Wednesday, February 27, 2008

अमेरिका और हम

साथियो, फिदेल को लेकर आपका स्टैंड हौसला बढ़ाने वाला रहा। दरअसल हमारे राष्ट्रवादियों की राष्ट्रभक्ति ही यही है कि अमेरिका को कैसे-कैसे, कितनी बार सलाम बजाय जाए और अमेरिका के विरोधी को खास दुश्मन माना जाए। बाकी मध्यवर्ग का क्या हाल हुआ है, उसे असद जैदी की टिपण्णी में पढ़ा जा सकता है। मैं जिन दिनों करनाल था, वहां के एक पब्लिक स्कूल में कोई भाषण प्रतियोगिता थी। एक बच्चे ने मेरी मदद चाही और उसमें शुरुआत में इराक के सिलसिले में एक वाक्य में कुछ इस तरह था - खुले सांड की तरह रौंदता अमेरिका। इस बात को लेकर एक टीचर बेहद नाराज थीं। उन्होंने कहा कि अमेरिका को गाली दी जा रही है और मैं ये बर्दाश्त नही कर सकती। ऐसे लोगों को भी फिदेल कास्त्रो में लाख खामियां नज़र आती हैं और अमेरिका की हर करतूत पर इन्हें नाज़ होता है। मुझे इस सिलसिले में दो बेहद दिलचस्प कवितायें याद आ रही हैं- एक मनमोहन की है और एक विष्णु नागर की, वक्त मिलते ही पोस्ट करूँगा।

Monday, February 25, 2008

`बहनें और अन्य कविताएँ` की भूमिका के बहाने

असद ज़ैदी अक्सर कुछ खरी बातें कर देते हैं और भाई लोग खफा भी हो जाते हैं। इस बार उन्होने अपनी पुरानी किताब बहनें और अन्य कविताएँ के पुनर्प्रकाशन के मौक़े पर दो शब्द लिखें हैं और गाफिल आलोचकों पर भी कुछ फ़रमाया है। वैसे इस जरूरी गुस्ताखी के अलावा भी हाल के दौर के हादसों पर कवि की चिंता सभी बेकल लोगों की चिंता है-


`.......1980 से पहले के समय, सत्तर के दशक के उत्तर भारतीय समाज और राजनीति के साये में ये कविताएँ लिखी गयी थीं। बहुत-से हादसे तब तक नहीं हुए थे और आज जो दौर ताबूत में पड़ा-सा नज़र आता है, उस वक़्त जिंदा और चलता-फिरता था। लिखते और सोचते हुए जिन लोगों के चेहरे सामने रहते थे, वे कभी के ओझल हो चुके हैं, और जो जीवित भी हैं, उनमें से कुछ से मिलते हुए, बकौल कवि मनमोहन- कैसा शर्मनाक समय है/ जीवित मित्र मिलता है/ तो उससे ज्यादा उसकी स्मृति/ उपस्थित रहती है/ और स्मृति के प्रति/ बची-खुची कृतज्ञता।

जहाँ तक साहित्य और संस्कृति की बात है, उस दौर के कवि और थे, लेखक और। महज़ उस दौर के आलोचक आज भी वैसे ही हैं। हिन्दी आलोचना की मुख्यधारा न सिर्फ जीवन से बल्कि मरण से भी परे है।
जिस दौर में ये कविताएँ लिखी और पढी गयीं तब के हालात और सूरतों की झलक ज़रूर इन कविताओँ में मिलेगी - शायद तब से ज्यादा अब, जोकि एक स्वाभाविक बात है। पर मेरे अनेक समकालीनों को तब इनमें हताशा और पलायन - बल्कि हताशा की ओर पलायन - की प्रवृत्ति नज़र आयी थी। चूंकि मैं कुछ सवभाव से और कुछ परिस्थिति के दबाव से काफी पहले से, बिना जाने, अंतोनियो ग्राम्शी के खेमे में जा पड़ा (पैसिमिज़्म ऑफ़ द इन्टेलेक्ट, ओप्टिमिज्म ऑफ़ द विल, यानी बुद्धिजन्य नैराश्य -इछाशक्तिजन्य आशावाद ) और वहाँ से निकलने की कोई राह मुझे नहीं मिली। इसलिए मुझे इसमें कोई बुराई भी न दिखी। पर सच यह है कि इन कविताओं पर आज नज़र डालता हूँ तो इनमें मौजूद नाराज़ ऊर्जा और रूहानी वलवले और उससे पैदा मासूम आशावाद को देखकर झेंपता हूँ। क्योंकि है इस दरम्यान वह हिन्दुस्तान ही गायब हो गया है जिसमें लड़ते-मरते-झींकते हम जवानी का दौर पार कर रहे थे। उस वक़्त कतई अंदाज़ नहीं था कि हम अचानक एक नए लेकिन नितांत अमौलिक और उबाऊ दौर में ला पटके जायेंगे।

