Saturday, December 29, 2012

बलात्कार की संस्कृति और राजसत्ता



नई दिल्ली। बलात्कार की संस्कृति के खिलाफ व्यापक सांस्कृतिक और राजनीतिक आंदोलन चलाने की जरूरत है। दिल्ली की सड़कों पर उमड़े जनविरोध ने इस बलात्कारी संस्कृति और उसे मिले राजसत्ता के समर्थन पर हल्ला बोला है। ये विचार कल 28 जनवरी को जन संस्कृति मंच द्वारा-बलात्कार की संस्कृति और राजसत्ता- विषय पर आयोजित गोष्ठी में उभर कर सामने आए। गोष्ठी में देश भर में महिलाओं के खिलाफ होने वाली यौन उत्पीड़न-बलात्कार की घटनाओं में हो रही बेतहाशा वृद्धि पर गंभीर चिंता व्यक्त की गई और तुरंत कड़ी कार्रवाई की मांग की गई।  
इस गोष्ठी में बड़ी संख्या में स्त्री रचनाकारों, संस्कृतिकर्मियों, पत्रकारों और साहित्यकारों ने शिरकत की। अनहद संस्था की शबनम हाशमी ने याद दिलाया कि किस तरह से गुजरात में राज्य सरकार के प्रश्रय में महिलाओं के साथ बर्बरत यौन उत्पीड़न किया गया। शबनम ने बताया कि गुजरात जनसंहार के दौरान भी बलात्कार करने वालों ने राड और लकड़ी का इस्तेमाल किया गया था। औरतों के साथ गैंगरेप करके उन्हें पेट्रोल डालकर जला दिया था। बलात्कार के खिलाफ जब पूरे देश में आंदोलन चल रहा हैउस वक्त भी वहां बलात्कार हुए हैं। गुजरात में स्टेट ने बलात्कारियों का साथ दिया। इस सवाल पर पूरे मुल्क में प्रतिरोध जारी रखना होगा।
वरिष्ठ कवि नीलाभ ने सवाल उठाया  कि क्या यह सिर्फ कानून और व्यवस्था का सवाल हैबलात्कार पावर के साथ जुड़ा है। स्टेट इस मामले में अपनी जिम्मेवारी से बचता है। क्या स्वस्थ स्त्री पुरुष संबंधों के बिना बलात्कार से मुकित का उपाय ढूंढा जा सकता है?
वरिष्ठ पत्रकार और समाजिक कार्यकर्ता किरण शाहीन ने कहा कि बलात्कार की संस्कृति स्त्री को हेय समझने की प्रवृतित से जुड़ी हुर्इ है। हमें यह देखना होगा कि उपभोक्तवाद किस तरह विषमता को बढ़ा रहा है और किस तरह वर्किग क्लास का भी लुंपानाइजेशन हो रहा है। साहित्यकारों और संस्कृतिकर्मियों को राजनीतिक होना पड़ेगा।
वरिष्ठ कवि सविता सिंह ने कहा कि हमारे देश की इकोनामी में भी रेप जैसी सिथति बनी हुर्इ है। लालचसेल्फ इंटरेस्ट और सिर्फ अपने बारे में सोचने की प्रवृत्ति के भीतर से ही बर्बरता पैदा होती है। इस इकोनामी में स्त्री के श्रम की मूल्यवत्ता घटी है। सित्रयों का बहुत ही गहरे स्तर पर शोषण हो रहा है। इस सिथति में क्रिएटिव रिस्पांस क्या होंगेइस बारे में सोचना होगा।
युवा कवि रजनी अनुरागी ने कहा कि भारतीय परंपरा में भी सित्रयों के प्रति भेदभाव मिलता है और यहां देवताओं द्वारा बलात्कार को जायज ठहराया जाता रहा है। आज यह हिंसा और फैल गई है और स्त्री के अस्तित्व पर ही संकट आ गया है। युवा आलोचक आशुतोष कुमार ने कहा कि चाहे हम कितने भी दुखद क्षण और शाक से गुजर रहे हैंपर उज्जवल पक्ष यह है कि इसके पहले यौन हिंसा के खिलाफ इस स्तर का प्रतिरोध नहीं दिखा था। यह स्त्री आंदोलन के लिए ऐतिहासिक दौर है। इस देश में विषमता और अन्याय तेजी से बढ़ रहा है। जहां भी बलात्कार हो रहे हैंउन सब जगहों पर प्रतिवाद करना होगा और स्त्री विरोधी परंपरा से भी भिड़ना होगा।
