्यवस्था विरोधी शख़्स के रूप में हो चुकी है. क्या किसी को भनक लग गई है कि दमनकारी रवैये का मैं विरोधी हूं. क्या मुझे देशद्रोही माना जाएगा.

मैं अरुंधति रॉय का समर्थक हूं. मैं वरवर राव को हमारे समय का एक बड़ा कवि क्रांतिकारी मानता हूं. मुझे सांप्रदायिकता से नफ़रत है. मुझे अमेरिकापरस्ती नापसंद है. मैं इस्राएल की दमनकारी नीतियों का विरोधी हूं. मुझे हुसैन एक बड़े आर्टिस्ट लगते हैं. मुझे सचिन तेंदुलकर के व्यक्तित्व के कुछ पहलुओं पर एतराज़ है. मुझे टीवी समाचार में फैले हुए अघाएपन और अपठनीयता और एक घमंडी किस्म की नालायकी से नफ़रत है. मुझे हिंदी में ज्ञानरंजन, चंद्रकांत देवताले, विष्णु खरे, मंगलेश डबराल, विनोद कुमार शुक्ल, असद ज़ैदी, वीरेन डंगवाल, देवीप्रसाद मिश्र और योगेंद्र आहुजा की रचनाएं सबसे ज़्यादा पसंद हैं. मुक्तिबोध के बाद रघुबीर सहाय की कविता आने वाले वक़्तों की भयावहता को सबसे पहले दर्ज करती हैं, ये मैं भी आगे बढ़कर मानता हूं. मेरे कुछ पत्रकार ब्लॉगर कवि लेखक साथी हैं, वे मुझे पसंद करते हैं, मैं उनसे निकटता महसूस करता हूं. मुझे नॉम चॉमस्की पसंद हैं, एडवर्ड सईद पसंद हैं, रोमिला थापर और पी साईनाथ पसंद हैं. हमारे कुटुंब के एक बड़े बुज़ुर्ग मार्क्सवादी हैं. हमारे आसपास लोकतंत्रवादी विचारधारा के बहुत से कवि लेखक संस्कृतिकर्मी और एक्टिविस्ट हैं.

क्या ये सब वजहें हैं जिनके चलते मुझे डरा रहना चाहिए. एक निहायत ही दुबकेपन में रहना चाहिए. घिरा घिरा सा अपने ही डर दुविधा और सवालों में. अपने बच्चों और परिवार की फ़िक्र करता हुआ. नौकरी करता हुआ. कोई कड़वी बात न कह दूं इसके लिए सजग रहता हुआ, हर महीने तनख्वाह घर लाता हुआ. रोटी मक्खन चैन से खाता हुआ और ईश्वर को प्रणाम कर एक बेफ़िक्र नींद में जाता हुआ.
मैं छत्तीसगढ़ नहीं गया, अरुंधति की तरह पहले नहीं बोला, मेधा पाटकर के साथ नर्मदा पर नहीं लड़ा. दूर रहा, सुरक्षित लेखन किया, उड़ीसा और कर्नाटक और गुजरात मेरा जाना नहीं हुआ. मैंने खुद को किसी जोखिम में नहीं डाला. फिर भी मैं डरा हुआ क्यों हूं. जब से डॉक्टर बिनायक सेन को उम्रक़ैद देने की ख़बर आई है, मेरा डर और बढ़ गया है. वो तीस साल से छत्तीसगढ़ में अपनी डॉक्टरी को आम आदिवासियों के बीच अमल में ला रहे थे. उनको मदद पहुंचा रहे थे. वो शंकर गुहा नियोगी के अघोषित शागिर्द थे. उन्होंने अपनी डॉक्टरी के नए आयाम खोलते हुए इतना भर किया था कि इलाक़े में नक्सलवाद पर काबू पाए जाने के नाम पर की जा रही बर्बरताओं का खुला और पुरज़ोर विरोध किया था. उन्होंने लोगों को मिटाए जाने की उस रौद्र षडयंत्र भरी रणनीति को अन्याय कहा था. बस.

अदालतें इंसाफ़ का एक ठिकाना होती हैं. पर उन्होंने मेरा डर बढ़ा दिया है. हम सबका डर बढ़ा दिया है. मेरे पिता का, मेरी मां का, मेरी पत्नी का, मेरे बच्चे डरेंगे. हम सब डरे हुए हैं. हमारा परिवार, हमारा समाज, हमारे लोग. क्यों.

दशमलव के नीचे की या उससे थोड़ा ऊपर की आबादी दिल्ली मुंबई कोलकाता बंगलौर, हैदराबाद, चेन्नई, पटना, सूरत, बड़ौदा, अहमदाबाद, देहरादून, लखनऊ, जयपुर आदि में अविश्वसनीय किस्म की विलासिता भोग रही है. वह हमारे समय के समस्त सुख भोग रही है. हमारे महादेश की बाकी आबादी न जाने क्यों भुगतते रहने पर विवश है. नीरा राडिया की कंपनी बहुत कम समय में करोड़ों अरबों की कंपनी बन जाती है. उसके लिहाज़ से ये ऊंचा और ऊंचा उठती विकास दर तो ठीक है लेकिन छत्तीसगढ़ से लेकर उत्तराखंड और कर्नाटक, उड़ीसा केरल तक एक आम मज़दूर और एक खेतिहर के लिए, किसी भी वक़्त नौकरी न रहने की आशंका में झुलसते एक बड़े निम्न मध्यवर्ग के लिए विकास दर आखिर कहां सोई रहती है. क्या वो इन सोए हुए, डरे हुए, भुगतते हुए और खपते हुए पसीने और धूल से सने हुए लोगों की आकांक्षाओं और सपनों के किनारों से किसी शातिर शैतान बिल्ली की तरह दबे पांव निकल जाती है.

कि ये बताने के लिए सुबह के अखबार मीडिया को कि देखो यहां से विकास होकर गुज़रा तो है.
बिनायक सेन की सज़ा क्या हम सबको मिली हुई सज़ा नहीं है. क्या इस चिंता से पीछा छु़डाने का य़े वक़्त नहीं है कि हमें कोई क्या दबोचेगा, हम पहले से सज़ायाफ़्ता हैं, हम इस क़ैद में हैं और मुक्ति के लिए संघर्ष हमारा जारी है. 2010 की अभूतपूर्व आर्थिक तरक्की अगले दस साल यानी 2020 में एक नया मकाम हासिल कर लेगी. वो अकल्पनीय विकास का पड़ाव होगा. लेकिन वह कुछ जद्दोजहद कुछ बेचैनियों कुछ लड़ाइयों का भी एक पड़ाव होगा. उन पड़ावों तक आते आते बहुत सी जेलों में बहुत से बिनायक सेन आ चुके होंगे. पोस्को और वेदांत एक नया सामाजिक चोला पहन लेंगे. वे कानूनों के पास एक चमकीला रिसॉर्ट बना देंगे. सरकारें उनसे अंततः अभिभूत होती जाएगीं. पर अरुंधति रॉय जैसे और स्वर भी तो आएंगें.

नवारुण भट्टाचार्य ये याद दिला चुके हैं कि यह मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देश, यह जल्लादों का उल्लास-मंच नहीं है मेरा देश.

Monday, December 6, 2010

मलबा -सुदीप बनर्जी

समतल नहीं होगा कयामत तक
पूरे मुल्क की छाती पर फैला मलबा
ऊबड़-खाबड़ ही रह जाएगा यह प्रसंग
इबादतगाह की आख़िरी अज़ान
विक्षिप्त अनंत तक पुकारती हुई।


Thursday, December 2, 2010

रोज़ा पार्क्स जिसने अपनी सीट से उठने से मना कर दिया था


एक दिन एक औरत ने कहा कि मैं भेदभाव नहीं मानूँगी और उसने उस सीट से उठने से मना कर दिया, जो नस्लवादी नियमों के अनुसार उसके लिए नहीं थी। आज यह एक सामान्य वाक्य सा लगता है। जैसे कोई कहानी हो। यह वाक्य बीसवीं सदी की सबसे महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक की रवानी है। इस घटना के बाद से एक आन्दोलन की शुरुआत हुई, जिसका सिलसिला ओबामा के राष्ट्रपति बन सकने तक जुड़ा है।

संयुक्त राज्य अमेरिका में हालांकि दास प्रथा को उन्नीसवीं सदी के गृहयुद्ध (१८६२-६४) के बाद गैरकानूनी करार कर दिया गया था, पर जल्दी ही कई तरह के दाँवपेंचों के जरिए गोरे शासक काले लोगों की आजादी को निरर्थक कर डालने में सफल हो गए थे। दीवालिएपन के नाम पर उनसे मतदान का अधिकार छीन लिया गया। फिर दक्षिणी राज्यों में गोरी बहुलता वाली सभाओं में उनके खिलाफ मत पारित कर जिम क्रो कहलाने वाली एक ऐसी व्यवस्था बनाई गयी, जो अपने स्वरुप में दक्षिण अफ्रीका में १९४८ से १९९० तक चली अपार्थीड व्यवस्था के समान थी। कई सार्वजनिक जगहों पर कालों की उपस्थिति पर निषेध लागू किया गया। अन्य जगहों पर जैसे, रेस्तरां, दफ्तरों आदि जगहों पर उनके आने जाने के लिए अलग दरवाजे बनाए गए। इस व्यवस्था का विरोध तो होना ही था। विरोध की कई धाराएँ पनपीं। मार्कस गार्वे का 'बैक टू अफ्रीका', डब्ल्यू ई बी ड्युबोयस की बौद्धिक लडाई, यह सब एक लंबा इतिहास है। आखिर मुख्यधारा में रहते हुए ही संघर्ष होना था और इसकी शुरुआत एक अनोखे ढंग से हुई। अन्य दक्षिणी राज्यों की तरह अलाबामा के मांटगोमरी शहर की बसों में गोरे और काले लोगों के लिए अलग सीटें तय थीं। चूँकि बसों में चलने वाले लोग ज्यादातर काले होते थे, इसके बावजूद कि गोरों की सीटें खाली पडी होती थीं, काले लोगों को खड़े रहना पड़ता था। एक दिन, १ दिसंबर १९५५ को, बयालीस साल की रोजा पार्क्स ने सीट से उठने से मना कर दिया। इसके पहले भी ऐसी घटनाएं हो चुकी थीं। पर निहायत ही साधारण महिला होते हुए भी रोज़ा राष्ट्रीय कलर्ड जन संगठन (National Association for the Advancement of Colored People (NAACP)) की स्थानीय शाखा की सचिव थी। और उसके अपने शब्दों में वह 'अन्याय मानते रहने से थक चुकी थी'। उसके इस कदम लेने पर लोगों में व्यापक चेतना फैली और जल्दी ही यह नस्लवाद विरोधी व्यापक जनांदोलन में तब्दील हो गया जिसका नेतृत्व रेवरेंड मार्टिन लूथर किंग ने किया। साथ ही ब्लैक इस्लामिक आन्दोलनों और मार्क्सवादी आन्दोलनों ने भी जोर पकड़ा।

रोज़ा एक दूकान में कटाई सिलाई का काम करती थी और अपने ऐतिहासिक कदम के कारण उसकी नौकरी छूट गयी और कई तकलीफों का सामना उसे करना पडा। बाद में डेट्रायट में उसने फिर इसी काम की नौकरी मिली।

मैंने अपने शोध-छात्र दिनों में एक बार रोजा को बोलते सुना था। यकीन नहीं होता था कि अत्यंत साधारण दिखती यह महिला इतने बड़े आन्दोलन के सूत्रपात का कारण बनी। आम अधिकारों के उस संघर्ष की परिणति को आज हम ओबामा के राष्ट्रपति बनने में देखते हैं।

--लाल्टू

(पहली दिसंबर २०१० को रोज़ा पार्क्स के इस ऐतिहासिक कदम के पचपन बरस पूरे हुए. नवम्बर २००८ में रिकार्ड किया गया एमी डिक्सन-कोलार का यह गीत जो ओबामा की ऐतिहासिक जीत को सेलीब्रेट करता है, रोज़ा पार्क्स के उस कदम के महत्त्व को इंगित करता है)


Tuesday, November 30, 2010

संस्कृति का जनपक्ष : दूसरी और अंतिम किस्त

(पिछली कड़ी से जारी)