हिंदुस्तान के इतिहास में आज हम एक वीभत्स लेकिन लचर, रक्तरंजित लेकिन उत्सवधर्मी और नंगे लेकिन गाफिल युग में प्रवेश कर चुके हैं। हमारे मध्यवर्ग का विशालतर हिस्सा अब अंतर्राष्ट्रीय साम्राज्यवादी कारखाने के फुर्तीले पर संवेदनहीन पुर्जे की तरह काम कर रह है। समाज और इतिहास के प्रति अज्ञान पहले से बढ़ा है - एक जोशीला अज्ञान जो राजनीतिज्ञ और व्यापारी, अफसर और पेशेवर, शिक्षक, पत्रकार और बौद्धिक सबके बीच एक नयी परिणिति तक पहुंच चुका है। यह एक गुणात्मक परिवर्तन है। उन्नीस सौ सत्तर के दशक में ( और अस्सी के शुरुआती सालों में ) संभावनाएं कुछ और ही दिखा करती थीं। मध्यम वर्ग का बेशतर हिस्सा जनता ही का - इस मुल्क के अवामुन्नास का - हिस्सा था, और ख़ुद को वैसा समझता भी था। मध्यवित्त, निम्न-मध्यवर्ग, सर्वहारा, समता, जनवाद, आन्दोलनधर्मिता, मजदूर, किसान, भूमिहीन इन कोटियों की सामाजिक और नैतिक अर्थवत्ता बुद्धिजीवियों और लेखक के मन में स्पष्ट थी - ये यथार्थ की स्वीकार्य श्रेणियां थीं। पढे-लिखे लोग तमाम विषमता और सामाजिक कटुता, मोहभंग और आशावाद, जीविकोपार्जन और राजनीतिक प्रतिरोध के बीच डोलते हुए भी अपने समाज को लेकर चिंतित और सक्रिय पाए जाते थे। यह संग्रह इसी गुज़रे वक्त को - जैसा भी था - समर्पित है।
 जनवरी, 2008 -असद ज़ैदी

Tuesday, February 19, 2008

सलाम फिदेल

फिदेल कास्त्रो ने क्यूबा में सत्ता छोड़ने का एलान किया है। वे पिछले काफी वक्त से बीमार हैं। अमरीका और हर समर्ज्यवादी-पूंजीवादी की आँखों की किरकिरी कास्त्रो अमेरिका से लेकर दुनिया के हर कोने में न्याय के पक्षधर लोगों के दिलों पर राज करते हैं और इस बात का कोई अर्थ नही है कि वे अब सत्ता नहीं संभालेंगे। उन्होंने अपने जीवन का बेहद विवेक और बेमिसाल साहस के साथ जनता के लिए इस्तेमाल किया है और वे एक गहरे भरोसे की तरह हैं। अपने भगत सिंह और कास्त्रो के साथी चे की तरह ऐसे ढेरों उदाहरण मिलेंगे, जिन्होंने अपनी शहादत से मिसाल पेश कीं। लेकिन कास्त्रो के जीवन को देखकर अचरज ही होता है कि कैसे उन्होंने क्रांति की कमान संभाली, और फिर तमाम आर्थिक पाबंदियों के बावजूद देश में आम लोगों के लिए शिक्षा और स्वास्थ्य की ऊँचे स्तर की सुविधाएँ मुहैया करायीं और इस समाजवादी ढांचे की सफलता से दुनिया भर के लोगों को रह दिखाई, लगातार एक बेहद सजग बुद्धिजीवी की तरह जटिल मसलों पर लिखते-बोलते रहे। यह अकारण नहीं है की उन्हें हजारों हज़ार ढंग से मारने की कोशिश करता रहा दुश्मन भी अपने मीडिया में उनकी उपलब्धियों को देखने को मजबूर रहा है। यह भी अकारण नही है कि वे इस वक्त समरज्य्वाद, पूंजीवाद और हर तरह के अन्याय के खिलाफ संघर्ष करने वालों के बीच सबसे ज़्यादा पढे जा रहे हैं और अपने यंहा भी उनके लगातार अनुवाद हो रहे हैं। नेरुदा और मर्ख्वेज जैसे कवि उन पर लिखते हैं। मर्ख्वेज की उन पर लिखी छोटी सी पुस्तक अद्भुत है।

