नई दिल्ली। बलात्कार की संस्कृति के खिलाफ व्यापक सांस्कृतिक और राजनीतिक आंदोलन चलाने की जरूरत है। दिल्ली की सड़कों पर उमड़े जनविरोध ने इस बलात्कारी संस्कृति और उसे मिले राजसत्ता के समर्थन पर हल्ला बोला है। ये विचार कल 28 जनवरी को जन संस्कृति मंच द्वारा-बलात्कार की संस्कृति और राजसत्ता- विषय पर आयोजित गोष्ठी में उभर कर सामने आए। गोष्ठी में देश भर में महिलाओं के खिलाफ होने वाली यौन उत्पीड़न-बलात्कार की घटनाओं में हो रही बेतहाशा वृद्धि पर गंभीर चिंता व्यक्त की गई और तुरंत कड़ी कार्रवाई की मांग की गई।
इस गोष्ठी में बड़ी संख्या में स्त्री रचनाकारों, संस्कृतिकर्मियों, पत्रकारों और साहित्यकारों ने शिरकत की। अनहद संस्था की शबनम हाशमी ने याद दिलाया कि किस तरह से गुजरात में राज्य सरकार के प्रश्रय में महिलाओं के साथ बर्बरत यौन उत्पीड़न किया गया। शबनम ने बताया कि गुजरात जनसंहार के दौरान भी बलात्कार करने वालों ने राड और लकड़ी का इस्तेमाल किया गया था। औरतों के साथ गैंगरेप करके उन्हें पेट्रोल डालकर जला दिया था। बलात्कार के खिलाफ जब पूरे देश में आंदोलन चल रहा है, उस वक्त भी वहां बलात्कार हुए हैं। गुजरात में स्टेट ने बलात्कारियों का साथ दिया। इस सवाल पर पूरे मुल्क में प्रतिरोध जारी रखना होगा।
वरिष्ठ कवि नीलाभ ने सवाल उठाया कि क्या यह सिर्फ कानून और व्यवस्था का सवाल है? बलात्कार पावर के साथ जुड़ा है। स्टेट इस मामले में अपनी जिम्मेवारी से बचता है। क्या स्वस्थ स्त्री पुरुष संबंधों के बिना बलात्कार से मुकित का उपाय ढूंढा जा सकता है?
वरिष्ठ पत्रकार और समाजिक कार्यकर्ता किरण शाहीन ने कहा कि बलात्कार की संस्कृति स्त्री को हेय समझने की प्रवृतित से जुड़ी हुर्इ है। हमें यह देखना होगा कि उपभोक्तवाद किस तरह विषमता को बढ़ा रहा है और किस तरह वर्किग क्लास का भी लुंपानाइजेशन हो रहा है। साहित्यकारों और संस्कृतिकर्मियों को राजनीतिक होना पड़ेगा।
वरिष्ठ कवि सविता सिंह ने कहा कि हमारे देश की इकोनामी में भी रेप जैसी सिथति बनी हुर्इ है। लालच, सेल्फ इंटरेस्ट और सिर्फ अपने बारे में सोचने की प्रवृत्ति के भीतर से ही बर्बरता पैदा होती है। इस इकोनामी में स्त्री के श्रम की मूल्यवत्ता घटी है। सित्रयों का बहुत ही गहरे स्तर पर शोषण हो रहा है। इस सिथति में क्रिएटिव रिस्पांस क्या होंगे, इस बारे में सोचना होगा।
युवा कवि रजनी अनुरागी ने कहा कि भारतीय परंपरा में भी सित्रयों के प्रति भेदभाव मिलता है और यहां देवताओं द्वारा बलात्कार को जायज ठहराया जाता रहा है। आज यह हिंसा और फैल गई है और स्त्री के अस्तित्व पर ही संकट आ गया है। युवा आलोचक आशुतोष कुमार ने कहा कि चाहे हम कितने भी दुखद क्षण और शाक से गुजर रहे हैं, पर उज्जवल पक्ष यह है कि इसके पहले यौन हिंसा के खिलाफ इस स्तर का प्रतिरोध नहीं दिखा था। यह स्त्री आंदोलन के लिए ऐतिहासिक दौर है। इस देश में विषमता और अन्याय तेजी से बढ़ रहा है। जहां भी बलात्कार हो रहे हैं, उन सब जगहों पर प्रतिवाद करना होगा और स्त्री विरोधी परंपरा से भी भिड़ना होगा।
कवि व महिला कार्यकर्ता शोभा सिंह ने कहा कि आज बलात्कारी संस्कृति के खिलाफ जिस तरह नौजवान सामने आए हैं, वह अच्छी बात है। जिस लड़की के प्रतिरोध के बाद यह आंदोलन उभरा है, उसकी जिजीविषा को सलाम। युवा कवि व शायर मुकुल सरल ने कहा कि सिर्फ पढ़े-लिखे होने से कोर्इ स्त्री के प्रति संवेदनशील नहीं हो सकता। उसके लिए अच्छे संस्कार और साहित्य-संस्कृति से जुड़ाव जरूरी है। इंडिया गेट से लेकर इस गोष्ठी तक जसम ने इस आंदोलन के प्रति अपनी प्रतिबद्धता का इजहार किया है। यह सिलसिला जारी रहेगा।