कवि व महिला कार्यकर्ता शोभा सिंह ने कहा कि आज बलात्कारी संस्कृति के खिलाफ जिस तरह नौजवान सामने आए हैंवह अच्छी बात है। जिस लड़की के प्रतिरोध के बाद यह आंदोलन उभरा हैउसकी जिजीविषा को सलाम। युवा कवि व शायर मुकुल सरल ने कहा कि सिर्फ पढ़े-लिखे होने से कोर्इ स्त्री के प्रति संवेदनशील नहीं हो सकता। उसके लिए अच्छे संस्कार और साहित्य-संस्कृति से जुड़ाव जरूरी है। इंडिया गेट से लेकर इस गोष्ठी तक जसम ने इस आंदोलन के प्रति अपनी प्रतिबद्धता का इजहार किया है। यह सिलसिला जारी रहेगा।
कथाकार अंजलि देशपांडे ने कहा कि इस देश में लक्ष्मणों से बचना होगा और शूर्पनखा के संघर्ष को जारी रखना होगा। आजादी के लिए अपनी सुरक्षा को दांव में लगाना होगा। आजादी के नाम पर जेल जैसी सुरक्षा को कबूल नहीं किया जा सकता। हमें राज्यसत्ता को ज्यादा ताकत देते वक्त हमेशा सावधान रहना होगाक्योंकि उसी ताकत के जरिए वह हमारा दमन भी करने लगती है।
वरिष्ठ साहित्यकार प्रेमलता वर्मा ने कहा कि ऐसा लगता है कि लोकतंत्र के नाम पर इस देश में आज भी राज्यतंत्र ही चल रहा है। इसलिए स्त्री इसके खिलाफ आवाज उठा रही है, सड़कों पर लड़ रही है। वरिष्ठ साहित्यकार और दलित चिंतक विमल थोराट ने सवाल उठाया कि क्यों बार-बार कमजोर ही बलात्कार का शिकार होते हैंजब किसी जाति या समूह को उसकी हैसियत बतानी होती हैतो यौन हिंसा की यह संस्कृति सित्रयों को ही अपना टारगेट बनाती है। गांवों में और दलित महिलाओं के साथ जो गैंगरेप हो रहे हैंउसे लेकर इतना आक्रोश क्यों नहीं उभरता?
वरिष्ठ कथाकार मैत्रेयी पुष्पा ने कहा कि यह एक वीभत्स कांड है। जिसमें कहा जा रहा है दोषी कुंठा के शिकार थे। लेकिन अन्य दूसरों मामलों में किस तरह की कुंठा काम कर रही थी। जिस तरह इन लोगों ने भ्रष्टाचार को जायज बनाया हैउसी तरह बलात्कार भी इनकी निगाह में जायज है। हमें देखना होगा कि इस तरह के लोगों को कौन पार्टी उम्मीदवार बनाती हैहमें इन्हें वोट नहीं देना होगा। यह मुहिम जरूरी है।
ऐपवा की राष्ट्रीय सचिव कविता कृष्णन ने कहा कि 16 दिसंबर के बाद जो आंदोलन उभरावह वाकर्इ स्वत:स्फूर्त थाइसके लिए हमें नौजवान लड़के-लड़कियों को धन्यवाद देना होगा। प्रगतिशील जमात को इस तरह के आंदोलनों को संशय से देखने की प्रवृतित को छोड़ना होगा। इस आंदोलन ने महिलाओं की आजादी और बराबरी के सवाल को सामने लाया है। इसे जनता का भी जबर्दस्त समर्थन मिला। बाबा रामदेव जैसे लोग भी इस जनविक्षोभ को नेतृत्व देने आएलेकिन उन्हें बाहर होना पड़ाक्योंकि स्त्री की आजादी के सवाल पर उनकी कोर्इ विश्वसनीयता ही नहीं थी। विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के नेताओं के जिस तरह के स्त्री विरोधी बयान आए हैंउसके मददेनजर इस देश की राजनीतिक संस्कृति में महिलाओं के लिए बुनियादी लोकतंत्र की मांग को इस आंदोलन ने केंद्र में ला दिया है। कविता ने कहा कि इस गैंगरेप के बाद जिस तरह प्रधानमंत्रीमुख्यमंत्री और कुछ कालमिस्टों द्वारा माइग्रेंट मजदूरों और स्लम में रहने वालों को निशाना बनाया जा रहा हैउसका जबर्दस्त विरोध होना चाहिए।
संचालन करते हुए जसम दिल्ली की सचिव भाषा सिंह ने कहा कि इस आंदोलन के जरिए देश के अलग-अलग कोनों में हुई बलात्कार की भीषण घटनाओं के खिलाफ एक व्यापक जागरूकता आई है और एक निर्णायक माहौल बना है। भाषा सिंह ने कहा कि जसम स्त्रियों की आजादी और गरिमा के लिए चल रहे इस आंदोलन के प्रति एकजुटता जाहिर करता है और महिला संगठनों की मांगों का समर्थन करता है। गोष्ठी में समाजिक कार्यकर्ता सहजो सिंह ने भी अपने विचार रखे।
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(जसम का प्रेस नोट)