वादे के मुताबिक ये कविता - `ब्रेष्ट और निराला`

ब्रेष्ट और निराला
-------------
सपने में देखा कोई घर
थाघर क्या टूटाफूटा-सा कमरा एक
कुर्सियाँ रखी हुई थीं बहुत पुरानी
बैठे थे उन पर बेर्टोल्ट ब्रेष्ट और निराला
वैसे ही जैसे अपनी-अपनी तस्वीरों में दिखते थे
निराला अस्तव्यस्त बालों में गहरी ऑंखें कहीं दूर देखतीं
ब्रेष्ट उसी गोल चश्मे में दो दिन की बढ़ी हुई दाढ़ी
और आँखें जैसे काफी दुनिया देख चुकी हों
सुना रहे थे कविता एक-दुसरे को
अभी कुछ और सुनाओ कहते
दोनों बीच-बीच में दुनिया के रंगढंग पर अचरज करते
कहा ब्रेष्ट ने मैं एक अँधेरे युग में रहता हूँ
निराला बोले मैं इसी अँधेरे का ताला खोलने को कहता हूँ
फिर कहा निराला ने चारों ओर घना है दुःख का जंगल
बोले ब्रेष्ट मैं रहा खोजता इस दुःख का कारण
निराला बोले मैं लड़ा कुलीनों से ब्राहमण के घर के व्यंजन छोड़े
जो असली जान हैं समाज के महंगू और झींगुर जैसे
या इलाहाबाद के पथ की वह मजदूरिन
उन पर जब लिखा मैंने
आलोचक बरसे मुझ पर कईयों ने कहा मुझे पागल
मरा हूँ हजार मरण
कहा ब्रेष्ट ने पूंजी और ताकत की निर्मम चालों पर
मैंने भी कलम चलायी उनके व्यवहारों को बारीकी से देखा
समाज की तलछट में रहनेवाले मुझे भी भले लगे
साधारण की हिम्मत और अच्छाई को दर्ज किया
अत्याचारी से बचने की तरकीबें खोजीं कई देश बदले
किसी तरह बच गया मृत्यु और यातना शिविरों से
जगह-जगह खोजता रहा शरण
कहा निराला ने जनता की ही तरह कविता की मुक्ति ज़रूरी है
बोले ब्रेष्ट जनता की मुक्ति में कविता बची हुई है
दो महाकवि गले मिले बोले फिर मिलते हैं
सपने में जाते दिखते दोनों ऐसे
जैसे जीवन में साथ रहा हो बरसों से
-मंगलेश डबराल

Thursday, February 14, 2008

प्यार - कुछ रचनाएँ


``गर रोयी हूँ ज़िन्दगी में अब तक की तो सिर्फ़ एक के ही लिए``

तेरी ख़ामोश सुबकियाँ तेरे भीतर गिरते आँसू
और बड़ी-बड़ी सूनी आँखें
उस शाम के घिरते अँधियारे के साथ
मुझ तक पहुँचते हैं अब तक
ए अपने वीरान बरामदे में खड़ी अकेली लड़की

हमेशा यह होता है
जब किसी को बेख़ुदी की हद तक चाहना
एक बेहतरीन सपने की तरह टूट जाता है
लेकिन सत्रह बरस की तू भला इसे क्या जानती थी