हमने अपनी लोक-प्रज्ञा की उपेक्षा की है, उस पारंपरिक ज्ञान के भण्डार की भी उपेक्षा की है जो पंचायत प्रशासन का आधार थी. इस व्यवस्था में पेड़-पौधों और जड़ी-बूटियों की प्रचुर जानकारी थी, फसलों के आवर्तन, देशी खाद्य व्यवस्था,महाकाव्यों की मौखिक परंपरा,लोक साहित्य,गाथा-गीत,लोक-गीत और ठेठ देशी प्रदर्शन कलाओं का प्राचुर्य था. इस लोक ज्ञान के दायरे में आदिवासी मांझी समुदाय की सामाजिक न्याय पर आधारित व्यवस्था,विधिशास्त्र,पेड़ों को संरक्षित करने से सम्बंधित वर्जनाएं,जंगल का जीवन एवं मानवाधिकार सभी कुछ शामिल था. इस लोक-ज्ञान का तिरस्कार कर हमने सर्वाधिक भ्रष्ट प्रशासनिक व्यवस्था को, जिसमें चुनाव व्यवस्था भी शामिल थी, ऊपर से नीचे तक पनपने का मौका दिया और ऐसा हमने इसलिए किया क्योंकि यह हमारे निहित स्वार्थ को पोषित करता था और प्रशासन भी सुविधाजनक था. मानक प्रशासनिक व्यवस्था सबसे अधिक सुरक्षित एवं सुविधाजनक थी क्योंकि इसमें आम आदमी की कोई निर्णायक भूमिका नहीं थी.
एकरूपता के सिद्धांत पर आधारित बाज़ार व्यवस्था से सीख लेकर कला,संस्कृति एवं लोक रीति-रिवाजों को भी खरीदी-बिक्री की उपभोक्ता सामग्री में तब्दील कर दिया गया. जैसा कि प्रोफ़ेसर अमिय बागची ने संकेत किया था कि जन जातियों के कल्याण,बड़ी पूँजी एवं बड़े उद्योग तथा कृषि आधारित उद्योगों की ज़रूरतों के हिसाब से विकास के अलग-अलग ढांचों की तलाश को निहायत असुविधाजनक बताते हुए खारिज कर दिया गया. दूसरी तरफ हमने भूमि-वितरण के मुद्दे की वर्षों तक अवहेलना की,जिससे बिचौलियों का शोषण तंत्र पनपता रहा.जंगल एवं जंगल से जुड़े उत्पादों पर से आदिवासियों के अधिकार छीन लिए गए जिसके परिणामस्वरूप जनजातीय विकास में बाधा उपस्थित हुई और वे कंगाल हो गए. इस तरह से उनकी सामुदायिक समझ को नष्ट कर दिया गया और उन्हें दिहाड़ी मजदूर,पियक्कड़ और वेश्या में तब्दील कर दिया गया. इनके स्थान पर हमने असंख्य भ्रष्ट अंतर्राष्ट्रीय दूरदर्शन चैनलों को पनपने दिया जिन्होंने 'चमचमाते भारत' को ग्रामीण एवं जनजातीय सामुदायिक केन्द्रों में प्रदर्शित किया और इस प्रक्रिया में लोक एवं जनजातीय प्रस्तुति कलाओं को विकृत और कमज़ोर कर नष्ट कर दिया गया.हमने जानबूझकर और लगातार बीजों,जड़ी-बूटियों,औषधि-वनस्पतियों और फलों से सम्बंधित अपनी बौद्धिक संपत्ति और अधिकारों की अवहेलना की जिसके फलस्वरूप हल्दी,जीरा,नीम और अन्य मसाले तथा बासमती, आम आदि फल के अधिकार शिकागो,कैलिफोर्निया,फ्रांस आदि की झोली में चले गए. इस तरह से, संस्कृति जो दूसरे शब्दों में हमारी जीवन-शैली थी, उसे विनिमय-वस्तु में तब्दील कर दिया गया और परिणामस्वरूप हमें मिले विदेशी कपडे,नियमित भोजन और नृत्य और संगीत के अपरिचित तरीके.
कला और संस्कृति जो जीवन के हर पक्ष से सम्बंधित है उसे सिर्फ एक विभाग,एक फ़ाइल तक सीमित कर दिया गया और इस छलावे द्वारा संस्कृति को बचाने पर जोर दिया गया. सूचना एवं प्रसारण,वाणिज्य एवं वित्त मंत्रालय के सहयोग एवं तालमेल के बिना ही संस्कृति को सुरक्षित किया गया. इस तरह भारतीय बाज़ार इन मंत्रालयों की खुली छूट की वजह से विदेशी सांस्कृतिक आक्रमण झेलने को अभिशप्त होकर रह गए. हमें इस बात का कभी ख्याल ही नहीं आया कि हम एक सार्थक सांस्कृतिक नीति बनाएं जो रक्षा एवं विदेश मंत्रालयों सहित सभी विभागों के कार्यक्रमों हावी रहे. पोटा जो अब शायद समाप्त होने वाला है, उसे शुरू किया गया और अब एक बार फिर वह विरोधी दलों की कार्यसूची में शामिल है. हम शायद भूल रहे हैं कि रूढ़िवाद, रूढ़िवाद को ही जन्म देता है, साम्प्रदायिकता से साम्प्रदायिकता ही पैदा होती है और आतंकवाद से आतंकवाद. एक बम अनेक बमों की श्रृंखला को जन्म देता है और इस अंधी दौड़ में हम जनसंहार के हथियारों का ढेर लगाते जा रहे हैं.
फासिज़्म जो लोकतंत्र की पूजीवादी व्यवस्था का हिस्सा है, उसके भयानक चेहरे पर से १९६४ में तब नकाब हट गया जब सैकड़ों बस्तर आदिवासियों को उनके राजा समेत मौत के घाट उतार दिया गया. १९८४ में सैकड़ों सिखों का कत्लेआम हुआ, उनकी संपत्ति को या तो लूट लिया गया या जला दिया गया. १९९० में इन दंगों के परिणामस्वरूप भीषण नरसंहार और लूट की वारदातें हुईं, जिंदा लोगों को उनके घर-परिवार से वंचित कर बेरोज़गारी की मार झेलने को छोड़ दिया गया. २००२ में हजारों मुसलमानों का संहार हुआ, जिसमें पहली बार दलित एवं पिछड़ी जनजातियाँ, कैबिनेट मंत्री और पुलिस भी दंगों में शामिल थी. २००४ में ईसाई आदिवासियों को धर्म-परिवर्तन के लिए मजबूर किया गया. झाबुआ के ईसाई धर्मगुरुओं, चर्चों और ईसाई आदिवासी परिवारों और उनके घरों पर आक्रमण हुआ. इस दबाव के फलस्वरूप सैकड़ों की संख्या में लोग जंगलों में भाग गए और आज भी लापता हैं. इन घटनाओं से जहाँ एक ओर जातियों के समूल विनाश का पता चलता है, वहीँ फासिस्ट आक्रमणों से होने वाले घिनौने आर्थिक लाभ का भी पर्दाफाश होता है. क्या आप किसी अल्पसंखक समुदाय द्वारा प्रचारित किये गए फासिज़्म की कल्पना कर सकते हैं? फासिज़्म पर हमेशा बहुसंख्यक समुदाय का एकाधिकार रहा है, फिर वह चाहे इटली का हो, जर्मनी का या भारत का. सोनिया गांधी के नामांकन के बिना, जिसने कई महत्त्वाकांक्षी सदस्यों की आशाओं पर पानी फेर दिया, अल्पसंख्यक समुदाय से सम्बन्ध रखने वाले मनमोहन सिंह शायद कभी प्रधानमंत्री नहीं बन पाते. आप अल्पसंख्यक समुदाय के किसी सदस्य को राष्ट्रपति के रूप में देख सकते हैं पर क्या आप कभी किसी ईसाई या मुसलमान की प्रधानमंत्री के रूप में कल्पना कर सकते हैं? गांधीजी की सलाह के बावजूद जिन्ना प्रधानमंत्री नहीं बन सके. यहाँ तक की जगजीवन राम जो शूद्र जाति के हिन्दू थे वे भी राजनीतिक दांव-पेंचों और चालों की वजह से प्रधानमन्त्री होते-होते रह गए.
फूट डालो और शासन करो की नीति ने न केवल अल्पसंख्यक समुदाय को अलग अलग वोट बैंकों में बांटा है, बल्कि हिन्दुओं को भी दलित,अनुसूचित जाति एवं जनजातियों में विभाजित कर पूरी चुनाव प्रणाली को ही विकृत व्यवस्था में तब्दील कर सत्ता का रास्ता साफ़ किया है. इस देश में सिर्फ गांधी को ही मारा नहीं गया, उनकी नीतियों का भी दम घोंट दिया गया है. आज गांधी सिर्फ जिह्वा-विलास की वस्तु होकर रह गए हैं, जिनकी तस्वीरें मंत्रियों के दफ्तरों की शोभा हैं और उनका नाम केवल सड़कों और पार्कों के नाम के साथ जुड़कर ही जीवित बचा है.
आज हम एक-ध्रुवीय विश्व में बड़े दादा अमरीका की निगरानी में जी रहे हैं. पर यह बड़ा भाई आज पश्चिमी विश्व के लिए भी एक खतरा बन चुका है. इसी वजह से यूरोपीय संघ का गठन हुआ और यह संघ सैन्य बल के रूप में भी खुद को अमरीका की एकपक्षीय मनमानी की प्रतिरोधी शक्ति के रूप में सुदृढ़ कर रहा है.
यह एक बुरा एवं अप्रिय समय है. अगर हम एक मजबूत भारत चाहते हैं, एक तेज व सक्रिय जीवन-शक्ति से समृद्ध भारत तो हमें कई ज़रूरी कदम उठाने होंगे. हमें समझना होगा की समदृष्टि के बिना कोई भी आर्थिक नीति न तो गरीबी कम कर सकती है, न ही संस्कृति को बचा सकती है और उसका चेहरा तो कदापि मानवीय नहीं हो सकता. सामाजिक न्याय के बिना कोई भी राजनैतिक योजना केवल फासिज़्म को ही जन्म देगी. मानवाधिकार संरक्षण की गारंटी के बिना गृह मंत्रालय की कोई भी नीति सिर्फ और सिर्फ आतंकवाद को ही पनपने में मदद करेगी. निःशस्त्रीकरण की अवधारणा के बगैर बनाई गई रक्षा-नीति सिर्फ तलवार खड़खड़ाने तक ही सीमित होकर रह जायेगी और कभी भी शान्ति कायम नहीं कर पाएगी. सांस्कृतिक सन्दर्भ से रहित विदेश नीति कदापि सद्भाव एवं सही विकास को जन्म नहीं दे पाएगी.
संक्षेप में, हाशिये पर जीवन जीने को अभिशप्त असंख्य वंचितों की भलाई ही मूल समस्या है. हमारे देश की मजबूती और जीवन-शक्ति इन्हीं वंचितों की भलाई से कायम रह सकती है. मैंने बहुत सरलीकृत ढंग से संस्कृति को दो भागों में विभाजित किया है: शोषक-वर्ग की संस्कृति और शोषितों की संस्कृति. आपको तय करना है, आप किसके साथ हैं : शोषकों के या शोषितों के?

(समाप्त)

Wednesday, November 24, 2010

संस्कृति का जनपक्ष : हबीब तनवीर


(उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला में आयोजित एक अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी 'क्षेत्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय सन्दर्भों में भारत की जीवन शक्ति' में हबीब तनवीर ने यह व्याख्यान अंग्रेज़ी में दिया था जो 'नुक्कड़ जनम संवाद' में छपा था. आभा गुप्ता ठाकुर का यह हिंदी अनुवाद संवेद पत्रिका के जुलाई २०१० अंक से साभार)