कथाकार अंजलि देशपांडे ने कहा कि इस देश में लक्ष्मणों से बचना होगा और शूर्पनखा के संघर्ष को जारी रखना होगा। आजादी के लिए अपनी सुरक्षा को दांव में लगाना होगा। आजादी के नाम पर जेल जैसी सुरक्षा को कबूल नहीं किया जा सकता। हमें राज्यसत्ता को ज्यादा ताकत देते वक्त हमेशा सावधान रहना होगा, क्योंकि उसी ताकत के जरिए वह हमारा दमन भी करने लगती है।
वरिष्ठ साहित्यकार प्रेमलता वर्मा ने कहा कि ऐसा लगता है कि लोकतंत्र के नाम पर इस देश में आज भी राज्यतंत्र ही चल रहा है। इसलिए स्त्री इसके खिलाफ आवाज उठा रही है, सड़कों पर लड़ रही है। वरिष्ठ साहित्यकार और दलित चिंतक विमल थोराट ने सवाल उठाया कि क्यों बार-बार कमजोर ही बलात्कार का शिकार होते हैं? जब किसी जाति या समूह को उसकी हैसियत बतानी होती है, तो यौन हिंसा की यह संस्कृति सित्रयों को ही अपना टारगेट बनाती है। गांवों में और दलित महिलाओं के साथ जो गैंगरेप हो रहे हैं, उसे लेकर इतना आक्रोश क्यों नहीं उभरता?
वरिष्ठ कथाकार मैत्रेयी पुष्पा ने कहा कि यह एक वीभत्स कांड है। जिसमें कहा जा रहा है दोषी कुंठा के शिकार थे। लेकिन अन्य दूसरों मामलों में किस तरह की कुंठा काम कर रही थी। जिस तरह इन लोगों ने भ्रष्टाचार को जायज बनाया है, उसी तरह बलात्कार भी इनकी निगाह में जायज है। हमें देखना होगा कि इस तरह के लोगों को कौन पार्टी उम्मीदवार बनाती है, हमें इन्हें वोट नहीं देना होगा। यह मुहिम जरूरी है।
ऐपवा की राष्ट्रीय सचिव कविता कृष्णन ने कहा कि 16 दिसंबर के बाद जो आंदोलन उभरा, वह वाकर्इ स्वत:स्फूर्त था, इसके लिए हमें नौजवान लड़के-लड़कियों को धन्यवाद देना होगा। प्रगतिशील जमात को इस तरह के आंदोलनों को संशय से देखने की प्रवृतित को छोड़ना होगा। इस आंदोलन ने महिलाओं की आजादी और बराबरी के सवाल को सामने लाया है। इसे जनता का भी जबर्दस्त समर्थन मिला। बाबा रामदेव जैसे लोग भी इस जनविक्षोभ को नेतृत्व देने आए, लेकिन उन्हें बाहर होना पड़ा, क्योंकि स्त्री की आजादी के सवाल पर उनकी कोर्इ विश्वसनीयता ही नहीं थी। विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के नेताओं के जिस तरह के स्त्री विरोधी बयान आए हैं, उसके मददेनजर इस देश की राजनीतिक संस्कृति में महिलाओं के लिए बुनियादी लोकतंत्र की मांग को इस आंदोलन ने केंद्र में ला दिया है। कविता ने कहा कि इस गैंगरेप के बाद जिस तरह प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और कुछ कालमिस्टों द्वारा माइग्रेंट मजदूरों और स्लम में रहने वालों को निशाना बनाया जा रहा है, उसका जबर्दस्त विरोध होना चाहिए।
संचालन करते हुए जसम दिल्ली की सचिव भाषा सिंह ने कहा कि इस आंदोलन के जरिए देश के अलग-अलग कोनों में हुई बलात्कार की भीषण घटनाओं के खिलाफ एक व्यापक जागरूकता आई है और एक निर्णायक माहौल बना है। भाषा सिंह ने कहा कि जसम स्त्रियों की आजादी और गरिमा के लिए चल रहे इस आंदोलन के प्रति एकजुटता जाहिर करता है और महिला संगठनों की मांगों का समर्थन करता है। गोष्ठी में समाजिक कार्यकर्ता सहजो सिंह ने भी अपने विचार रखे।
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(जसम का प्रेस नोट)