आख़िर हुआ क्या था यह पूछना
उस असह तकलीफ़ को सस्ता बना देता है
जिसे ठीक-ठीक बयान नहीं किया जा सकता
हज़ारों वजहें बन जाती हैं दिल टूटने की
वह भी पहले प्रेम में

न बता तू न बता इसे रहने दे एक दफ़नायी हुई बेहद निजी पीर
कितनी ख़ुशियाँ कहीं की नहीं रहतीं
कितनी कल्पनाएँ कितने भविष्य
बेरहम परछाइयाँ बन जाते हैं जिन्हें बाँधा नहीं जा सकता
इतनी सारी शादमानी लेकर क्यों आती है चाहत पहली बार
कि उसका न रहना बेजान कर जाता है समूचे वजूद को

कितनी ज़िन्दगी तेरी बीती थी उस वक़्त तक
चंद दिनों पहले ही तुझे अहसास हुआ होगा
कि ज़िन्दगी किसे कहते हैं जिसमें तूने ख़ुद को ख़ुद
बनते हुए शायद पहचाना होगा
लेकिन प्रेम में पड़ते ही ज़िन्दगी पहाड़ जैसी लगने लगती है ज़िन्दगी बनती हुई

यह पहली बार किस-किस भेष में और लौटेगा?
और यह रोना किसी एक के लिए?
क्या तू फिर नहीं रोयेगी
हर बार उसी तरह लेकिन हमेशा दूसरी तरह?

ऐसा बहुत होता है लड़की
क़िस्मत और इन्सान सिर्फ़ एक बार नहीं देते फ़रेब
हो सके तो किसी ऐसे लम्हे का ख़्वाब देख
जो आये तो तुझे लगे कि तू भूल गयी है
अपना वह पहली बार रोना
और याद आये भी तो तू हौले से हँसे अकेले में
उस दुखियारी लड़की के बालापन पर
जो अपनी बड़ी-बड़ी भीगी आँखों से तक रही थी
अपने वीरान बरामदे का अँधियारा उस शाम
-विष्णु खरे
 ***

``लगता है प्रेम सफल हो या असफल, वह जीवन की दिशा, उसकी गतिकी और उसकी त्रिज्या को हमेशा बदल देता है।``
-उदय प्रकाश की यह टिपण्णी एक उदास कवि को लेकर लिखे गए उनके लेख में थी।
***


तुम्हारा प्यार

यह स्त्री डरी हुई है
इस तरह
जैसे इसी के नाते
इसे मोहलत मिली हुई है

अपने शिशुओं को जहां-तहां छिपा कर
वह हर रोज़ कई बार मुस्कुराती
तुम्हारी दूरबीन के सामने से गुज़रती है

यह उसके अंदर का डर है
जो तुममें नशा पैदा करता है

और जिसे तुम प्यार कहते हो
-मनमोहन
***


एक परिंदा उड़ता है

एक परिंदा उड़ता है
मुझसे पूछे बिना
मुझे बताये बिना
उड़ता है परिंदा एक
मेरे भीतर
-मनमोहन
***


प्रेम


वह कोई बहुत बड़ा मीर था
जिसने कहा प्रेम एक भारी पत्थर है
कैसे उठेगा तुझ जैसे कमज़ोर से

मैंने सोचा
इसे उठाऊँ टुकड़ों-टुकड़ों में

पर तब ह कहाँ होगा प्रेम
वह तो होगा एक हत्याकांड।
-मंगलेश डबराल
***

वैलेंटाइन्स डे पर रसूल हमज़ातोव

रसूल हमज़ातोव का ज़िक्र आते ही अद्भुत किताब मेरा दागिस्तान आप सभी के जेहन में उभर आयी होगी। उनकी ये पंक्तियाँ मेरे एक दोस्त नीरज को बेहद पसंद हैं। वैलेंटाइन्स डे के शोर में उन्होंने फ़ोन पर इन्हें मुझे फिर सुनाया और मैं इन्हें यहाँ रख रहा हूँ-


अगर हजार आदमी करते हैं तुमसे प्यार
उनमें एक मैं होउंगा रसूल हमज़ातोव
अगर सौ आदमी करते हैं तुमसे प्यार
उनमें भी एक मैं होउंगा रसूल हमज़ातोव
अगर एक आदमी करता है तुमसे प्यार
वो मैं ही होउंगा रसूल हमज़ातोव
अगर कोई नहीं करता तुमसे प्यार
और तुम अपना उदास हृदय लिए
जा बैठती हो कब्रिस्तान में पाषाण किनारे
तुम्हें वहां भी लिखा मिलेगा
यहाँ सोया है रसूल हमजातोव

Ignoramuses of the Hindutva Brigade ?