अधिकतर मैं कुछ सूत्रों से मदद लेकर तात्कालिक भाषण दिया करता हूँ, पर ऐसे में शब्दों के भावावेग में बह जाने की प्रवृत्ति की वजह से समय का ध्यान नहीं रहता. मैंने एक व्याख्यान ही लिखा है, लेख नहीं, इसलिए मैं इसे पढ़कर सुना रहा हूँ.
कल के एक घंटे के व्याख्यान में ही अध्यात्म की काफी भारी खुराक आपको मिल चुकी है. मैं मूलतः एक रंगकर्मी हूँ. मैं कला को अध्यात्म से अलग-थलग नहीं देखता. कला हो या विज्ञान दोनों ही जीवन से सम्बंधित हैं. मेरा मानना है कि रंगकर्म जीवन के हर पहलू से सम्बंधित होता है. भरत मुनि के नाट्यशास्त्र में वर्णित अभिप्राय की ही तरह मैं प्रस्तुति कला को एक गंभीर अध्यात्मिक कार्य मानता हूँ.
मुझे अपनी लोक-कलाओं की जीवंत समृद्ध परंपरा और क्लासिकल नाटकों की महान विरासत पर गर्व है. जैसा कि अधिकाँश कला समीक्षक मानते हैं, ये एक दूसरे के विरोध में नहीं खड़ी हैं, अपितु के दूसरे से जुड़ी हुई हैं. स्पष्ट कारणों की वजह से मैं संस्कृत भाषा के ज्ञान से अनभिज्ञ रहा, पर मैंने अनुवाद के माध्यम से अपने धर्मग्रंथों, नाटकों एवं उपनिषदों से परिचित होने का प्रयास किया. मैंने ऋग्वेद के उस प्रसिद्द स्तोत्र का अनुवाद किया जो प्राचीन भारत की वैज्ञानिक दृष्टि का प्रतिबिम्ब है. यह स्तोत्र जिज्ञासा एवं प्रश्नाकुलता से परिपूर्ण है और अज्ञेयवाद की सीमा तक पहुंचे संशय के प्रति एक संबोध-गीति है. मैंने एक उर्दू कविता में इस स्तोत्र का भाषांतरण किया है. उर्दू मेरी मातृभाषा है और मैं मूलतः एक उर्दू लेखक हूँ. मैं उर्दू,हिंदी एवं छतीसगढ़ी में नाटक लिखता हूँ, पर मेरा सर्जनात्मक लेखन हमेशा अरबी लिपि में होता है. मैंने अपने जीवन में हिंदी काफी देर से सीखी. मैं हिंदी पढ़ता हूँ और ज़रूरत पड़ने पर सिर्फ व्यावसायिक पत्र हिंदी में लिखता हूँ.
मुझे अफ़सोस है कि उत्तर से दक्षिण तक के इतने व्यापक क्षेत्र में बोली जाने वाली समृद्ध भाषा उर्दू को हमारे देश के राजनीतिज्ञों ने एक राज्य तो क्या,एक शहर यहाँ तक कि एक मोहल्ला भी देना मुनासिब नहीं समझा. इस रूप में निश्चित ही इन लोगों ने इस समृद्ध भाषा को दुर्बल किया है. उर्दू सिर्फ मुसलमानों की भाषा नहीं है, बल्कि यह जनता की भाषा है और हिन्दू और मुसलमान दोनों कौमों में प्रचलित है. उर्दू गद्य और पद्य को विकसित करने में मुसलमानों का ही नहीं हिन्दू लेखकों का भी योगदान है. इन लेखकों में कुछ महत्त्वपूर्ण नाम हैं- मुंशी प्रेमचंद, चकबस्त,रघुपति सही 'फ़िराक', किशनचन्दर, राजेन्द्र सिंह बेदी आदि. उर्दू को अपनी जायज़ जगह न देकर और चालाकी से हिंदी साम्राज्यवाद के प्रसार के माध्यम से एक भाषा द्वारा दूसरी का दम घोंट दिया गया और इसके परिणामस्वरूप हिंदी भाषा स्वयं असक्त एवं कमज़ोर हो गयी. विश्व की अन्य भाषाओं में मौखिक और लिखित रूप में बहुत कम अंतर है. इसके विपरीत रेडियो तथा अन्य सरकारी उपायों के माध्यम से हिंदी के जिस सरकारी संस्करण को प्रचलित किया गया, वह मौखिक हिंदी से बिलकुल अलग थी, जिसके परिणामस्वरूप लिखित हिंदी के स्वरूप पर विनाशकारी प्रभाव पड़ा और हिन्दी भाषा मूलतः मौखिक भाषा के रूप में ही सफल हो पायी.
इस तरह के विकृत विकास का केवल एक ही और उदाहरण मिलता है. हिन्दी को हिन्दुओं की भाषा मानते हुए इसकी प्रतिक्रिया में पाकिस्तान ने उर्दू को इतने खतरनाक रूप से संरक्षण दिया कि पश्तो,पंजाबी,सिन्धी आदि समृद्ध भाषाएँ हाशिये पर धकेल दी गयीं और पाकिस्तान के उर्दू साम्राज्यवाद ने अंततः उर्दू को एक गूढ़ भाषा बना दिया. पाकिस्तान एवं हिन्दुस्तान का आम आदमी इन भाषाओं से इतना कट गया अपनी मातृभाषा समझने के लिए उसे विशिष्ट अकादमिक उपाधि की ज़रूरत पड़ने लगी. हमारी प्राचीन गौरवशाली समृद्ध देशी-बोलियों के साथ भारतीय न्याय व्यवस्था के इसी बर्ताव की वजह से संस्कृत के दिव्य शब्दों के साथ-साथ ध्वनियों से भी दूर रखा गया. इस तरह आभिजात्य वर्ग ने जनसंचार के माध्यम से जनता को अलग रखकर इस भाषा की ओजस्विता से वंचित रखा, जिससे वह आसानी से शासन कर सके.
हम सभी प्राचीन भारत के गौरव से परिचित हैं पर हमें देशभक्ति पूर्ण व्याख्यानों के माध्यम से विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में प्राचीन भारतीय संस्कृति की महानता से परिचित होने की ज़रूरत है. हमने जहाँ अमीर खुसरो एवं गुरु नानक जैसे मुस्लिम और सिख संतों का आवाहन किया वहीँ इकबाल का गलत हवाला दिया. हमने समकालीन भारत के कुछ हिस्सों में अल्पसंख्यक जाति संहार, महान कवियों एवं गायकों की कब्रों का विनाश एवं मस्जिदों के ध्वंस की पृष्ठभूमि में भारत में धार्मिक विश्वासों,भाषाओँ एवं संस्कृतियों की विविधता का गुणगान किया. इस क्रम में कई कलाकृतियों, किताबों,फिल्मों एवं रंगमंच पर प्रहार किया गया और इस तरह से भारत को मजबूती प्रदान करने की दुस्साहसी कोशिशें की गईं जिससे आने वाले चुनाव में अल्पसंख्यक समुदाय के वोट हासिल किये जा सकें.
प्रोफ़ेसर यशपाल के द्वारा 'शक्ति' को कट्टर देश प्रेम के सन्दर्भ में परिभाषित करने पर मुझे इस शब्द से घृणा होती है. इस शब्द से अंधी उग्र राष्ट्रीयता की गंध आती है, जो सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और नकलची संस्कृति के रूप में प्रचलित हो गया है, विशेषतः इस सन्दर्भ में कि किसी राष्ट्र की जीवन-शक्ति से सम्बंधित पहली चर्चा अमेरिका,नीदरलैंड तथा जापान में प्रारम्भ हुई. मैं 'जीवन-शक्ति' (vitality) की जगह सामान्य शब्द 'शक्ति' का प्रयोग बेहतर मानता हूँ. अंग्रेजी शासकों, वर्तमान अमेरिकी मालिकों और बहुराष्ट्रीय संगठनों के प्रभाव में हम लोग नकलची राष्ट्र के रूप में परिवर्तित हो चुके हैं. हम अभी भी सीखने के दौर से गुज़र रहे हैं, क्योंकि लोकतंत्र का पश्चिमी ढांचा हमारे सामने पहले आया फिर पूंजीवाद. अतः पूंजीवाद के पश्चिमी संस्करण अभी भी अपने चरम उत्कर्ष पर हैं. लेकिन पूंजीवाद के परिणामस्वरूप विकास का कौनसा रूप हमारे सामने आया? तकनीक ने विज्ञान को अपने वश में किया और उसे पीछे छोड़ दिया, पूरी दुनिया को प्रदूषित और निरावृत्त कर दिया. मानव निवास के लिए अंतरिक्ष में जगह की खोज शुरू हुई और हर प्रकार के युद्ध की शुरुआत हुई - पेट्रोल के लिए,पानी के लिए, बाज़ार के लिए, राज्य पोषित आतंकवाद पर आधारित युद्ध, नस्ली युद्ध, गैर ईसाईयों से युद्ध आदि. ये युद्ध अफ्रीका,एशिया,पूर्वी यूरोप,लातिन अमेरिका तथा अन्य सभी जगहों में फ़ैल गए, लेकिन विशुद्ध पश्चिमी देशों में ये शायद ही कभी लड़े गए.
पश्चिमी संस्कृति की नकल की इस अंधी दौड़ में हमने अविकसित देशों की स्थानीय ज़रूरतों के मुताबिक विकास के ढाँचे को विकसित करने का स्वर्णिम अवसर खो दिया. हम यह भूल गए कि पूंजीवादी एकरूपता पर आधारित पश्चिमी समाज बंद गली के उस आखिरी मुकाम तक पहुँच गया है जहाँ युद्ध के अलावा दूसरा कोई रास्ता नहीं है. पश्चिमी जगत इस विनाश के कगार पर बहुत तेजी से पहुँचा, अविकसित देशों के लोगों ने उनकी इस गलती से सीखने का स्वर्णिम अवसर देखा. लेकिन हम भूल गए कि विकास के इस अराजक परिदृश्य और संतृप्ति के कगार पर पहुंचे मानव समाज के बीच भी सिर्फ अविकसित दुनिया के लोगों के पास स्वयं के विकास का ढांचा बनाने तथा अस्तित्व बचाने का दुर्लभ अवसर उपलब्ध था.
हमने अपनी आत्मा को प्रौद्योगिकी,भूमंडलीकरण,उपभोक्तावाद,उदारीकरण,खुली बाज़ार-व्यवस्था,अश्लील विज्ञापनों एवं जहरीले दूरदर्शन के शैतान को बेच दिया और हमने १३ प्रतिशत सेलफोन और वाहन धारकों को विपुल धन-संपत्ति के नशे में झूमने का मौका दिया है. इस तरह वंचितों की एक बहुत बड़ी आबादी जिसमें आदिवासी,दलित, किसान एवं शहरी निम्न मध्यवर्ग शामिल है, गरीबी रेखा के नीचे जीवन जीने को बाध्य है,हज़ारों लोग आत्महत्या कर रहे हैं. पिछले पांच वर्षों में ग्रामीण एवं शहरी बेरोजगारों की संख्या में कई गुना बढ़ोतरी हुई है. कृषि प्रधान भारत के वही लोग जिनके उत्पादन ने 'चमचमाते भारत' को कायम रखा है, उन्हीं को इस साम्प्रदायिक एवं दूषित शिक्षा-व्यवस्था ने निरक्षर एवं अशिक्षित छोड़ दिया है. बस्तर के एक व्यक्ति ने मुझसे कहा-' तुम अपने शिक्षक को पढ़ाने के लिए पैसे देते हो, पर हमारे बच्चों को क्यों पढ़ने के लिए पैसे नहीं देते?'

(अगली किस्त में समाप्य)