उस बहादुर लड़की की मौत पर शोक संवेदना

जन संस्कृति मंच

आजादी, बराबरी और इंसाफ तथा उसके लिए प्रतिरोध महान जीवन मूल्य है : जन संस्कृति मंच
बलात्कारियों का प्रतिरोध करने वाली युवती की मौत पर जसम की शोक संवेदना

नई दिल्ली: 29 दिसंबर 2012

हम उस बहादुर लड़की के प्रतिरोध का गहरा सम्मान करते हैं, जिसने विगत 16 दिसंबर की रात अपनी आजादी और आत्मसम्मान के लिए अपनी जान को दांव पर लगा दिया और बलात्कारियों द्वारा नृशंस तरीके से शरीर के अंदरूनी अंगों के क्षत-विक्षत कर देने के बावजूद न केवल जीवन के लिए लंबा संघर्ष किया, बल्कि न्याय की अदम्य इच्छा के साथ शहीद हुई। आजादी, बराबरी और इंसाफ तथा उसके लिए प्रतिरोध महान जीवन मूल्य है, जिसकी हमारे दौर में बेहद जरूरत है। जन संस्कृति मंच लड़की के परिजनों और करोड़ों शोकसंतप्त लोगों की प्रति अपनी संवेदनात्मक एकजुटता जाहिर करता है।
यह गहरे राष्ट्रीय और सामाजिक-सांस्कृतिक शोक की घड़ी है। हम सबके दिल गम और क्षोभ से भरे हुए हैं। हमारे लिए इस लड़की का प्रतिरोध इस देश में स्त्रियों को साथ हो रहे तमाम जुल्मो-सितम के प्रतिरोध की केंद्रीय अभिव्यक्ति रहा है। जो राजनीति, समाज और संस्कृति स्त्रियों की आजादी और बराबरी के सवालों को अभी भी तरह-तरह के बहानों से उपेक्षित कर रही है या उनके प्रति असंवेदनशील है या उनका उपहास उड़ा रही है, उनको यह संकेत स्पष्ट तौर पर समझ लेना चाहिए कि जब स्वतंत्रता, सम्मान और समानता के अपने अधिकार के लिए जान तक कुर्बान करने की घटनाएं सामने आने लगें, तो वे किसी भी तरह वक्त को बदलने से रोक नहीं सकते।
इस देश में स्त्री उत्पीड़न और यौन हिंसा की घटनाएं जहां भी हो रही हैं, उसके खिलाफ बौद्धिक समाज, संवेदनशील साहित्यकार-संस्कृतिकर्मियों और आम नागरिकों को वहां खड़ा होना होगा और जाति-संप्रदाय की आड़ में नृशंस स्त्री विरोधी मानसिकता और कार्रवाइयों को संरक्षण देने की प्रवृत्ति का मुखर मुखालफत करना होगा, समाज, प्रशासन तंत्र और राजनीति में मौजूद स्त्री विरोधी सामंती प्रवृत्ति और उसकी छवि को मौजमस्ती की वस्तु में तब्दील करने वाली उपभोक्तावादी अर्थनीति और संस्कृति का भी सचेत प्रतिवाद विकसित करना होगा, यही इस शहीद लड़की के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। अनियंत्रित पूंजी की संस्कृति जिस तरह हिंस्र आनंद की प्रवृत्ति को बढ़ावा दे रही और जिस तरह वह पहले से मौजूद विषमताआंे को और गहरा बना रही है, उससे मुकाबला करते हुए हमें एक बेहतर समाज और देश के निर्माण की ओर बढ़ना होगा।
आज इस देश की बहुत बड़ी आबादी आहत है और वह अपने शोक की सार्वजनिक अभिव्यक्ति करना चाहती है, वह इस दुख के प्रति अपनी एकजुटता जाहिर करना चाहती है, लेकिन उसके दुख के इजहार पर भी पाबंदी लगाई जा रही है। इस देश की राजधानी को जिस तरह पुलिस छावनी में तब्दील कर दिया गया है, जिस तरह मेट्रो बंद किए गए हैं, जिस तरह बैरिकेटिंग करके जनता को संसद से दूर रखने की कोशिश की गई है, वह दिखाता है कि इस देश का शासकवर्ग जनता के शोक से भी किस तरह खौफजदा है। अगर जनता के दुख-दर्द से इस देश की सरकारों और प्रशासन की इसी तरह की दूरी बनी रहेगी और पुलिस-फौज के बल पर इस तरह लोकतंत्र चलाने की कोशिश होगी, तो वह दिन दूर नहीं जब जनता की वेदना की नदी ऐसी हुकूमतों और ऐसे तंत्र को उखाड़ देने की दिशा में आगे बढ़ चलेगी।

सुधीर सुमन, जसम राष्ट्रीय सहसचिव द्वारा जारी
मोबाइल- 9868990959

Saturday, December 22, 2012

राजेंद्र यादव के साथ बदसलूकी की निंदा

वरिष्ठ लेखक राजेंद्र यादव के साथ बदसलूकी के विरोध में लेखकों का यह वक्तव्य आज  (22-12-2012)जनसत्ता में छपा है।

विभिन्न माध्यमों से पता चला है कि पिछले दिनों हिंदी के वयोवृद्ध लेखक राजेंद्र यादव के साथ उनके घर जाकर अजीत अंजुम नाम के व्यक्ति ने, जो टीवी का पत्रकार बतलाया जाता है, बदसलूकी और गाली-गलौज की।