Well, how much time does it take to read a lesson meant for a textbook. Let us suppose a few minutes... may be an hour or so ! And how much time does one need to comprehend the same. ...Well, for lesser mortals like us, it does not need any extra time ; but when it comes to some special people with special agendas then perhaps it can take 4-5 years.
If you find this to be an exaggeration, then perhaps you are not reading the newspapers properly. Perhaps it is high time that you get to know the recent controversy around a textbook brought out by the NDA government in Orissa. One can just imagine that if it would have been any other state ruled by the 'pseudo secularists' then by now a full scale violent agitation would have seen the light of the day with all the affiliated organisations of the Sangh Parivar, lending their support. Unfortunately it is not the case. And the person in charge of education department is none other than Mr Samir Dey, a hardcore RSS pracharak from his early days.
A leading mainstream daily recently gave an insight into the matter. In its report on its front page captioned 'In NDA Orissa, a textbook equates BJP with Lashkar' (Indian Express, Delhi, 2 nd February 2007) it tells us about the manner in which a textbook on 'Indian Polity' for second-year degree students in Orissa clubbs Lashkar-e-Toiba with BJP. According to the report
The chapter on the 'Existence of Terrorist Organisation' says : "Terrorist organisations create tension in the country. Communal parties like the BJP, RSS, Bajrang Dal, Hurriyat Conference and Lashkar-e-Toiba are responsible for fomenting violence..leading to the killing of hundreds in the country and especially Kashmir."
It is worth noting that the said textbook - which is written by Amarendra Mohanty and Shyama Charan Mohanty, teachers of political science has been taught since 2003. The matter could come to light only after a BJP worker in Salepur, about 60 KM from the state capital, noticed it and lodged a FIR. As of now an embarrased government immediately announced a monitoring commitee to screen all textbooks and BJP workers took to the streets and burnt copies of the book.
Looking at the fact that the Sangh Parivar - which is hell bent upon making Orissa the second Hindutva Laboratory - has egg on its face a la this episode, it can be presumed that the whole matter would be hushed up. But the issue does throw light on the mental abilities of the plethora of activists of the Hindutva brigade who needed around five years to notice this 'discrepancy' in the textbook.
Of course it is not for the first time that Sangh Parivar or one of its affiliated organisation was forced to withdraw a book published under its own supervision. A look at one of their own publications brought out on the occasion of the silver jubilee celebrations of the BJP illustrate this in no uncertain terms. As reported in a national daily (Indian Express, 9 th May 2006) :
Mystery surrounds the sudden withdrawal of one of the 16 volumes of an official account of the Jana Sangh-BJP history, four months after it was released as part of the silver jubilee celebrations in Mumbai. The series, written by historian Makhan Lal under the supervision of senior BJP leader J P Mathur, carry a foreword by Leader of the Opposition in the Lok Sabha L K Advani.
While the sudden withdrawal of one volume titled RSS Aur Bharatiya Jana Sangh Ki Sthapana Ka Itihas (The History of Creation of the RSS and Bharatiya Jana Sangh) appears bizarre, till date one has yet to get any official explanation from the BJP about its action. Looking at what Ram Madhav, the ex spokesperson of the RSS had to say, it can be inferred that the Parivar people felt agitated over the admission in the book that both RSS and the Bharatiya Jan Sangh, the predecessor of BJP, were set up as anti Muslim forces.