Friday, November 19, 2010

जसम का बारहवां राष्ट्रीय सम्मेलन


लूट और दमन की संस्कृति के खिलाफ सृजन और संघर्ष को समर्पित जसम का बारहवां राष्ट्रीय सम्मेलन 13-14 नवंबर को दुर्ग (छत्तीसगढ़) में सफलतापूर्वक संपन्न हुआ। सम्मेलन में बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, छत्तीसगढ़, दिल्ली, राजस्थान, उड़ीसा और पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र आदि राज्यों के प्रतिनिधि शामिल हुए। प्रो. मैनेजर पांडेय और प्रणय कृष्ण को पुनः जसम के राष्ट्रीय अध्यक्ष और महासचिव रूप में चुनाव किया गया। सम्मेलन में 115 सदस्यीय नई राष्ट्रीय परिषद का चुनाव किया गया। कामकाज के विस्तार के लिहाज से महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश के प्रतिनिधियों को भी राष्ट्रीय पार्षद बनाया गया। प्रलेस के संस्थापक सज्जाद जहीर की पुत्री प्रसिद्ध कथाकार-पत्रकार और नृत्यांगना नूर जहीर समेत 19 नए नाम राष्ट्रीय परिषद में शामिल किए गए। मंगलेश डबराल, अशोक भौमिक, शोभा सिंह, वीरेन डंगवाल, रामजी राय, मदन कश्यप, रविभूषण, रामनिहाल गुजन, शंभु बादल और सियाराम शर्मा को जसम का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाया गया। राष्ट्रीय कार्यकारिणी 35 सदस्यों की है, जिसमें सुधीर सुमन, भाषा सिंह, दीपक सिन्हा, सुरेंद्र सुमन, संतोष झा, अनिल अंशुमन, अजय सिंह, के. के. पांडेय, आशुतोष कुमार, बलराज पांडेय, संजय जोशी, सुभाष कुशवाहा, हिमांशु पंड्या, गोपाल प्रधान, कौशल किशोर, पंकज चतुर्वेदी, कैलाश बनवासी और सोनी तिरिया शामिल हैं।
सृजन और संघर्ष के दो बडे नाम- मुक्तिबोध और शंकर गुहा नियोगी सम्मेलन के केंद्र में थे। सम्मेलन के तमाम सत्रों में मंच पर लगे मुख्य बैनर पर दोनों की तस्वीरें थीं। दुर्ग के शंकर गुहा नियोगी हाल (बाकलीवाल स्मृति भवन) में हिरावल (पटना) के कलाकारों द्वारा मुक्तिबोध की ‘अधेरे में’ कविता के एक उत्प्रेरक अंश ‘ओ मेरे आदर्शवादी मन/ ओ मेरे सिद्धांतवादी मन/ अब तक क्या किया/ जीवन क्या जीया’ के बेहद प्रभावशाली गायन से सम्मेलन की शुरुआत हुई और समापन हिरावल (भिलाई) द्वारा ‘अधेरे में’ की नाट्य प्रस्तुति से हुई। सम्मेलन ने बिहार के क्रांतिकारी कम्युनिस्ट आंदोलन के नायक का. रामनरेश राम, छात्र नेता राजेश, ‘सही समझ’ के संपादक और कथाकार सोहन शर्मा, रंगकर्मी शिवराम, जनकवि गिर्दा, रंगकर्मी अमिताभ दासगुप्ता और अर्थशास्त्री अर्जुन सेनगुप्ता को एक मिनट का मौन रखकर अपनी श्रद्धांजलि दी।
प्रसिद्ध कवि मंगलेश डबराल ने ‘सत्ता और संस्कृति’ विषय पर मुक्तिबोध स्मृति व्याख्यान दिया, जो कि सम्मेलन का उद्घाटन वक्तव्य भी था। मंगलेश डबराल ने इराक, अफगानिस्तान पर अमेरिकी हमले और भारतीय शासकवर्ग द्वारा आदिवासियों, अल्पसंख्यकों, मजदूरों और किसानों के बर्बर दमन का जिक्र करते हुए कहा कि आज सत्ता को अपने किसी भी दुष्कृत्य के लिए कोई ग्लानिबोध नहीं रह गया है। साधारणजन की तकलीफों के प्रति सत्ता बिल्कुल संवेदनहीन हो चुकी है। कश्मीर में जनप्रदर्शनों के हिंसक दमन, अरुंधति राय को जेल भेजने की धमकी, दंतेवाड़ा में आदिवासियों की हत्याओं और विस्थापन, कामन वेल्थ गेम के नाम पर मजदूरो को दिल्ली से भगाए जाने जैसे कई प्रसगों की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि सत्ता बिल्कुल प्रतिक्रियावादी और फासिस्ट हो चुकी है। एक अनियंत्रित आर्थिक उदारवाद की जो संस्कृति है, भाजपा और कांग्रेस उसके प्रवक्ता और वाहक हैं और उन्हें भारत में पनपे नवधनाढ़य नए मध्यवर्ग का निर्लज्ज साथ मिल रहा है। साधारण जनता के जो बड़े सांस्कृतिक मूल्य है सत्ता उसे खत्म कर देना चाहती है और लूट, बर्बरता के मूल्यों के प्रचार में लगी है, मीडिया उसका एक ताकतवर माध्यम है। मंगलेश डबराल ने कहा कि आज संस्कृतिकर्मियों और साहित्यकारों को ऐसी सत्ताओं से अपने संबंध को पुनर्परिभाषित करना होगा। राज्य, पूंजी, बाजार या उसके उत्पाद और उसकी राजनीति के खिलाफ एक सांस्कृतिक प्रतिरोध संगठित करना होगा।
उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता कर रहे प्रो. मैनेजर पांडेय ने कहा कि जो आतताई, निर्मम, लुटेरी और झूठ की सत्ता है, उसका होना ही मनुष्यता के प्रति अपराध है। उसके विकल्प के प्रति सोचना ही पड़ेगा। आज पूंजीवाद समाजवाद से लड़ने के लिए उसी सामंतवाद और धार्मिक प्रवृत्तियों का सहारा ले रहा है, जिसका कभी उसने विरोध किया था। हमारे पास जनता, समाजवाद और माक्र्सवाद से जुड़े लेखकों और संस्कतिकर्मियों के त्याग, समर्पण और संघर्ष की मिसालें हैं, उनकी स्मृति हमारी ताकत है, हमें उस ताकत के साथ मौजूदा सत्ताओं के खिलाफ खड़ा होना होगा। अन्याय और बुराई के खिलाफ जनता में जो बेचैनी और आक्रोश है, उसे अभिव्यक्ति देनी होगी। उद्धाटन सत्र में प्रलेस के महासचिव कमला प्रसाद, जलेस की केंद्रीय कार्यकारिणी की ओर से मुरली मनोहर प्रसाद सिंह और चंचल चैहान द्वारा भेजा गया शुभकामना संदेश भी पढ़ा गया। कवि आलोक धन्वा ने भी सम्मेलन के लिए अपना संदेश भेजा था, जिसका पाठ किया गया। सम्मेलन को जलेस के नासिर अहमद सिकंदर और प्रलेस के रवि श्रीवास्तव ने भी संबोधित किया। मंच पर वीपी केशरी, रविभूषण, राजेंद्र कुमार, रामजी राय, अशोक भौमिक आदि भी मौजूद थे। संचालन अवधेश ने किया।
सम्मेलन को संबोधित करते हुए विशिष्ट अतिथि सुप्रसिद्ध कवि नवारुण भट्टाचार्य ने कहा कि मुक्तिबोध और शंकर गुहा नियोगी को याद करते हुए आज फिर से ‘संघर्ष और निर्माण’ के नारे की याद आती है। जिस तरह से आज का साम्राज्यवाद और उसके देशी दलाल अपने स्वार्थ में आदिवासियों और देश के मेहनतकशों के लिए विनाश और विस्थापन का चक्र चला रहे हैं, उसके खिलाफ फिर उसी नारे के साथ उठ खड़ा होना वक्त की जरूरत है।
दूसरे दिन सांगठनिक सत्र की शुरुआत मसविदा दस्तावेज के पाठ से हुई। दस्तावेज की शुरुआत जनभाषा में अवधेश प्रधान द्वारा रचित एक गीत से हुई, जो अपने आप में जसम के लक्ष्य की ओर भी संकेत करता है। उस गीत में बहुराष्ट्रीय कंपनियों, कारपोरेट के हित में भारतीय शासकवर्गों द्वारा की जा रही लूट और लूट को जारी रखने के लिए किए जा रहे बर्बर दमन के यथार्थ के साथ उसके खिलाफ एक ताकतवर जनप्रतिरोध का आह्वान है। दस्तावेज ने इसे चिह्नित किया कि अमेरिका अपने देश में बेरोजगारी दूर करने लिए भारतीय बाजार के आखेट में लगा है। ओबामा इसी मकसद से भारत आए थे। विकास के नाम पर आदिवासी क्षेत्रों, जंगल, पहाड़, जल, जमीन के दोहन, भारी पैमाने पर विस्थापन, पर्यावरण विनाश और जनसंहार की बढ़ती घटनाओं पर चिंता जाहिर करते इस दस्तावेज में यह कहा गया कि आज पूंजीवादी लोकतंत्र के हर खंभे की निष्पक्षता और स्वायत्तता स्वांग लगने लगी है। न्यायपालिका तक सत्ता की राजनीति और पूंजी के तकाजों से घिरी नजर आ रही है। अयोध्या और यूनियन कार्बाइड मामले में जो फैसला आया है, वह इसी का उदाहरण है। पेड न्यूज, अंधविश्वास, युद्धोन्माद, सांप्रदायिकता के सहयोगी होने और जनांदोलनों के प्रति विरोधी रुख के कारण मीडिया की भूमिका भी जनपक्षधर नहीं रह गई है। अंतर्राष्ट्रीय साम्राज्यवादी कंपनियों-एजेंसियों के साथ सरकार, संसद, सैन्यबल, नौकरशाही, वित्तीय संस्थाओं, एनजीओ और मीडिया के स्वार्थपूर्ण समझौतों तथा शैक्षणिक, बौद्धिक-सांस्कृतिक संस्थाओं से लेकर ग्राम पंचायतों तक लूट और दमन की संस्कृति के विस्तार पर गहरी फिक्र जाहिर करते सम्मेलन के इस दस्तावेज में जनता के प्रतिरोध की संस्कृति को संगठित करने पर जोर दिया गया। किसानों की आत्महत्या और आनर किलिंग के संदर्भ में जसम की ओर से मजबूत सांस्कृतिक हस्तक्षेप की जरूरत पर भी दस्तावेज में जोर दिया गया।
दस्तावेज पर विचार विमर्श की शुरुआत करते हुए प्रो. मैनेजर पांडेय ने कहा कि आज आशा के जो स्रोत हैं, उन्हें भी याद करने की जरूरत है। अमेरिकी साम्राज्यवाद के खिलाफ क्यूबा, वेनेजुएला जैसे देशों का प्रतिरोध और सेज के खिलाफ भारतीय जनता के प्रतिरोध को उम्मीद की तरह देखना होगा। उन्होंने कहा कि संघर्ष की छोटी सी छोटी कोशिशों को भी दर्ज करना होगा। उन्होंने कहा कि कला-संस्कृति की सारी विधाओं में जनता के जीवन की जो अभिव्यक्ति हो रही है, उसे एक सुचिंतित वैचारिक दिशा देनी होगी। समाजवाद आज और भी प्रासंगिक हो गया है। समाजवादी सपनों की दिशा में संस्कृतिकर्म को गति देनी होगी। उड़ीसा से आए राधाकांत, पश्चिम बंग गण सांस्कृतिक परिषद् के नीतीश, जेवियर कुजूर-झारखंड, राकेश दिवाकर, सुनील चौधरी-आरा, सूर्यनारायण-इलाहाबाद, सुरेश पंजम-लखनऊ, आशुतोष कुमार-दिल्ली, संजय जोशी-गाजियाबाद, शोभा सिंह-लखनऊ, पंकज चतुर्वेदी-कानपुर, कपिल शर्मा-दिल्ली, समता राय-पटना, जय प्रकाश नायर-छत्तीसगढ़, मंगलेश डबराल-दिल्ली और के.के.पांडेय-इलाहाबाद ने सांगठनिक सत्र में चले विचार विमर्श में हिस्सा लिया। सांगठनिक सत्र की अघ्यक्षता रामजी राय, राजेंद्र कुमार, शंभू बादल और रामनिहाल गुंजन ने की।
जसम के इस सम्मेलन में कला-संस्कृति की कई विधाओं और शैलियों की छटाएं देखी गई। कला का हर रंग इस स्वप्न को सामने ला रहा था कि कैसे देश दुनिया में जनपक्षधर व्यवस्थाएं निर्मित हों, किस तरह मानवीय सभ्यता-संस्कृति की प्रगति हो। जो है उससे बेहतर चाहिए, मुक्तिबोध की यह चिंता जैसे सम्मेलन के केंद्र में थी। मुक्तिबोध के चारों पुत्र- रमेश, दिवाकर, गिरीष और दिलीप सम्मेलन में आए, यह सम्मेलन एक सुखद संयोग था।

भारतीय चित्रकला के प्रगतिशील पक्ष से अवगत हुए दर्शक

प्रसिद्ध चित्रकार-कथाकार अशोक भौमिक ने भारतीय चित्रकला का प्रगतिशील पक्ष’ विषय पर काफी जानकारीपूर्ण और सरोकारों के लिहाज से अत्यंत उपयोगी व्याख्यान दिया। उन्होंने भारतीय चित्रकला के इतिहास को, उस पर मौजूद राजनैतिक-आर्थिक प्रभावों का जिक्र करते हुए, पेश किया। धर्म, सामंती मूल्यबोध, मुगल और यूरोपीय कला से भारत की चित्रकला किस कदर प्रभावित रही और किस तरह बंगाल के भीषण अकाल और तेभागा आंदोलन के दौर में भारतीय चित्रकला में आम मेहनतकश जन के दुख-सुख और संघर्ष का दस्तावेजीकरण हुआ, इसकी भी उन्होंने चर्चा की। उन्होंने भारतीय चित्रकला को जनोन्मुख बनाने में कम्युनिस्ट पार्टी की ऐतिहासिक भूमिका को रेखांकित किया। अशोक भौमिक अपने कविता पोस्टरों के लिए भी चर्चित रहे हैं। जसम सम्मेलन स्थल पर लगाए गए राधिका-अर्जुन द्वारा बनाए गए पोस्टर उसी परंपरा को विकसित करने की एक कोशिश लगे।