यह अत्यनंत शर्मनाक और खेदजनक घटना है। हो सकता है, अजीत अंजुम की राजेंद्र यादव से कुछ शिकायतें  हों। हम उस मामले में कोई भी पक्ष नहीं ले रहे हैं। लेखक के रूप में हमारा मानना सिर्फ यह है कि जब विवाद लेखन को लेकर हो और दो पढ़े-लिखे प्रबुद्ध लोगों के बीच हो तो उसे लोकतांत्रिक तरीके से हल किया जाना चाहिए।

हम इस तरह के व्यवहार की भर्त्सना करते हैं और अपेक्षा करते हैं कि अजीत अंजुम अपने इस व्यवहार के लिए अफसोस प्रकट करेंगे।

-नामवर सिंह          (मो.-  9868637566)

-केदारनाथ सिंह       (मो.- 9811210285)

-अशोक वाजपेयी      (मो.- 9811525653)

-आनंनदस्वरूप वर्मा  (मो.- 9810720714)

-मंगलेश डबराल        (मो.- 9910402459)

-मैत्रेयी पुष्पा              (मो.- 9910412680)

-पंकज बिष्ट              (मो.- 9868302298)

-प्रेमपाल शर्मा        (फोन- 011-22744596)

-भारत भारद्वाज        (मो.- 9313034049)

Tuesday, December 11, 2012

क्या आप क्षमा सावंत को जानते हैं? : भारतभूषण तिवारी



पश्चिमी देशों में ख़ासकर अमेरिका में भारतीय मूल के लोगों की सफलता को लेकर हमारे मीडिया का उत्साह देखते ही बनता है। नोबेल पुरस्कार से सम्मानित प्रसिद्द वैज्ञानिक डॉ. हरगोबिन्द खुराना (जो भारत में पैदा होकर अमेरिकी नागरिक बने) हों या मशहूर अंतरिक्ष-यात्री सुनीता विलियम्स (जो भारतीय माता-पिता की अमेरिका में पैदा हुई संतान हैं)हमारा कलेक्टिव सीना चौड़ा होना को तत्पर होता है। हाल ही में सिटी बैंक के सीईओ पद से हटे या हटाये गए गए विक्रम पंडित जब 2007 के अंत में उस ओहदे पर नियुक्त हुए थे तब विदर्भ के हिंदी-मराठी अखबारों ने उनके नागपुर कनेक्शन और उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में हुए औलिया संत श्री गजानन महाराज (जिनका मंदिर महाराष्ट्र के बुलढाणा जिले के शेगांव में स्थित है और उस मंदिर की देखभाल करने वाला ट्रस्ट 'श्री गजानन महाराज संस्थानअस्पतालस्कूलें और इंजीनियरिंग कॉलेज भी चलाता है लिहाजा उसकी आर्थिक हैसियत शिर्डी के श्री साईबाबा संस्थान ट्रस्ट से कुछ ही कम है) के परम भक्त होने की कहानियों से अपने पन्ने रंग डाले थे। स्कूली बच्चों के लिए अंग्रेज़ी भाषा के कठिन और कम ज्ञात शब्दों के हिज्जे बताने वाली प्रतियोगिता 'स्पेलिंग बीमें भारतीय मूल के बच्चों की सफलता का मुद्दा हो या कुल मिलाकर अमेरिकी स्कूली शिक्षा में उनके फ़्लाइंग कलर्स” का मामलाहम अपने जींस पर गर्व करने का मौका नहीं छोड़ते। 'अपनेपनका नशा इस कदर तारी होता है कि रजत गुप्ता के अर्श से फर्श पर आ गिरने की दास्ताँ या सीएनएन से जुड़े विख्यात पत्रकार और लेखक फरीद ज़कारिया पर लगे साहित्यिक चोरी के आरोपों की कहानी से भी हमें एक रूहानी सुकून ही हासिल होता है।