Apart from the genesis of the RSS (and Bharatiya Jan Sangh) the Sangh bosses seem to be annoyed with references which according to another report (The Telegraph, May 10, 2006) 'contains references that are too anti-Muslim even for the RSS.' The references to Mahatma Gandhi where the book peddles the conventional wisdom in the Hindutva Brigade that 'the origin of "minority-appeasement" was in Gandhi's attitude towards the Muslims' has also been found unpalatable to the Sangh fraternity. It is clear to everyone that of late it seems to be cosying up to the Mahatma, including him even as one of its Pratahsmaraniya (worth remembering in the morning).
May it be the case of the Oriya textbook or for that matter the withdrawal of a volume four months after release such foolish attempts by the Hindutva brigade people pale in significance if one gets to know the manner in which a whole book by its second supremo, M.S. Golwalkar was surreptiously withdrawn.
It is common knowledge that the first of Golwalkar's theoretical contributions for the cause of Hindutva had appeared in the form of a pamphlette called 'We or Our Nationhood Defined' ( 1938) which was so straightforward in his appreciation of the 'ethnic cleansing' of Jews undertaken by Hitler and such an unashamed proponent of the submergence of 'foreign races' in the Hindu race that later day RSS leaders have tried to create an impression that the said book was not written by Golwalkar but it was merely a translation of a book 'Rashtra Meemansa' by Babarao Savarkar.
A quote from the 77 paged book would be opportune at this moment.
"The foreign races in Hindusthan must either adopt the Hindu culture and language, must learn to respect and hold in reverence Hindu religion, must entertain no idea but those of the glorification of the Hindu race and culture, i.e., of the Hindu nation and must loose their separate existence to merge in the Hindu race, or may stay in the country, wholly subordinated to the Hindu Nation, claiming nothing, deserving no privileges, far less any preferential treatment — not even citizen's rights. There is, at least, should be, no other course for them to adopt. We are an old nation; let us deal, as old nations ought to and do deal, with the foreign races, who have chosen to live in our country".
It is a different matter that in his Preface to We or Our Nationhood Defined dated March 22, 1939, Golwalkar himself described Rashtra Meemansa as 'one of my chief sources of inspiration and help. The American scholar Jean A. Curran who did a full length study on RSS in early fifties, in his sympathetic book, Militant Hinduism in Indian Politics: A Study of the RSS (1951) confirms that Golwalkar's 77-page book was written in 1938 when he was appointed RSS General Secretary by Hedgewar and he calls it as RSS's 'Bible'.
Coming back to the Oriya textbook it is being learnt that the said committee formed by the Chief Minister would look into the legal aspects and act against the publishers. A spokesperson of the BJP has even demanded arrest of its authors.
All empty words.
Perhaps they learn that instead of following their agenda of hate and targetting their ire on innocents they learn the essence of harmony. Only then it would be possible for them to read as well as comprehend in a better manner, at least they would be saved from the disgraceful revealation that they need around five years to understand an article.
--subhash gatade
H 4 Pusa Apartments, Rohini Sector 15, Delhi 110085 Ph : 011-27872835 email : subhash.gatade@gmail.com

Monday, February 11, 2008

ब्रेष्ट और निराला के बहाने

कल ब्रेष्ट का जन्मदिन था और आज निराला का है। मंगलेश डबराल की एक कविता है जिसमें ब्रेष्ट और निराला बात करते हैं। हालांकि दोनों कवियों के मिजाज़ काफी अलग हैं पर एक बेचैनी दोनों में हैं, वक़्त मिलते ही दोनों की एक -एक कविता रखूँगा।

Saturday, February 9, 2008

Condemn the Assault on Freedom of Expression

Bhopal : Shubhradeep Chakravorty's documentary Not Allowed to be screened

The growing intolerance of the saffron outfits towards anything which does
not meet their distorted worldview was on display once again. This time the
target of their assault was Shubhradeep Chakravorty's recent documentary on
encounter killings in Gujarat titled ' Encountered on Saffron Agenda'.

Shubhradeep, who is a New Delhi based documentary filmmaker, has made the
much discussed 'Godhra Tak : The Terror Trail'. The recent documentary which
was shot in seven states, is based on investigative documentation of few
encounter killings in Gujarat in recent times. A significant commonality
between all these encounters was that those killed in these encounters were
said to have on a mission to kill the Chief Minister Narendra Modi who had
allegedly organised the 2002 genocide of Muslims in the state after Godhra
train burning incident.