कविता पोस्टरों के जरिए याद किए गए मशहूर कवि और शाय

यह वर्ष भारतीय उपमहाद्वीप के मशहूर शायर फैज अहमद फैज,मजाज, हिंदी कवि नागार्जुन, शमशेर, केदारनाथ अग्रवाल और अज्ञेय का जन्मशताब्दी वर्ष है। राधिका-अर्जुन ने उनकी कविताओं पर आधारित बडे़ प्रभावशाली पोस्टर बनाए थे। इन कविता पोस्टरों के जरिए इन शायरों और कवियों की विचारधारा, काव्य-संवेदना और उनकी प्रतिबद्धता से दर्शक रूबरू हुए। नागार्जुन की प्रसिद्ध कविता ‘प्रतिबद्ध हूं’ के संकल्प के साथ एक पोस्टर में यह दिशानिर्देश भी नजर आया कि ‘साधारण जनों से/ अलहदा होकर रहो मत/ कलाधर या रचयिता होना नहीं है पर्याप्त/ पक्षधर की भूमिका धारण करो।’ पोस्टरों में उनकी प्रसिद्ध कविता ‘हरिजन गाथा’ के अंश थे तो शासकीय दमन के प्रतिरोध में उतरे मुक्ति सैनिकों की तलाश भी थी। फैज के मशहूर नज्म ‘लाजिम है’ का यकीन एक ओर था तो दूसरी ओर आदमी में मौजूद लोहे की ताकत का बयान करती केदारनाथ अग्रवाल की कविता का अंश तो तीसरी ओर शमशेर की कविता में मौजूद ‘वज्र कठिन कमकर की मुट्ठी में पथ प्रदर्शिका मशाल’। अधिकांश कविता पोस्टरों में साधारण मेहनतकश जनता की इंकलाबी ताकत के प्रति गहन आस्था की अभिव्यक्ति थी। रक्तपायी शासकवर्ग के हित में जनता की बदहाली, शोषण-दमन आदि के सवाल पर चुप रहने वाले साहित्यिक-कविजन, चिंतक, शिल्पकार आदि के प्रति सख्त आलोचना मुक्तिबोध के साथ-साथ सर्वेश्वर, गोरख, मायकोव्स्की, पाब्लो नेरुदा, आलोक धन्वा की कविताओं पर आधारित पोस्टरों में भी थी। गुर्राते हुए भेड़ियों के खिलाफ मशाल जलाने और बेजुबानों की आवाज बनने का आह्वान और संकल्प का इजहार भी थे ये पोस्टर।
सांगठनिक सत्र में मंच की दायीं ओर लगा मशहूर कवि और गायक पाल राबसन की कविता पर आधारित पोस्टर एक तरह से जसम के राष्ट्रीय सम्मेलन के मकसद की अभिव्यक्ति था-

प्रत्येक कलाकार, प्रत्येक वैज्ञानिक
प्रत्येक लेखक को अब यह तय करना
होगा कि वह कहां खड़ा है
सुरक्षित आश्रय के रूप में कोई पृष्ठभाग
नहीं है.....कलाकार को पक्ष चुनना ही होगा।
स्वतंत्रता के लिए संघर्ष, या फिर गुलामी- उसे
किसी एक को चुनना ही होगा....
और कोई विकल्प नहीं है।

लोकार्पण

नवारुण भट्टाचार्य ने जसम सम्मेलन की स्मारिका का लोकार्पण किया। जिसमें जन्मशताब्दी वर्ष वाले रचनाकारों के अतिरिक्त पहल के संपादक ज्ञानरंजन, मैनेजर पांडेय, रघुवीर सहाय, निराला आदि की रचनाएं हैं। संपादन कैलाश बनवासी ने किया है। इस अवसर पर झारखंड के संस्कृतिकर्मी कालेश्वर गोप के कहानी संग्रह ‘मैं जीती हूं’ का लोकार्पण कैलाश बनवासी ने किया।
चित्र और मूर्ति प्रर्दशनी सम्मेलन में गिलबर्ट जोसेफ, सुनीता वर्मा, डीएस विद्यार्थी, एफ.आर. सिन्हा, बृजेश तिवारी, रश्मि भल्ला, जीके निर्मलकर और प्रांजली के चित्र तथा धनंजय पाल के चित्र प्रदर्शित थे, जो सम्मेलन का महत्वपूर्ण आकर्षण थे।

जनगीत, बाउल, डाक्युमेंटरी और फिल्म का प्रदर्शन

पश्चिम बंग गण परिषद की ओर से आए बाउल गायकों-नर्तकों ने अपनी प्रस्तुति के जरिए अद्भुत समां बांधा। भोजपुर के क्रांतिकारी किसान आंदोलन के महानायक का. रामनरेश राम के निधन के तुरत बाद बनाई गई नीतिन की डाक्यूमेंटरी और ईरानी फिल्म ‘टर्टल्स कैन फ्लाई’ भी सम्मेलन में दिखाई गई। शहीद गुरु बालकदास बाल मंच (जामुल/छत्तीसगढ़) और हिरावल (भिलाई) के बालकलाकारों की प्रस्तुति जितनी मनमोहक थी, उतना ही भविष्य की संभावनाओं से लैस थी। सम्मेलन में हिरावल (भिलाई), हिरावल (बिहार), दस्ता(इलाहाबाद) और युवानीति (आरा) के कलाकारों ने जनगीत पेश किए।

कविता पाठ

सम्मेलन के आखिरी सत्र के आरंभ में कविता पाठ हुआ, जिसमें नवारुण भट्टाचार्य ने अपनी बहुचर्चित कविता ‘यह मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देश' का अंश सुनाया। मीता दास ने हिंदी में अनुदित उनकी कविताओं का पाठ किया। मंगलेष डबराल ने टार्च, भूख और भूत, मैं तैयार नहीं हूं, दरवाजे और खिड़कियां जैसी अपनी प्रसिद्ध कविताओं को सुनाया। विनोद कुमार शुक्ल ने भी अपनी तीन कविताओं का पाठ किया, जिसमें हमारे दौर की कई ज्वलंत समस्याओं को लेकर चिंता मौजूद थी। शोभा सिंह ने कश्मीर के हालात पर रची गई दो कविताओं और शमशेर की याद में लिखी गई अपनी कविता का पाठ किया। रमाशंकर विद्रोही ने नूर मियां के सूरमे और मानव सभ्यता में स्त्रियों के उत्पीड़न और दमन के खिलाफ लिखी गई अपनी लंबी कविता का पाठ किया। राजेंद्र कुमार की कविता में शासकों-प्रशासकों की खबर ली गई थी तो शंभू बादल की छोटी कविताएं जनजीवन की छोटी-छोटी उम्मीदें को बटोरने की एक कोशिश थी।
सम्मेलन का समापन हिरावल (बिहार) द्वारा गोरख पांडेय की स्मृति में रचित दिनेष कुमार शुक्ल की कविता ‘जाग मेरे मन मछंदर’ के गायन और हिरावल (भिलाई) द्वारा ‘अंधेरे में’ कविता की नाट्य प्रस्तुति से हुआ।
सम्मेलन में लेनिन पुस्तक केंद्र (लखनऊ), गोरखपुर फिल्म सोसाइटी और समकालीन जनमत की ओर से बुकस्टाल भी लगाए गए थे।

--सुधीर सुमन

Saturday, November 13, 2010

एक षड़यंत्र की गाथा - असद ज़ैदी

1949 की सर्दियों में (22 -23 दिसंबर) इशां की नमाज़ के कुछ घंटे बाद, आधी रात के वक़्त, एक साज़िश के तहत चुपके से बाबरी मस्जिद में कुछ मूर्तियाँ रख दी गईं. इस बात का पता तब चला जब हस्बे-मामूल सुबह फ़जर के वक़्त मस्जिद में नमाज़ी पहुँचे. तब तक यह 'ख़बर' उड़ा दी गयी थी कि मस्जिद में रामलला प्रकट हुए हैं और कुछ 'रामभक्त' वहाँ पहुँचना शुरू हुए. इस वाक़ये की ख़बर मिलते ही प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने संयुक्त प्रांत (बाद में उत्तर प्रदेश) के तत्कालीन मुख्यमंत्री गोविन्दवल्लभ पन्त से कहा कि ये मूर्तियाँ फ़ौरन हटवाइये. पंडित नेहरू का पन्त जी से इस आदेश के पालन उम्मीद करना ऐसा ही था जैसा एक बैल से दूध देने की उम्मीद करना. पन्त जी के इशारे पर फ़ैज़ाबाद के ज़िला मजिस्ट्रेट के के नायर ने 'विवादित स्थल' को सील कर दिया. इस तरह बाबरी मस्जिद में, जिसमें 422 साल से नमाज़ पढ़ी जा रही थी, अब मुसलमानों का प्रवेश वर्जित हो गया. नेहरू खुद अयोध्या आना चाहते थे पर पन्त जी ने किसी तरह इस मंसूबे को भी टलवा दिया. कुछ हताश होकर नेहरू ने संयुक्त प्रान्त के गृहमंत्री लालबहादुर शास्त्री से भी कहा कि वे कुछ करें, और खुद अपने गृहमंत्री सरदार पटेल से कहा कि पन्त को समझाएँ. अंत में नेहरू जी ने देखा कि वे इस मामले में अल्पमत में हैं तो उन्होंने भी हाथ झाड़ लिए.

अयोध्या इतनी "हिन्दू नगरी" कभी न थी जितनी आज है. मौर्यकाल में यह मुख्यतः एक बौद्ध नगरी थी. इसके क़रीब एक हज़ार साल बाद आए चीनी यात्री फ़ाहियान (पांचवीं सदी) और ह्वेन-सांग (सातवीं सदी) ने भी इसे एक प्रमुख बौद्ध नगर ही पाया और कुछ ग़ैर बौद्ध आबादी और प्रार्थना स्थलों का भी ज़िक्र किया. कालान्तर में यहाँ बौद्ध धर्मावलम्बी और बौद्ध धर्मस्थल क्रमशः विलुप्त होते गए (यह वाक़या सिर्फ अयोध्या ही नहीं पूरे उपमहाद्वीप में घटित हुआ) और विभिन्न मत-मतान्तर के लोगों का, जिन्हें आज की भाषा में मोटे तौर पर हिन्दू कहा जा सकता है, बाहुल्य हो गया. अयोध्या जैन धर्मावलम्बियों के लिए भी एक महत्वपूर्ण नगरी रही है – उनके दो तीर्थंकर यहीं के थे. सल्तनत (मुग़ल-पूर्व) काल में अयोध्या में सूफ़ी प्रभाव भी बहुत बढ़ा. यानी अयोध्या में रामभक्ति के उद्भव से दो सदी पहले ही यहाँ सूफी-मत पहुँच चुका था. हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया के ख़लीफ़ा ख़्वाजा नासिरुद्दीन महमूद 'चिराग़े देहली' यहीं के थे और चालीस साल की उम्र तक यहीं रहे. मुगलों के आने से पहले ही अयोध्या अपनी मिली-जुली संस्कृति और धार्मिक बहुलता के लिए जाना जाता था.

रामभक्ति की परम्परा उत्तर भारत में मुग़ल काल से ज़्यादा पुरानी नहीं है. पंद्रहवीं सदी के उत्तरार्ध में रामानंदी प्रभाव दिखना शुरू हुआ, पर बाबर के समय तक यह बहुत ही सीमित था. रामभक्ति का हिन्दू जनता के बीच लोकव्यापीकरण अवध के इलाक़े में अकबर के समय से होता है और इसमें अकबर के समकालीन तुलसीदास 'रामचरितमानस' की केन्द्रीय भूमिका है. सत्रहवीं सदी से पहले उत्तर भारत में कहीं भी कोई राम मंदिर नहीं था, और हाल तक भी बहुत ज़्यादा मंदिर नहीं थे. तुलसीदास और वाल्मीकि की अयोध्या मिथकीय नगरी है और सरयू एक मिथकीय नदी, लिहाज़ा ये जन्मस्थान को भौगोलिक रूप से फ़ैज़ाबाद में चिह्नित करने की कोशिश नहीं करते (वैसे भी इस देश में एकाधिक अयोध्या और सरयू मौजूद हैं, और अयोध्या ही में अनेक स्थलों के जन्मभूमि होने का दावा किया जाता है). यह भी विचारणीय है कि धार्मिक परम्परा की एक ऐतिहासिकता ज़रूर होती है पर धार्मिक, पौराणिक चरित्रों या महाकाव्यों के नायकों को ऐतिहासिक चरित्रों का दर्जा देने और 'पौराणिक काल' को ऐतिहासिक समय की तरह देखने से आस्तिक मन में उनकी मर्यादा और विश्वसनीयता बढ़ने के बजाय घटती ही है. जहाँ तक इतिहास और पुरातत्व का सवाल है, यह एक स्थापित तथ्य है कि अयोध्या इलाक़े में छः हज़ार वर्ष से पहले मानव सभ्यता या किसी भी तरह की इंसानी मौजूदगी थी ही नहीं. स्थापत्य की नज़र से देखें तो अयोध्या की हर पुरानी इमारत भारतीय-मुग़ल (इंडो-मुग़ल) तर्ज़ पर बनी हुई है, भले ही हनुमानगढ़ी हो या सीता की रसोई.

फिर हम कहाँ जा रहे हैं? यह सचमुच आस्था का प्रश्न है या धोखाधड़ी और धींगामुश्ती के बल पर फहराई गयी खूनी ध्वजा को आस्था की पताका कहने और कहलवाने का अभियान?