हाल के कुछ वर्षों में अमेरिकी राजनीति के पटल पर दो भारतीय मूल की शख्सियतें चमकी हैं। ये हैं लुइज़ियाना राज्य के गवर्नर बॉबी जिंदल (जिन्हें अगल्रे राष्ट्रपति चुनावों में रिपब्लिकन पार्टी का उम्मीदवार बनाये जाने की बात जब-तब उठती रहती है और साउथ कैरोलाइना राज्य की गवर्नर निकी हेली उर्फ़ नम्रता रंधावा। इन दोनों की सफलताओं को हमने अपने स्वभाव के मुताबिक़ पर्याप्त सेलेब्रेट किया है बावजूद इसके कि इन दोनों को अपनी तहज़ीबी वल्दियत या 'कल्चरल ब्लडलाइनपर कोई ख़ास नाज़ नहीं। और वह 'नाज़भी उसी समय दृष्टिगोचर होता है जब वे अपेक्षाकृत संपन्न इन्डियन-अमेरिकन कम्युनिटी में वोट या आर्थिक सहायता माँगने जाते हैंवरना वृहत सार्वजनिक जीवन में वे अपनी बची-खुची सांस्कृतिक विरासत को लेकर न केवल खासे शर्मिंदा नज़र आते हैं बल्कि उसे सार्वजनिक तौर पर तज भी चुके हैं। हिन्दू माता-पिता की संतान बॉबी जिंदल तो बीस साल की उम्र से पहले ही कैथलिक बन गए थे। हाँये पता करना मुश्किल है कि उनका धर्म-परिवर्तन वास्तव में आध्यात्मिक ह्रदय-परिवर्तन से उपजा था या अपनी भावी (राजनीतिक अथवा पेशेवर) ज़िन्दगी की कामयाबी के लिए किये गए हिसाब-किताब का परिणाम था। सिख परिवार में जन्मीं निकी हेली ने विवाह के बाद अपने पति का धर्म स्वीकार कर लिया और अब इस बात पर जोर देती हैं कि वे एक 'प्रैक्टाइज़िन्ग क्रिश्चनहैं और सिर्फ अपने माता-पिता का मन रखने के लिए और उनकी संस्कृति के प्रति सम्मान दर्शाने के लिए गुरूद्वारे जाती हैं।
याद रहे कि यहाँ मूल मुद्दा इन दोनों का अपनी धार्मिक और सांस्कृतिक विरासत से दूर होना नहीं है। संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे बहुसांस्कृतिक देश में अश्वेतगैर-ईसाई और अप्रवासी पृष्भूठमि के नागरिक आम तौर पर डेमोक्रेटिक पार्टी का समर्थन करते हैं। मगर जिंदल और हेली को अमेरिका की ग्रैंड ओल्ड पार्टी (रिपब्लिकन पार्टी) के 'फार राइटचेहरे का प्रतिनिधित्व करते देखना तकलीफदेह है।  मार्क्सवादी इतिहासकार और राजनीतिक विश्लेषक प्रो. विजय प्रसाद ने जिंदल के गवर्नर बनने पर उनके बारे में एक मुख़्तसर टिप्पणी की थी जो बहुत कुछ कह देती है: 'एंटी-अबॉर्शनप्रो-गनएंटी-सेकुलरप्रो-सारएंटी-साइं….सूची अंतहीन है।अमेरिका की एक प्रगतिशील पत्रिका 'दि प्रोग्रेसिवके प्रबंध सम्पादक अमिताभ पाल बताते हैं कि निकी हेली पिछले दो-तीन सालों में अमेरिका में उभरे घोर दक्षिणपंथी और प्रति-क्रांतिकारी आन्दोलन 'टी पार्टी मूवमेंटकी चहेती हैं और उन्हें अगले राष्ट्रपति चुनावों में उपराष्ट्रपति पद का उमीदवार बनाया जा सकता है। इस आधार पर जिंदल और हेली को सत्तर और उसके बाद के दशकों में भारतअमेरिका या अन्यत्र पैदा हुई और पली-बढ़ी पीढ़ी की प्रोटो-फासिस्ट प्रवृत्तियों का मूर्तन कहना अतिशयोक्ति न होगी।

वहीं दूसरी ओर क्षमा सावंत हैं जिनका कहीं कोई ज़िक्र भारतीय मीडिया ने नहीं किया। सावंत सिएटल विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र की प्रोफ़ेसर हैं जिन्होंने `सोशलिस्ट अल्टरनेटिव` नाम की वामपंथी पार्टी की उम्मीदवार के तौर पर गत नवम्बर में वाशिंगटन राज्य की प्रतिनिधि सभा का चुनाव लड़ा था। ये अलग बात है कि वे चुनाव में जीत हासिल नहीं कर सकींमगर एक चौथाई से ज़्यादा (28 फ़ीसदी) या लगभग 14,000 वोट हासिल कर उन्होंने इतिहास बनाया। उनके प्रतिद्वंद्वी थे डेमोक्रेटिक पार्टी के उमीदवार और निवर्तमान सभा के अध्यक्ष फ्रैंक चॉप जिनके लिए यह टक्कर उनके पिछले अठारह सालों के कार्यकाल में सबसे मुश्किल साबित हुई।

सोशलिस्ट अल्टरनेटिव का गठन 1986 में 'कमिटी फॉर अ वर्कर्स इंटरनेशनल' (1974 में स्थापित ट्रॉटस्कीवादी वामपंथी पार्टियों का अंतर्राष्ट्रीय संघ जिसका मुख्यालय लन्दन में है) से जुड़े और अस्सी के दशक में अमेरिका जा बसे सदस्यों ने'लेबर मिलिटेंटके नाम से किया था। अपने शुरूआती दिनों में लेबर मिलिटेंट ने अमेरिका के मजदूर आन्दोलन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया और वहाँ के कई बड़े शहरों की प्रमुख यूनियनों में अपनी पैठ बनाई। 1998-99 के बाद से यह पार्टी सोशलिस्ट अल्टरनेटिव के नाम से जानी जाती है। नाम बदलने के तुरंत बाद वाले दौर में सोशलिस्ट अल्टरनेटिव ने अमेरिका के भूमंडलीकरण विरोधी आन्दोलनों में हिस्सेदारी की। 30 नवम्बर 1999 को सिएटल में विश्व व्यापार संगठन की बैठक के दौरान हुए ऐतिहासिक विरोध प्रदर्शन ( जिसे एन-30 के नाम से भी जाना जाता है) में सोशलिस्ट अल्टरनेटिव ने सक्रिय भूमिका निभाई थी।