Yuva Samvad, an organisation of Youth had organised the screeing of the
documentary on 7 th February at AICUF Ashram, Bhopal. Shubhradeep was also
present on the occasion to participate in the ensuing
discussion.Thescreeing of the documentary was supposed to start at 7
p.m. but before it could happen a horde of Bajrand Dal activists numbering
around 70 came to the venue and disrupted the show.

Police also refused to give any protection to the programme and in fact took
the Delhi based director of the film along with an activist of Yuva Samvad
to their control room. It compelled the organisers of the programme to call
off the screening despite the fact that the film does not come under the
'banned' category. The Bajrang Dal activists also entered the office of the
Ashram and threatened the authorities there. Police remained a mute
spectator to the whole developments.

It is for everyone to see that this assault on freedom of expression was
another sign of the growing fascist dominance in the state of Madhya Pradesh
where unruly saffron crowd is calling all the shots and administration is
acting as a mere spectator.

It is high time that every peace, justice loving person raise their voice in
unison to condemn such acts and express our total solidarity with people who
are struggling against such forces.


(For any further details about the incident contact yuvasamvad@gmail.com )
Note- I received this matter from Subhash Gatade

Wednesday, February 6, 2008

असद ज़ैदी की कविता 'सामान की तलाश'

असद ज़ैदी हमारे वक़्त के महत्वपूर्ण कवि हैं। तीन दिन पहले ही परिकल्पना ने उनका नया संग्रह `सामान की तलाश' साया किया है। साथ ही उनका पहला संग्रह `बहनें और अन्य कवितायेँ' को भी इस प्रकाशन ने दोबारा छापा है। इन दिनों बहस का सबब (हिन्दी के बंद दिमाग अध्यापक-आलोचक समाज की नाराजगी का भी ) बनी उनकी कविता `1857 : सामान की तलाश' भी इस संग्रह में है।


1857 : सामान की तलाश


1857 की लड़ाइयां जो बहुत दूर की लड़ाइयां थीं
आज बहुत पास की लड़ाइयां हैं

ग्लानि और अपराध के इस दौर में जब
हर गलती अपनी ही की हुई लगती है
सुनायी दे जाते हैं ग़दर के नगाडे और
एक ठेठ हिन्दुस्तानी शोरगुल
भयभीत दलालों और मुखबिरों की फुसफुसाहटेँ
पाला बदलने को तैयार ठिकानेदारों की बेचैन चहलकदमी

हो सकता है यह कालांतर में लिखे उपन्यासों और
व्यावसायिक सिनेमा का असर हो

पर यह उन 150 करोड़ रुपयों के शोर नहीं
जो भारत सरकार ने `आजादी की पहली लड़ाई' के
150 साल बीत जाने का जश्न मनाने के लिए मंज़ूर किये हैं
उस प्रधानमंत्री के कलम से जो आजादी की हर लड़ाई पर
शर्मिंदा है और माफी मांगता है पूरी दुनिया में
जो एक बेहतर गुलामी के राष्ट्रीय लक्ष्य के लिए कुछ भी
कुर्बान करने को तैयार है

यह उस सत्तावन की याद है जिसे
पोंछ डाला है था एक अखिल भारतीय भद्रलोक ने
अपनी अपनी गद्दियों पर बैठे बन्किमों और अमीचंदों और हरिश्न्द्रों
और उनके वंशजों ने
जो खुद एक बेहतर गुलामी से ज्यादा कुछ नहीं चाहते थे
जिस सत्तावन के लिए सिवा वितृष्णा या मौन के कुछ नहीं था
मूलशंकरों, शिवप्रसादों, नरेन्द्रनाथों, इश्वरचंद्रों, सय्यद अहमदों,
प्रतापनारायणों, मैथिलिशरणों और रामचन्द्रों के मन में
और हिन्दी के भद्र साहित्य में जिसकी पहली याद
सत्तर अस्सी साल बाद सुभद्रा को ही आयी

यह उस सिलसिले की याद है जिसे
जिला रहे हैं अब 150 साल बाद आत्महत्या करते हुए
इस ज़मीन के किसान और बुनकर
जिन्हें बलवाई भी कहना मुश्किल है
और जो चले जा रहे हैं राष्ट्रीय विकास और
राष्ट्रीय भुखमरी के सूचकांकों की खुराक बनते हुए
विशेष आर्थिक क्षेत्रों से निकलकर
सामूहिक कब्रों और मरघटों की तरफ
एक उदास, मटमैले और अराजक जुलूस की तरह
किसने कर दिया है उन्हें इतना अकेला?