क्या हिन्दुत्ववादी गिरोह और आपराधिक पूंजी द्वारा नियंत्रित समाचारपत्रों और टी वी चैनलों और उनके शिकंजे में फंसे असुरक्षित, हिंसक और लालची पत्रकार और 'विशेषज्ञ' अब इस कल्पित और गढ़ी गयी आस्था के लिए परम्परा, ज्ञान, इतिहास, पुरातत्व, क़ानून, इंसाफ़, लोकतंत्र और संवैधानिक अधिकारों की बलि देंगे? यह अधिकार इन्हें किसने दिया है?
मेरे ख़याल से यह 'अधिकार' इन्हें पिछले पच्चीस साल में उभरे उभरे नए मध्यवर्ग और नवधनाढ्य तबक़े ने दिया है. ये नव-बर्बर समुदाय इस मुल्क के नए मालिक हैं, अनियंत्रित आर्थिक नव-उदारवाद इनकी मूल विचारधारा है और इसे मुल्क पर थोपने के लिए इनकी सेवा में दोनों मुख्य राजनीतिक गठबंधन (कांग्रेस और भाजपा और इनके सहयोगी दल) मुस्तैद हैं जिन्हें ये एक दूसरे के विकल्प की तरह पेश करते हैं. मुल्क के भीतर कभी कठोर तो कभी नर्म हिंदुत्व, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अमरीका की गुलामी, सार्वजनिक संसाधनों की निजी लूट इसके बुनियादी लक्ष्य हैं.

दरअसल यह नई पूंजी और नव-उदारवादी आर्थिक दर्शन भारतीय मध्यवर्ग के मूलगामी पुनर्गठन और एकीकरण में व्यस्त है. यह एक प्रतिक्रियावादी और फाशिस्ट एकीकरण है जो मध्यवर्ग और व्यापक जनसमुदाय के भीतर अब तक मौजूद लोकतांत्रिक प्रतिरोध और वैचारिक अंतर्विरोधों की परम्परा को मिटा देना चाहता है. ये उसके रास्ते की रुकावटें हैं. और साम्प्रदायिक बहुमतवाद इस प्रतिक्रियावादी एकीकरण का मुख्य उपकरण है. नव-उदारीकरण इस मुल्क में कभी राजनीतिक बहुमत प्राप्त नहीं कर सकता, साम्प्रदायिक बहुमत का निर्माण ही उसकी एकमात्र आशा है क्योंकि इसका नियंत्रण असंवैधानिक, अलोकतांत्रिक, धर्मांध, हिंसक और भ्रष्ट तत्वों के हाथ में होता है.

यह समझ भी कि यह मंडल के जवाब में भाजपा मंदिर लेकर आई (मंडल बनाम कमंडल) पूरी तरह ठीक नहीं है. हिन्दू राष्ट्र बनाने की परियोजना पुरानी है और दो राष्ट्रों का सिद्धांत जिन्ना और मुस्लिम लीग की देन ही नहीं है, सावरकर से पहले भी इसके अनेक मज़बूत प्रवक्ता रहे हैं, जिनमें से कुछ तो हमारी राष्ट्रीय देवमाला में शामिल हैं. मंडल आयोग की सिफारिशों के विश्वनाथप्रताप सिंह सरकार द्वारा लागू किये जाने से सवर्ण हिन्दू समाज में खलबली ज़रूर मची और अनुभव के स्तर पर सवर्ण वर्गों को अपना वर्चस्व और रोज़गार के अवसर संकट में पड़ते दिखाई दिए, दूसरी और मध्य जातियों के राजनीतिक दलों की ताक़त बढ़ी और हिन्दुस्तानी राजनीति में अब तक छाया भद्र-सर्वानुमातिवाद टूटा. लेकिन इससे आर्थिक नव-उदारीकरण और निजीकरण की कार्यसूची को कोई खतरा नहीं हुआ, बल्कि शासक तबक़ों ने यह पाया कि साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण और हिन्दुत्ववादी अभियान से मध्यवर्ग के एकीकरण में मदद मिलेगी. चूंकि मध्यवर्ग का विशालतम लगभग 98 प्रतिशत हिस्सा हिन्दू, जैन और सिख समुदायों से आता है इसलिए मुस्लिम-विरोधी बाड़ेबंदी के तहत इन्हें एक करना अपेक्षाकृत आसान और सुरक्षित और आज़मूदा नुस्खा है, तो क्यों न ऐसा ही हो! यह सैम हंटिंगटन और जार्ज बुश और उनके उत्तराधिकारियों की नीतियों से भी मेल खाता है और इस बात का कोई खतरा भी नहीं कि "अंतर्राष्ट्रीय समुदाय" (जिसका मतलब हमारे यहाँ अमरीका और यूरोप होता है) भारत पर पिछड़ी और अलोकतांत्रिक नीतियाँ अपनाने का इलज़ाम लगाएगा. एक प्रकार से मुस्लिम विरोधी साम्प्रदायिकता और बर्बर हिंसा को सिर्फ संघ परिवार के मुख्यालय नागपुर की ही नहीं, वाशिंगटन कन्सेंसस की भी शह प्राप्त है।

(समयांतर के नवम्बर 2010 अंक से साभार)

Tuesday, November 9, 2010

अरुंधती और देश - प्रणय कृष्ण

अरुंधती राय का किसी देश के बौद्धिक क्षितिज पर सक्रिय होना इस बात का आश्वासन है कि उस देश की सत्ता और संपत्ति पर वंचितों की दावेदारी की लड़ाई खत्म नहीं हुई है, ये बात तब भी कही जा सकती है जब कोई उनकी बातों से सहमत न भी हो- चाहे कश्मीर पर या माओवाद पर. यदि ऐसा न होता तो कश्मीर पर उनके बयान से शासक जमातें इतनी परेशान न होतीं, जबकि कश्मीर की आज़ादी की मांग को लेकर वर्षो से पक्ष-विपक्ष में न जाने कितने लोग कितनी बातें कर चुके हैं.
३१ अक्तूबर को मीडिया की ताकतों के साथ आपराधिक मिलीभगत कर भाजपा का उनके घर पर कायराना हमला इसी बौखलाहट का नतीजा है. यह हमला कायराना इसलिए भी था क्योंकि यहाँ हमले में औरतो को आगे किया गया. महिला मोर्चा की औरतों ने कभी उन मर्द सैनिक अधिकारियों पर हमला नहीं किया जिन पर कश्मीर घाटी में शोपियां बलात्कार कांड का आरोप है. उन्होंने कभी उन सुरक्षाबलों पर हमला नहीं बोला जिनके बलात्कार कांडों के खिलाफ पूर्वोत्तर प्रांत की महिलाओं ने नग्न देहों के साथ इस नारे के साथ प्रदर्शन किया कि, 'भारतीय सेनाओं, आओ हमारा बलात्कार करो'. भाजपा का महिला मोर्चा कभी दहेज के लिए जलाई जा रही औरतों, दलालों द्वारा वेश्यावृत्ति को मजबूर की जाती और अपहरण कर बेची जाती लड़कियों, भ्रूण में खत्म की जाती बच्चियों, घरेलू हिंसा की और खाप पंचायतों की बलि चढ़ती युवतियों के लिए ज़िम्मेदार अपराधियों पर हमला नहीं बोलतीं. वे तो देशभक्त हैं और उनके देश में इन अभागी औरतो की कोई गिनती नहीं.
अरुंधती ने अब तक अपने लेखन और सामाजिक क्रियाकलाप में उस देश का पक्ष लिया है जिसका कोई पुरसाहाल नहीं है, जो गरीब, वंचित, सताए हुए स्त्री, पुरुषों,बच्चों का है, जिनकी इस देश की सत्ता और संपत्ति में कोई हिस्सेदारी नहीं है. दूसरी तरफ वे हैं जो इस देश की सत्ता और संपत्ति पर काबिज़ हैं. उनका मानना हैं कि वे ही देश हैं. इनकी भक्ति करना ही देशभक्ति है. अमीर- भक्ति, अमेरिका- भक्ति, ओबामा-भक्ति, मिलिटरी-भक्ति, पुलिस-भक्ति,मुखबिर-भक्ति, अदालत-भक्ति- इस देशभक्ति के कई रूप हैं. अरुंधती का लेखन और आचरण अक्सर ही अमीरों, अमरीका,मिलीटरी, पुलिस और अदालत से टकरा जाता है यानी जिन चीजों को देश बताया जा रहा है उनसे ही वे टकरा जा रही हैं , फिर क्यों न देशद्रोही कहलाएँ?
पिछले दो दशकों से देशभक्ति इतनी सस्ती हुई है कि कोई भी अपराधी,लम्पट,बलात्कारी और भ्रष्ट व्यक्ति पाकिस्तान को चार गाली देकर देशभक्त होने का तमगा पा सकता है। ऐसे माहौल में अरुंधती को देशद्रोही बताया जाए तो क्या आश्चर्य? जब कांग्रेसी भी उनके कश्मीर वाले बयान पर उन पर मुकदमा करने की धमकी दे रहे थे, तो उन्होंने ठीक ही कहा था कि, " तरस आता है उस देश पर, जो लेखकों की आत्मा की आवाज को खामोश करता है। तरस आता है, उस देश पर जो इंसाफ की मांग करनेवालों को जेल भेजना चाहता है – जबकि सांप्रदायिक हत्यारे, जनसंहारों के अपराधी, कॉरपोरेट घोटालेबाज, लुटेरे, बलात्कारी और गरीबों के शिकारी खुले घूम रहे हैं।" समस्या यह है कि दुनिया की बड़ी पूंजी की दलाली, सरकारी खजाने की लूट और अपराध-राजनीति गठजोड़ की बदौलत सम्पन्न और सफल लोगों ने देश और देशभक्ति की परिभाषा बदल दी है. सच तो यह है कि ऐसे सबल,सम्पन्न और सफल लोगों की मुखालफत ही आज की सच्ची देशभक्ति है.
मीडिया और बौद्धिकों का एक समूह राज्य को ही राष्ट्र मानता है और राजभक्ति को ही राष्ट्रभक्ति। अरुंधती का बौद्धिक व्यक्तित्व राजभक्ति के इसी फर्जीबाड़े को देशभक्ति के नाम से विख्यात करने में बाधा डालता है. अगर सैन्यबल टार्चर , ह्त्या ,बलात्कार कर रहे हों और आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर्स एक्ट के तहत उन पर कोई कार्रवाई न हो पा रही हो , जब पूर्व सेना प्रमुखों सहित ४० बड़े पूर्व सैन्य अधिकारी मुम्बई के हाउज़िंग घोटाले में फंसे हों, जब पुलिस फर्जी एन्काउंटर कर रही हो, अदालतें जनता के खिलाफ व कारपोरेट के पक्ष में निर्णय सुना रही हों, न्यायाधीशों पर भ्रष्टाचार के आरोपों के बाद भी राजनीतिक कारणों से उन पर महाभियोग न चलाया जा सकता हो, मीडिया पेड़ न्यूज़ से लेकर अंधविश्वास, युद्धोन्माद और साम्प्रदायिकता फैलाने और गरीबों की आवाज़ दबाने पर ,जन-आंदोलनों को बदनाम करने पर कमर कसे हुए हो, तो इन्हीं संस्थाओं को देश मान इनकी भक्ति कैसे की जाए?
मैं माओवाद के बारे में अरुंधती की समझ को पर्याप्त राजनीतिक नहीं पाता. वे उसका दावा भी नहीं करतीं. कश्मीर की आज़ादी को लेकर भी वे जैसी उम्मीद रखती हैं , मैं वैसा उम्मीदवार भी नहीं हूँ. लेकिन कश्मीर के साथ इंसाफ हो, इसकी बाबत उनकी मुहीम से मैं हर-हर्फ़ सहमत होने को बाध्य हूँ. हम महज किसी धर्म,किसी जाति, किसी देश के बाशिंदे ही नहीं हैं , हम सबसे पहले और सबसे अंत में इंसान हैं.
कश्मीर के आन्दोलन का नेतृत्व ८० के दशक तक जे.के.एल.ऍफ़. करता था. वह कश्मीरियत की बात करता था और सेक्युलर था. भारत के भीतर की कई लोकतांत्रिक ताकतों ने उनके नेतृत्व से अपील की थी कि अंतर्राष्ट्रीय शक्ति-संतुलन के मद्देनज़र कश्मीर की जनता की खुदमुख्तारी को यदि वे 'लगभग आज़ादी जैसी' ( भारतीय संघ के भीतर) अधिकतम स्वायत्तता की मांग के रूप में पेश करें तो भारत के भीतर उन्हें समर्थन भी ज़्यादा मिलेगा, दमन करना भी आसांन न होगा, भारत -पाक के शत्रुतापूर्ण संबंधों के संकुचित राजनयिक दायरे से मुक्त कश्मीरी जनता के स्वतंत्र सवाल के रूप में 'लगभग आज़ादी जैसी' अधिकतम स्वायत्तता की बात परिभाषित हो सकेगी. आगे चलकर भारत-पाक-बांग्लादेश के महासंघ या ऐसे ही किसी व्यापक दक्षिण-एशियाई गठबंधन के भीतर कश्मीर शत्रु ताकतों की घेरेबंदी की चिंता से मुक्त अपनी वास्तविक स्वतंत्रता का लाभ कर सकेगा. यदि ऐसा नहीं हुआ तो इस क्षेत्र में अमरीका को बिचौलिया बनने का मौक़ा मिलेगा, कश्मीर भारत-पाक के बीच युद्ध का 'बफर ज़ोन' बनता चला जाएगा, सेक्युलर नेतृत्त्व का दमन होते ही धार्मिक चरमपंथियों के हाथ आन्दोलन का नेतृत्व चला जाएगा और इस बहाने भारत के भीतर भी सांप्रदायिक और फासीवादी ताकतों को अपनी स्थिति मज़बूत करने का मौक़ा मिलेगा. इतिहास ने काफी कुछ ऐसा ही साबित भी किया. आज कश्मीर की जनता के साथ जो बर्बर व्यवहार भारतीय राजसत्ता कर पा रही है उसके पीछे बाकी के बहुत से कारणों के अलावा कश्मीर के तब के सेक्युलर नेतृत्त्व की अदूरदर्शिता भी एक कारण ज़रूर है. आज स्थिति यह है कि वहां की आम जनता पत्थरों के सहारे अपने खिलाफ किए जा रहे हत्याकांडों का मुकाबला कर रही है. नेतृत्त्व में तरह तरह के रंगबिरंगे और अविश्वसनीय तत्त्व हैं जो खुद तो हथियारबंद और कमोबेश सुरक्षित हैं जबकि जनता निहत्थी है. बहरहाल ये बातें इतिहास और रणनीति की हैं जिनका आधिकारिक हल कश्मीरी अवाम के भीतर से ही आना है.
रही बात अरुंधती के बयान की, तो कोइ भी व्यक्ति भारत सरकार द्वारा १९४८ में जारी जम्मू और कश्मीर संबंधी श्वेतपत्र के उन अंशों को देख सकता है जिसमें प्रधानमंत्री नेहरू लगातार अंतर्राष्ट्रीय शक्तियों को टेलीग्राम करके आश्वस्त कर रहे हैं कि कश्मीर का फैसला वहां की जनता अंतर्राष्ट्रीय निगरानी में जनमत-संग्रह के ज़रिए करेगी और तब तक कश्मीर का भारत में मिलाया जाना तदर्थ (प्रोविजनल) ही रहेगा। आगे इस मामले में धारा ३७० सहित बहुत कुछ होता रहा जो इतिहास है. अरुंधती के बयान से कोई कितना भी असहमत हो, इतना तो हर कोई मानेगा कि इस मसले का आज तक कोई फैसला नहीं हुआ है और भारतीय गणराज्य में कश्मीर की संवैधानिक स्थिति वह नहीं है जो किसी भी अन्य राज्य की है. अरुंधती ने लिखा है,"मैंने वह कहा, जो यहां दसियों लाख लोग रोज कह रहे हैं। मैंने वही कहा, जो दूसरे लेखक सालों से लिखते और कहते आये हैं। मेरे भाषणों को पढ़ने की जहमत उठानेवाले यह देखेंगे कि मैंने बुनियादी तौर पर इंसाफ की मांग की है। मैंने कश्मीरी लोगों के लिए इंसाफ के बारे में कहा है, जो दुनिया के सबसे क्रूर फौजी कब्‍जे में रह रहे हैं – उन कश्मीरी पंडितों के लिए, जो अपने घरों से उजाड़ दिये जाने की त्रासदी में जी रहे हैं – उन दलित सैनिकों के लिए, कूड़े के ढेर पर बनी जिनकी कब्रों को मैंने कुड्डालोर में उनके गांवों में देखा – भारत के उन गरीबों के लिए जो इस कब्‍जे की कीमत चुकाते हैं और एक बनते जा रहे पुलिस राज के आतंक में जीना सीख रहे हैं।" क्या आपत्तिजनक है इन शब्दों में? ऐसा क्या कह दिया अरुंधती ने?
सिर्फ गुंडागर्दी के बल पर इंसाफ की बात ख़त्म नहीं की जा सकती। संघ परिवार के तमाम कालम-लेखक इस समय अरुंधती की जनम कुंडली खोल कर बैठे हैं .वे बता रहे है कि कैसे जब उनका उपन्यास 'गाड ऑफ़ आफ स्माल थिंग्स' प्रकाशित हुआ था, तभी से वे देशद्रोही हैं क्योंकि उस उपन्यास से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर देश की घृणित मानव -द्रोही, प्रेम-द्रोही जाति-प्रथा-पितृसत्त्ता-राजसत्ता के गठजोड़ का सच उजागर करके उन्होंने देश की किरकिरी की थी, मानो वे ऐसा करनेवाली पहली लेखिका हों. चरित्र-हनन में माहिर ये अखबारनवीस बताते हैं कि बुकर पुरस्कार की धन-राशि के लिए उन्होने यह सब किया, लेकिन ये कभी नहीं बताते कि इस राशि से उन्होंने मदद की तमाम संस्थाओं, पत्रिकाओं और ज़रूरतमंद कार्यकर्ताओं की, अपने लिए नहीं रखा. ऐसे तत्व यह भी लिखते हैं कि वे उपन्यास से पुरस्कार और पुरस्कार से शोहरत पाना चाहती थीं. वे नहीं बताते कि इस शोहरत का उन्होंने क्या इस्तेमाल किया. इस शोहरत का इस्तेमाल उन्होंने दुनिया भर में हक़, मानवाधिकार और इन्साफ के लिए, साम्राज्यवाद और युद्धोन्माद के खिलाफ चलने वाले आंदोलनों के पक्ष में किया है. देश के भीतर हाशिए पर रहनेवाले लोगों के लिए इंसाफ के पक्ष में किया है.शोहरत के इस इस्तेमाल ने उन्हें हुक्मरानों , संसद , सरकार, अदालत, मीडिया और फासीवादी ताकतों ,सबके निशाने पर ला दिया है. आज के भारत पर काबिज़ सत्ताधारियों के लिए अरुंधती बेशक एक ख़तरा हैं, लेकिन उन मेहनतकशों के लिए एक साथिन हैं जिन्हें कभी न कभी खुद देश हो जाना है.