अफ़गानिस्तान और इराक़ में चल रही जंग के विरोध में सोशलिस्ट अल्टरनेटिव ने 2004 में 'यूथ अगेंस्ट वार एंड रेसिज्मनाम से मुहिम चलाई। हाईस्कूलों में चलाई गई इस मुहिम का फोकस लड़ाइयों की खातिर की जाने वाली युवाओं की सैन्य-भर्ती से सम्बंधित नीतियों का विरोध करना था। 1996 से 2008 तक हर राष्ट्रपति चुनाव लड़ने वाले राजनीतिज्ञ राल्फ नेडर की उम्मीदवारी का सोशलिस्ट अल्टरनेटिव ने उन्हें बुर्जुआ प्रत्याशी मानते हुए भी हर बार समर्थन किया। नेडर की सीमाओं को स्वीकार करते हुए उनके प्रति ज़ाहिर किये गए समर्थन का औचित्य सिद्ध करते हुए पार्टी का तर्क यह था कि  द्विदलीय व्यवस्था को तोड़ने और मेहनतकशों की पार्टी खड़ी करने की दिशा में यह एक महत्त्वपूर्ण कदम है। पिछले साल-डेढ़ साल में सोशलिस्ट अल्टरनेटिव ने देश भर में चले ऑक्युपाई आन्दोलन में हिस्सा लेते हुए कॉर्पोरेट हितों की गुलाम और सड़ी हुई पूंजीवादी व्यवस्था की जगह लोकतांत्रिक समाजवाद को लेकर जनता में जागरूकता बढ़ाने का ज़रूरी काम किया।
  
ज़ाहिर सी बात है कि डेमोक्रेटिक पार्टी के शक्तिशाली उम्मीदवारजिन्हें कॉर्पोरेट अनुदानों की कोई कमी नहीं थीके खिलाफ़ बहुत कम पैसों में अपना चुनाव अभियान चलाना क्षमा सावंत के लिए कोई आसान बात नहीं थी। चुनावों से पहले उनकी उम्मीदवारी का किस्सा भी दिलचस्प है। सावंत ने वाशिंगटन राज्य के 43वें विधान जनपद (लेजिस्लेटिव डिस्ट्रिक्ट) की सीट संख्या 1 के लिए अपना आवेदन प्रस्तुत किया था। मगर दि स्ट्रेंजर नाम के अखबार ने नामजद प्रत्याशी के तौर पर सीट संख्या 2 में उनकी उम्मीदवारी का समर्थन किया। राज्य के निर्वाचन सम्बन्धी कानूनों के अनुसार वे दोनों में से कोई एक सीट चुन सकती थींजिसमें उन्होंने फ्रैंक चॉप के खिलाफ़ लड़ने के लिए सीट संख्या 2 को चुना। मगर सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट कार्यालय का मानना था कि निर्वाचन सम्बन्धी क़ानून के अनुसार नामजद प्रत्याशी अपनी पार्टी प्राथमिकता मतपत्र पर ज़ाहिर नहीं कर सकते। इसको लेकर क्षमा सावंत ने सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट के खिलाफ़ किंग्ज़ काउंटी निर्वाचन कार्यालय में मुकदमा दायर किया और फैसला उनके पक्ष में आने पर राज्य को उनकी पार्टी प्राथमिकता को मतपत्र में शामिल करना पड़ा।

चुनाव परिणामों की घोषणा के बाद जारी अपने बयान में सावंत ने कहा कि वॉल स्ट्रीट के पास दो पार्टियाँ हैंअब ज़रूरत इस बात की है कि मेहनतकश लोगों की भी अपनी एक पार्टी हो। उन्होंने 2013 में हर नगर परिषद और मेयर के पद के लिए होने वाले चुनावों में श्रमजीवी वर्ग के प्रत्याशी खड़े करने के लिए अमेरिका की अन्य प्रगतिशील शक्तियों के साथ मिलकर एक साझा मोर्चा बनाने का भी इरादा ज़ाहिर किया।

उनके इस इरादे पर बुलंद आवाज़ में आमीन कहा जाना चाहिए।
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समयांतर के दिसंबर 2012 अंक में प्रकाशित। 

Monday, December 3, 2012

उनका दिव्य सर्किट हमारा अथाह समंदर : शिवप्रसाद जोशी

 (गुजरात की एक संक्षिप्त यात्रा पर कुछ नोट्स)

                               


सबसे पहले विद्रूप से ही टकराए. जैसे कि यही होना था. साबरमती नदी को भरने के लिए लाया गया नर्मदा का पानी. पानी घिरा हुआ है और गंदला है. किनारे निर्माणाधीन हैं. साबरमती के किनारे गांधी के आश्रम में इतनी भीड़भाड़ के बावजूद एक अजीब सा खालीपन लगता है. जैसे कोई चीज़ याद आने आने को है नहीं आती. जैसे कुछ कचोटता है. क्या. पता नहीं चलता.