1857 में मैला-कुचैलापन
आम इंसान की शायद नियति थी, सभी को मान्य
आज वह भयंकर अपराध है

लड़ाइयां अधूरी रह जाती हैं अक्सर, बाद में पूरी होने के लिए
किसी और युग में किन्ही और हथियारों से
कई दफे तो वे मिले-कुचैले मुर्दे ही उठकर लड़ने लगते हैं फिर से
जीवितों को ललकारते हुए जो उनसे भी ज्यादा मृत हैं
पूछते हैं उनकी टुकड़ी और रिसाले और सरदार का नाम
या हमदर्द समझकर बताने लगते हैं अब मैं नज़फगढ़ की तरफ जाता हूँ
या ठिठककर पूछने लगते हैं बख्तावारपुर का रास्ता
1857 के मृतक कहते हैं भूल जाओ हमारे सामंती नेताओं को
कि किन जागीरों की वापसी के लिए वे लड़ते थे
और हम उनके लिए कैसे मरते थे

कुछ अपनी बताओ

क्या अब दुनिया में कहीं भी नहीं है अन्याय
या तुम्हें ही नहीं सूझता उसका कोई उपाय।

Tuesday, February 5, 2008

पुस्तक मेला या बाबा बाज़ार

इन दिनों दिल्ली में विश्व पुस्तक मेला चल रह है। कुछ वर्षों पहले मैं पहली बार इस मेले में आया था तो किताबों की बड़ी सी दुनिया में एक नया अनुभव हुआ था। देश भर के बडे लेखकों से सहज सवांद का मौका खास तजुर्बा था। बाद के वर्षों में मेले का माहौल तेजी से बदला। जिस साल मुरली मनोहर जोशी मंत्री था, उस साल मेले को बाबा बाज़ार में बदल दिया गया था। वो सरकार जाने के बाद भी ये विद्रूप कायम है। इस बार मेले में पहले दिन चंद्रास्वामी अपनी चेला म्मंद्ली के साथ घूमता दिखाई दिया। अचानक हैरानी हुई, एक साथी ने कहा कि नरसिम्हा राव के बाद बाबा के सितारे गर्दिश में आ गए हैं। मैंने कहा, इस वक़्त तो धूर्तता का पूरा सेलिब्रेशन है, हर किसी के सितारे चमक रहे हैं।
आज अचानक एक स्टाल पर एक हट्टा-कट्टा गेरुआधारी परिचित दिखाई दिया। ये शख्स मुझे करनाल मिल चुके थे। १९९९ में मैं वहाँ अमर उजाला के लिए एक प्रोग्राम कि कवरेज कर रह था, आर्य समाज के इन स्वामी जी (तब युवा) को राम मंदिर के लिए गरजते पाया। मैंने इनसे कहा, दयानंद का तो मंदिर वालो से जान का बैर था, आप मंदिर की बात कर रहे हैं, बोले-ये अस्मिता का प्रश्न है। करनाल में कई साल रह तो इनसे बार-बार सबका पड़ा और अक्सर बहस भी होती रहीं। अब कई वर्षों बाद अचानक दिखाई दिए तो अचानक मुँह से निकला, क्या हाल हैं स्वामी जी और शिष्टाचार के नाते हाथ मिलाने के लिए आगे बढ़ा दिया। स्वामी जी कुछ पल के लिए अन्यमनस्क हुए लेकिन तुरंत संभल कर आशीर्वाद देने की मुद्रा में आ गए। मेरा हाथ हवा में लटका सा रह गया और मुझे अपनी गलती का ख्याल हुआ कि धर्मगुरु मनुष्य नही होते। यों भी धर्म का धंधा ग़ैर बराबरी पर टिका होता है और धर्मगुरु इसे और बढाता जाता है। मैंने मजाक में कहा, स्वामी जी, कभी इस इमेज में ऊब तो होती होगी.