--प्रणय कृष्ण

Sunday, November 7, 2010

अमरीकी राष्ट्रपतियों की मुस्कान















वे आश्चर्यजनक रूप से मुस्कराते रहते हैं

शिवप्रसाद जोशी


अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा भारत दौरे पर हैं, उन्हीं के शब्दों में गांधी के देश में.


उनके राष्ट्रपति बनने के कुछ ही समय बाद नोबेल शांति पुरस्कार की घोषणा हुई थी और संयोग से ओबामा तब तक मध्य एशिया और अरब देशों और मुसलमानों के बारे में अपनी टिप्पणियों-दौरों से पुरस्कार कमेटी और विश्व नेताओं को मोहित कर चुके थे.


इसी संयोग के बीच ओबामा को नोबेल शांति पुरस्कार दिए जाने का ऐलान हुआ. इसी दौरान तिब्बती नेता दलाई लामा से न मिल पाने की असमर्थता ओबामा ने जताई जो उन दिनों अमेरिका जाने की तैयारी कर रहे थे. जिस वक़्त नोबेल शांति का अवार्ड ओबामा को देने की घोषणा दुनिया भर में जा रही थी उस समय ओबामा अपनी सर्वोच्च युद्ध परिषद की बैठक के लिए जा रहे थे जिसमें अफ़ग़ानिस्तान पर भावी रणनीति की चर्चा की जानी थी.


इसी बैठक से मुस्कराते हुए निकलकर ओबामा ने दुनिया का शुक्रिया कहा, शांति की कामना की, और महात्मा गांधी की अहिंसा को याद किया. ये उनका दबदबा ही रहा होगा या दलाई लामा की अपनी ख़ामोशी की पॉलिटिक्स जो उन्होंने भी कह दिया कि ओबामा मिलना नहीं चाहते तो कोई बात नहीं.


ओबामा ऐसे समय में भारत के दौरे पर हैं जब अमेरिका के मध्यावधि चुनावों के इतिहास में उनकी पार्टी की शर्मनाक हार हुई है. प्रतिनिधि सभा में रिपब्लिकनों की भरमार हो गई है. ओबामा कमज़ोर हुए हैं. और उनकी आवाज़ और मुस्कान और इरादों की हवा धीरे धीरे निकल रही है. वे ऐसे समय में गांधी को याद करते हुए हिंदुस्तान में हैं, जब अफ़ग़ानिस्तान में सैनिकों की आमद बढ़ाए जाने का फ़ैसला उन्हें करना है, ड्रोन हमलों के दायरे में कुछ और ठिकाने लाए जाने हैं, उनके दबंग खुफ़िया अधिकारी रात दिन एक कर जुलियन असांजे की तलाश कर रहे हैं. वो असांजे जिसने अपनी विकीलीक्स नाम की वेबसाइट पर सीआईए और दूसरे एजेंटों की हाल की ख़ुराफ़ातों के दस्तावेज़ सार्वजनिक कर दिए हैं. ओबामा का गांधी प्रेम की परत के नीचे असांजे से निपटने की रणनीति की नाकामी का क्रोध धधक रहा है.


हेरॉल्ड पिंटर ने लिखा था कि अमेरिकी राष्ट्रपति मुस्कराते बहुत हैं. ओबामा के पूर्ववर्ती बुश के विश्व संग्राम के दौर में पिंटर ने लिखा था कि अमेरिका ने वास्तव में- दूसरे विश्व युद्ध के खत्म होने के बाद से- एक चमकदार, यहां तक कि चतुर नीति अख़्तियार की है. सार्वभौम अच्छाई की स्थापना का झंडा उठाकर उसने विश्वव्यापी ताक़त का टिकाऊ, सुव्यवस्थित, अपराध बोध से मुक्त और क्लिनिकीय प्रदर्शन किया है. लेकिन कम से कम- अभी तो ये कहा जा सकता है कि- अमेरिका अपने दड़बे से बाहर आ गया है. मुस्कान ज़ाहिर है अपनी जगह क़ायम है(तमाम अमेरिकी राष्ट्रपतियों के पास हमेशा आश्चर्य जनक मुस्कान रही है) लेकिन भाव भंगिमा अनिर्णीत रूप से ज़्यादा नंगी और ज़्यादा रूखी है जितना कि पहले कभी नहीं रही.


एक अघोषित नारे की ओट में ओबामा भारत दौरे पर हैं कि वो गांधी के पुजारी जैसे हैं. भक्त हैं. आदि आदि. आंतकवाद के ख़िलाफ़ अमेरिका की अगुवाई वाला युद्ध जारी है. अफ़ग़ानिस्तान एक दुष्चक्र में फंस गया है. इराक़ में अमेरिकी फ़ौजें सबकुछ बरबाद कर लौट रही हैं. इस्राएल पहले से ज़्यादा खुंखारी के साथ फ़िलस्तीनी संघर्ष को ख़त्म करने पर तुला है. यूरोप में कट्टरवादी ताक़तें सिर उठाने लगी हैं. जर्मनी की मैर्केल और फ्रांस के सारकोज़ी की ज़बानें बदल रही हैं. वे और अनुदारवादी हो रहे हैं. रूस पूतिन के दर्प और दबदबे में स्थानीय अस्मिताओं का दमन कर रहा है. खाड़ी देश एक विराट अलौकिक निर्माण में व्यस्त हैं और वहां को़ड़े फांसी दुर्दांत सज़ाएं जारी हैं. अफ़्रीका में अमेरिका के रक्तबीज संहार मचा रहे हैं. चीन बहुत शातिरी से अल्पसंख्यकों की आवाज़ को बर्फ़ में दबा रहा है. उसका राष्ट्रपति दुनिया का शक्तिशाली व्यक्ति हो गया है. लातिन अमेरिका में अमेरिकावाद का विरोध पहाड़ों में गायब हो रहे पानी की तरह हो गया है. क्यूबा अब किसी भी वक़्त अमेरिकी जबड़े में जा सकता है.


ओबामा ऐसे समय में शांति और अहिंसा की कामना के साथ आए हैं जब हम सब जानते हैं कि उस देश के तमाम राष्ट्रपतियों ने क्योटो प्रोटोकोल को ख़ारिज किए रखा है, छोटे हथियारों के व्यापार को नियंत्रित करने के लिए होने वाले समझौते में दस्तख़त करने से इंकार कर दिया है, एंटी बैलिस्टिक मिसाईल संधि, व्यापक एटमी परीक्षण प्रतिबंध संधि और जैव हथियार कन्वेंशन से किनारा कर लिया है. जैव हथियार मामले पर तो अमेरिका ने बिल्कुल साफ कर दिया था कि वो इन हथियारों को निषिद्ध करने के लिए राज़ी है बशर्ते अमेरिकी धरती पर किसी जैव हथियार उत्पादन फैक्ट्री का कभी मुआयना न किया जाए. अमेरिका ने प्रस्तावित अंतरराष्ट्रीय आपराधिक न्याय अदालत को स्वीकृति भी नहीं दी है. दूसरे देशों पर सैन्य अभियान की उसकी मर्जी का डंका तो बजता ही रहता आया है.