एक घर कुछ कमरे यादें आगंतुक रजिस्टर. और फिर गांधी से जुड़ी तमाम चीज़ों का संग्रहालय. पोस्टर नारे किताबे पोशाक चिट्ठियां संदेश. एक संदेश पर जाकर नज़रें टिक गईं और देर तक वहीं रहीं. फिर एक भारीपन समा गया भीतर. कचोट और गहरी हो गई. गांधी का वो संदेश किअगर ख़ून बहाना ही है, तो वह अपना ही हो. आओ बिना किसी की हत्या किए हम शांति और साहस से मरें..जैसे कि गुजरात यात्रा से पहले ये संदेश हमारी यादध्यानी के लिए ही था. अचानक हमारे सामने कर दिया गया.

क्या इसे गुजरात के दरवाजे पर टांग देना चाहिए. घरों की खिड़कियों के कांच में इस संदेश की पारदर्शिता घोल दी जाए. इसे गुजरात सरकार के मुख्यालय के सामने लगा दिया जाए. क्या इस संदेश को मुख्यमंत्री के घर पर फ़्रेम कर लगा देना चाहिए. ताकि वहां हर आने जाने वाला शख़्स उसे देख पढ़ याद रख सके.

गुजरात की यात्रा कुछ इन्हीं सवालों के साथ फिर शुरू होती है. हम अहमदाबाद देख रहे हैं. बंटा हुआ. उलझा हुआ. बढ़ता हुआ. ख़ून और धूल से सना हुआ. चालाकियों और कारोबार और मंसूबों से घिरा हुआ. योजना बनाता हुआ और ढेर होता हुआ. दोस्तियों खुराफ़ातों सुंदरताओं विलासिताओं और क्रूरताओं का शहर. हम हुसेन दोषी गुफ़ा में हैं. जैसे अपने समय के अनचीन्हे उजालों के पास. हम इस गुफ़ा में निर्भीक सांस ले सकते हैं. 2002 में इस गुफ़ा तक न पहुंचा कोई. क्या यहां से निकलने का एक ही रास्ता है इसलिए.

हम एक सुंदर आत्मीय आतीथ्य में हैं. किताबों और विचारों और अपनत्व और दो प्यारे बच्चों और एक ममता भरी स्त्री के घर में. क्या जो सर्किट हम घूमेंगे वो इतना दिव्य होगा जितना ये तीन कमरे, बैठक, बैठकी.

हम एक चमकते हुए राजमार्ग पर जा रहे हैं. सुबह एक वीरानी में और एक दूर तक जाती सड़क के कालेपन में खुलती जाती है फिर उसी में गुम हो जाती है. ये रास्ता हमें द्वारिका ले जाएगा. समंदर के किनारे. वहां एक बरसों पुरानी याद है उसे देखने की तीव्रता से ही इस यात्रा का जन्म हुआ.

द्वारिका मंदिर की ऐतिहासिकता भव्यता श्रद्धा कतार दर कतार सुरक्षा नोकों पर लहराते झंडे एक हड़बडी उधेड़बुन एक विराट कोलाहल और अंततः कहीं न गिराती हुई एक डूब.

हम इससे पहले समंदर देख आए और डूब आए. और यहां जो सबसे अकेली सुनसान शांत जगह है वो दूर खड़ा लाइटहाउस है. हम आपाधापी भरे दिन के बाद ऊब भरी और टुकुर टुकुर ताकती हुई सी शाम के बाद रात के इंतज़ार में हैं. वो हमारे लिए कुछ राहत लाएगी. हम लाइटहाउस के पास जाएंगें. उसकी रोशनियां चारों तरफ़ गिर रही हैं. नीचे चट्टानों से टकराती हुई एक गर्जना है. न जाने कितने चीत्कार हैं यहां. अनंत तक फैला हुआ हिलता हुआ सा एक कालापन और एक दूसरे पर गिरती पड़ती हुई सी आतीं आवाज़ें. लहरों का कंद्रन इसे ही कहते हैं या ये अट्टाहस है इस्तेमाल के बाद फेंका हुआ.

सूरज के आने से पहले हम लाइटहाउस फिर आएंगें. समंदर रात के उस अवसाद और उस थकान को आज अपनी इस अपार नीलिमा से हर लेगा. वे रात की आवाज़ें एक अलग दास्तान के साथ फिर से लौट आएंगी. वे बताएंगी क्या हुआ था. इन आवाज़ों का नामोनिशान कैसे मिटाओगे. वे पछाड़ें खाती हुईं हरदम हररोज़ जैसे इंसाफ़ इंसाफ़ के सवाल की बौछार फेंकती हुई. लेकिन हम उस गुनाह में शामिल नहीं थे. क्या वास्तव में नहीं. हम उन लहरों को नहीं पहचानते कि क्योंकर वे हम पर गरजती हैं. वे हमें नहीं पहचानतीं कि हम आख़िर ख़ुद को बरी कह देने वाले कौन लोग हैं. कहां के. और जा कहां रहे हैं.