हेरॉल्ड पिंटर ने इस अमेरिकी दादावाद की धुनाई करते हुए लिखा था कि वो दर्प से भरा, बेपरवाह, अंतरराष्ट्रीय क़ानून की मानहानि करने वाला, संयुक्त राष्ट्र को मन मुताबिक ख़ारिज और तोड़ने मरोड़ने वाला- वो अब दुनिया में अब तक ज्ञात सबसे ख़तरनाक शक्ति है- विशुद्ध रूप से ‘लफंगा’ राज्य लेकिन विराट सैन्य और आर्थिक बल वाला ‘लफंगा’. और यूरोप- ख़ासकर ब्रिटेन- शिकायती और शिकार दोनों है. या जूलियस सीज़र में जैसा कि कैसियस कहता है: ‘हम अपनी ही अपमानजनक क़ब्रें देखकर चिंचियाते हैं.’


लेकिन. लेकिन अपनी ही इच्छाओं, लालच, दमन और कट्टरवादी आग्रहों के भारी बोझ में अमेरिका एक स्वर्ण जड़ित बूढ़े महादैत्य की तरह डोल रहा है. उसके फैलाए युद्ध दुनिया को धूल और ख़ून से भरकर अब दम तोड़ रहे हैं. दुनिया में घास उग ही रही है, हवाएं चल ही रही हैं और प्रतिरोध करने वाले अपने अपने ढंग से हर कहीं जमा हो रहे हैं. अमेरिका का विरोध उसकी नाक के नीचे वेनेज़ुएला ही नहीं करता, अमेरिका से कोसों दूर इधर उत्तराखंड में मेरे गांव का एक पूर्व हलवाहा भी करता है. पहले जिसकी खेती छूटी, डंगर छूटे, बीज छूटे, हल छूटा और फिर गांव. दुनिया में अमेरिकी ताक़त और भूमंडलीय पूंजीवाद के प्रति एक अत्यधिक घृणा और उबकाई है.

Thursday, November 4, 2010

एक लम्हे का मौन



(एमानुएल ओर्तीज़ की यह कविता असद ज़ैदी के अनुवाद में पहली बार शायद २००७ में 'पहल' (मरहूम) में छपी थी. उसके बाद यह कई बार प्रकाशित हो चुकी है. इस कविता के अनेक नाटकीय पाठ और मंचन भी हुए हैं. राष्ट्रपति ओबामा के भारत आगमन पर हमारी तरफ़ से तोहफ़े के बतौर फिर से पेश की जाती है .)




कवितापाठ से पहले एक लम्हे का मौन

एमानुएल ओर्तीज़

अनुवाद: असद ज़ैदी



इससे पहले कि मैं यह कविता पढ़ना शुरू करूँ

मेरी गुज़ारिश है कि हम सब एक मिनट का मौन रखें

ग्यारह सितम्बर को वर्ल्ड ट्रेड सेंटर और पेंटागन में मरे लोगों की याद में

और फिर एक मिनट का मौन उन सब के लिए जिन्हें प्रतिशोध में

सताया गया, क़ैद किया गया

जो लापता हो गए जिन्हें यातनाएँ दी गईं

जिनके साथ बलात्कार हुए एक मिनट का मौन

अफ़ग़ानिस्तान के मज़लूमों और अमरीकी मज़लूमों के लिए


और अगर आप इजाज़त दें तो


एक पूरे दिन का मौन

हज़ारों फिलस्तीनियों के लिए जिन्हें उनके वतन पर दशकों से क़ाबिज़

इस्त्राइली फ़ौजों ने अमरीकी सरपरस्ती में मार डाला

छह महीने का मौन उन पन्द्रह लाख इराक़ियों के लिए, उन इराक़ी बच्चों के लिए,

जिन्हें मार डाला ग्यारह साल लम्बी घेराबन्दी, भूख और अमरीकी बमबारी ने


इससे पहले कि मैं यह कविता शुरू करूँ


दो महीने का मौन दक्षिण अफ़्रीक़ा के अश्वेतों के लिए जिन्हें नस्लवादी शासन ने

अपने ही मुल्क में अजनबी बना दिया। नौ महीने का मौन

हिरोशिमा और नागासाकी के मृतकों के लिए, जहाँ मौत बरसी

चमड़ी, ज़मीन, फ़ौलाद और कंक्रीट की हर पर्त को उधेड़ती हुई,

जहाँ बचे रह गए लोग इस तरह चलते फिरते रहे जैसे कि ज़िंदा हों।

एक साल का मौन विएतनाम के लाखों मुर्दों के लिए --

कि विएतनाम किसी जंग का नहीं, एक मुल्क का नाम है --

एक साल का मौन कम्बोडिया और लाओस के मृतकों के लिए जो

एक गुप्त युद्ध का शिकार थे -- और ज़रा धीरे बोलिए,

हम नहीं चाहते कि उन्हें यह पता चले कि वे मर चुके हैं। दो महीने का मौन

कोलम्बिया के दीर्घकालीन मृतकों के लिए जिनके नाम

उनकी लाशों की तरह जमा होते रहे

फिर गुम हो गए और ज़बान से उतर गए।


इससे पहले कि मैं यह कविता शुरू करूँ।


एक घंटे का मौन एल सल्वादोर के लिए

एक दोपहर भर का मौन निकारागुआ के लिए

दो दिन का मौन ग्वातेमालावासिओं के लिए

जिन्हें अपनी ज़िन्दगी में चैन की एक घड़ी नसीब नहीं हुई।

४५ सेकिंड का मौन आकतिआल, चिआपास में मरे ४५ लोगों के लिए,

और पच्चीस साल का मौन उन करोड़ों ग़ुलाम अफ़्रीकियों के लिए

जिनकी क़ब्रें समुन्दर में हैं इतनी गहरी कि जितनी ऊँची कोई गगनचुम्बी इमारत भी होगी।

उनकी पहचान के लिए कोई डीएनए टेस्ट नहीं होगा, दंत चिकित्सा के रिकॉर्ड नहीं खोले जाएंगे।

उन अश्वेतों के लिए जिनकी लाशें गूलर के पेड़ों से झूलती थीं

दक्षिण, उत्तर, पूर्व और पश्चिम


एक सदी का मौन


यहीं इसी अमरीका महाद्वीप के करोड़ों मूल बाशिन्दों के लिए

जिनकी ज़मीनें और ज़िन्दगियाँ उनसे छीन ली गईं

पिक्चर पोस्ट्कार्ड से मनोरम खित्तों में --

जैसे पाइन रिज वूंडेड नी, सैंड क्रीक, फ़ालन टिम्बर्स, या ट्रेल ऑफ़ टिअर्स।

अब ये नाम हमारी चेतना के फ्रिजों पर चिपकी चुम्बकीय काव्य-पंक्तियाँ भर हैं।


तो आप को चाहिए ख़ामोशी का एक लम्हा ?

जबकि हम बेआवाज़ हैं

हमारे मुँहों से खींच ली गई हैं ज़बानें

हमारी आँखें सी दी गई हैं

ख़ामोशी का एक लम्हा

जबकि सारे कवि दफ़नाए जा चुके हैं

मिट्टी हो चुके हैं सारे ढोल।


इससे पहले कि मैं यह कविता शुरू करूँ

आप चाहते हैं एक लम्हे का मौन

आपको ग़म है कि यह दुनिया अब शायद पहले जैसी नहीं रही रह जाएगी

इधर हम सब चाहते हैं कि यह पहले जैसी हर्गिज़ रहे।

कम से कम वैसी जैसी यह अब तक चली आई है।


क्योंकि यह कविता /११ के बारे में नहीं है

यह /१० के बारे में है

यह / के बारे में है

/ और / के बारे में है

यह कविता १४९२ के बारे में है।*


यह कविता उन चीज़ों के बारे में है जो ऐसी कविता का कारण बनती हैं।

और अगर यह कविता /११ के बारे में है, तो फिर :

यह सितम्बर , १९७१ के चीले देश के बारे में है,

यह सितम्बर १२, १९७७ दक्षिण अफ़्रीक़ा और स्टीवेन बीको के बारे में है,

यह १३ सितम्बर १९७१ और एटिका जेल, न्यू यॉर्क में बंद हमारे भाइयों के बारे में है।


यह कविता सोमालिया, सितम्बर १४, १९९२ के बारे में है।


यह कविता हर उस तारीख़ के बारे में है जो धुल-पुँछ रही है कर मिट जाया करती हैं।

यह कविता उन ११० कहानियो के बारे में है जो कभी कही नहीं गईं, ११० कहानियाँ

इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में जिनका कोई ज़िक्र नहीं पाया जाता,

जिनके लिए सीएनएन, बीबीसी, न्यू यॉर्क टाइम्स और न्यूज़वीक में कोई गुंजाइश नहीं निकलती।

यह कविता इसी कार्यक्रम में रुकावट डालने के लिए है।


आपको फिर भी अपने मृतकों की याद में एक लम्हे का मौन चाहिए ?

हम आपको दे सकते हैं जीवन भर का ख़ालीपन :

बिना निशान की क़ब्रें

हमेशा के लिए खो चुकी भाषाएँ

जड़ों से उखड़े हुए दरख़्त, जड़ों से उखड़े हुए इतिहास

अनाम बच्चों के चेहरों से झाँकती मुर्दा टकटकी

इस कविता को शुरू करने से पहले हम हमेशा के लिए ख़ामोश हो सकते हैं

या इतना कि हम धूल से ढँक जाएँ

फिर भी आप चाहेंगे कि

हमारी ओर से कुछ और मौन।


अगर आपको चाहिए एक लम्हा मौन

तो रोक दो तेल के पम्प

बन्द कर दो इंजन और टेलिविज़न

डुबा दो समुद्री सैर वाले जहाज़

फोड़ दो अपने स्टॉक मार्केट

बुझा दो ये तमाम रंगीन बत्तियाँ

डिलीट कर दो सरे इंस्टेंट मैसेज

उतार दो पटरियों से अपनी रेलें और लाइट रेल ट्रांज़िट।


अगर आपको चाहिए एक लम्हा मौन, तो टैको बैल ** की खिड़की पर ईंट मारो,

और वहाँ के मज़दूरों का खोया हुआ वेतन वापस दो। ध्वस्त कर दो तमाम शराब की दुकानें,

सारे के सारे टाउन हाउस, व्हाइट हाउस, जेल हाउस, पेंटहाउस और प्लेबॉय।


अगर आपको चाहिए एक लम्हा मौन

तो रहो मौन ''सुपर बॉल'' इतवार के दिन ***

फ़ोर्थ ऑफ़ जुलाई के रोज़ ****

डेटन की विराट १३-घंटे वाली सेल के दिन *****

या अगली दफ़े जब कमरे में हमारे हसीं लोग जमा हों

और आपका गोरा अपराधबोध आपको सताने लगे।


अगर आपको चाहिए एक लम्हा मौन

तो अभी है वह लम्हा

इस कविता के शुरू होने से पहले।


(११ सितम्बर, २००२)


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टिप्पणियाँ :

* १४९२ के साल कोलम्बस अमरीकी महाद्वीप पर उतरा था।

** टैको बैल : अमरीका की एक बड़ी फ़ास्ट फ़ूड चेन है।

*** ''सुपर बॉल'' सन्डे : अमरीकी फ़ुटबॉल की राष्ट्रीय चैम्पियनशिप के फ़ाइनल का दिन। इस दिन अमरीका में ग़ैर-सरकारी तौर पर राष्ट्रीय छुट्टी हो जाती है।

**** फ़ोर्थ ऑफ़ जुलाई : अमरीका का ''स्वतंत्रता दिवस'' और राष्ट्रीय छुट्टी का दिन।

जुलाई १७७६ को अमरीका में ''डिक्लरेशन ऑफ इंडीपेंडेंस'' (स्वाधीनता का ऐलान) पारित किया गया था।

***** डेटन : मिनिओपोलिस नामक अमरीकी शहर का मशहूर डिपार्टमेंटल स्टोर।



एमानुएल ओर्तीज़ मेक्सिको-पुएर्तो रीको मूल के युवा अमरीकी कवि हैं। वह एक कवि-संगठनकर्ता हैं और आदि-अमरीकी बाशिन्दों, विभिन्न प्रवासी समुदायों और अल्पसंख्यक अधिकारों के लिए सक्रिय कई प्रगतिशील संगठनों से जुड़े हैं।