द्वारिका द्वीप. बेट द्वारिका. और वो रास्ता. धर्म के राजमार्ग नहीं गलियां भी होती हैं.

रास्ते दिव्य ही नहीं होते हैं. तीर्थ तक पहुंचने से पहले एक बहुत लंबी पट्टी है डंडियों के जालों पर सुखाई जा रही मछलियों की महक हमारी नसों में धंस गई है. नमक कारखाना. आखिर इसी नमक को खाकर हम बड़े हुए सोचने लगे नौकरी की घूमे और यहां तक आए. हमें नहीं पता हम नमक का धर्म सूंघ रहे हैं या धर्म का नमक चख रहे हैं.

शोर शोर शोर. बदहवासी. भगवान की झलक पाने को बेताब भीड़. धक्कामुक्की. धन्य होने की नौबत आ गई.

और फिर समंदर के एक तट की खोज. निर्जन सी जगह. और देर तक रेत और पानी में गड्डमड्ड. इस नमक का स्वाद भी चखो. और गुजरात के किनारे इस समंदर में लोटपोट हो जाओ जिसका नाम अरब सागर है. मंदिरों मठो को छूता हुआ उनके पास तड़कता हुआ गूंजता हुआ बिफरता हुआ अरब सागर. न जाने कैसे ये नाम आया. कब.

वे आदिवासी जन. श्रम से सराबोर. जाते ऊंघते. जैसे इस भव्यता में अचानक ही दाखिल हो आए. उनके घर कहां हैं. उनके परिवार. वे घिसटते हुए से क्यों जाते हैं जैसे ये सड़क नहीं एक बहुत लंबी ऊब है. क्या वे सब इस दिव्य सर्किट में समा जाएंगें.

उनके ऊंटों का काफ़िला. सड़क किनारे खेतों पर. वहां निर्माण होंगे, ये काफ़िला क्या ज़मीन के नीचे चला जाएगा. वहीं से कहीं गुज़रेगा. विकास बहुत तेज़ गति में है. सुस्ताने की ये प्रवृत्तियां घातक हैं. ऊंट विकास संस्कृति में नहीं अंटता. ये कहानी का चालाक ऊंट नहीं है और न ही ये कहानी का तंबू है. ये भूमंडलीय पूंजी का कसा हुआ तंबू है और ये आवश्यकतानुसार फैलता जाता है. एक दिन हम आकाश को कवर कर देंगे. वे इस बात को गर्व से दूसरे ढंग से कहते हैं. कभी विज्ञापन में कभी राजनीति में.

कभी ज़ोर से चीखकर कभी बहुत जानलेवा मुस्कान के साथ.
  
हम जामनगर के रास्ते पर हैं. आगे बेरीकेडिंग है. सभी गाड़ियां चेक की जा रही हैं. हमारा ड्राइवर कहता है, अहमदाबाद से आए हैं, टूरिस्ट हैं. मेरा कार्ड देखा जाता है. जाने दो. ड्राइवर से ही पता चला सीएम का दौरा है. परिंदा भी नहीं घुसने देंगे. ऐसी सुरक्षा है. एक अजीब तरह का खालीपन है यहां. लोग इतने चौंके हुए क्यों हैं. क्या वे हमेशा से ऐसे ही थे.

हम एक ग्रामीण भारत से गुज़रते हुए आख़िर फिर एक बड़े कारोबारी भारत में दाखिल हो रहे हैं. सोमनाथ का रास्ता क्या यहां से है. हम पूछते हैं. हां ठीक जा रहे हैं आप. जाएं. हम एक बहुत विशाल अकल्पनीय से गेस्ट हाउस में है. लोग उमड़ते आ रहे हैं.

आस्था की एक अदृश्य स्वचालित चक्की रात दिन चल रही है.

हमारे सामने न जाने कितनी बार तबाह हो चुके सोमनाथ की जगह न जाने कितनी बार बहाल किया जा चुका सोमनाथ है. हम क्या प्रदर्शन में शामिल हो जाएंगें. नहीं धर्म से पहले कर सकें तो आत्मा का प्रदर्शन करें. नहीं कर सकते तो झूठमूठ जाइए और वहां समंदर के पास चले जाइए. सारी बेचैनियां सारे कपट सारे छल सारी राजनीति का गवाह. जो यहां से चले तो दक्षिणी ध्रुव पहुंचे.
इस सर्किट को सोचसमझकर विकसित किया गया है. रिहाइशें और निर्माण और कारोबार एक जैसा ढाला गया है. विविधता वाले भारत का ये गलियारा समरूप क्यों है. एकांगी. एक ही छवि बनाता. और दूसरी छवियों को अपनी भव्यताओं के पिछवाड़े डाल देता.

क्या वे वहां नहीं पनपेंगीं या वैसे ही दम तोड़ देंगी. क्या छवियां सिर्फ गढ़ी जा सकती हैं. हम धकेली गई डराई और सताई गईं और नष्ट की गईं छवियों के बारे में पूछना चाहेंगे. उसके बिना आज के इस गुजरात की कैसी भी यात्रा पूरी नहीं होती.